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Magazine - Year 1978 - Version 2

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धर्म और विज्ञान का समन्वय ही एक मात्र चारा

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विश्व में फैली ज्ञान की दो धाराओं- धर्म और विज्ञान का प्रादुर्भाव दो भूमिखण्डों से हुआ है। समस्त जीवित और महान धर्मों की जन्मभूमि आज का सीमित किंतु कभी का वृहत्तर भारत है। प्राकृतिक विज्ञानों की पाश्चात्य जगत एक अन्तर्मुखी और आत्मनिष्ठ है, दूसरी बहिर्मुखी और वस्तुनिष्ठ। एक इन्द्रियातीत तत्वों के रहस्यों के उद्घाटन में व्यस्त दूसरी इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं के सन्दर्भ में प्रयत्नशील।

भारतीय विचारधारा मूलतः धार्मिक विचारधारा है। हिन्दू, बौद्ध, जैन, यहूदी, मुसलमान और येरुसलेम की भूमि में उपजे क्रिश्चियन धर्म की रोमन कैथोलिक शाखा का अनुयायी ईसाई- इन सब की व्यक्तिगत  ,पारिवारिक और   सामाजिक   जीवन   जीने   की  रीति -नीतियाँँ ,मन्यताएँँ ,परम्पराएँ  ,द्रष्टिकोण और    व्यावहारिक गतिविधियाँ अपने-अपने धर्मों के द्वारा प्रतिपादित नियमों द्वारा नियमित और संचालित होती हैं। किसी समय आध्यात्मिकता उत्पन्न करने वाला यह सारा क्षेत्र वृहत्तर भारत की परिधि में आता था, जिसे इन दिनों एशिया कहते हैं।

देश-काल-परिस्थिति ने इन धर्मों को भिन्न-भिन्न कलेवर तो धारण करा दिये हैं, कर्मकाण्ड और विचार-व्यवहार के ढंग तो अलग-अलग कर दिये हैं, परन्तु उनका माँस और प्राण-उनकी मूल मान्यताएँ-बहुत बड़े अंश में समान हैं। उदाहरणार्थ, उपरोक्त सभी धर्म मरणधर्मा शरीर को नियन्त्रित और संचालित करने वाली ऐसी सत्ता- आत्मा- के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। जिसका इस जीवन के परे भी अस्तित्व बना रहता है। इस तथा ऐसी ही अन्य उभयनिष्ठ आधारभूत मान्यताओं ने इन धर्मों के अनुयायिओं के सम्पूर्ण जीवन को, इन्द्रिय मस्तिष्क-हृदय की प्रत्येक क्रिया को, अनुशासित करने का न केवल प्रयत्न किया है वरन् परलोक के लोभ और भय दिलाकर आत्मा के कल्याण के लिए अनेक विधि-निषेधों को मानने को मजबूर भी किया है।

इसे स्वस्थ स्थिति नहीं कहा जा सकता। एशियाई धर्मों ने स्वर्ग, और निर्वाण के प्रति, पारलौकिक जीवन के प्रति, अपने अनुयायियों के झुकाव, रुचि और ललक को इतना तीव्र कर दिया है कि इहलोक का मूल्य भव बन्धन एवं माया जाल कहा जाने लगा। वैयक्तिक जीवन से श्रम, कर्म, स्वावलम्बन और आत्म-विश्वास, पारिवारिक जीवन से घनिष्ठता और उदारता तथा सामाजिक जीवन में सामूहिकता की भावना और सहयोग जैसे सद्गुण इस पारलौकिकता की अति से लुप्त होने लगे। अपनी मेहनत से धरती को स्वर्ग बनाने और इसी जीवन में स्वर्ग में रहने का आनन्द पाने के बदले किसी बने बनाए स्वर्ग में मृत्यु के उपरान्त पहुँचने और सुख पाने की मोहक कल्पना ने जन मानस को ग्रस लिया। परलोकवाद का एकांगी पक्ष एक घातक रोग बन गया और और उसने सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग में बाधा ही पहुँचाई।

इसके विपरीत पश्चिमी विचारधारा मूलतः विज्ञान प्रेरित विचारधारा है। इन्द्रियग्राह्य वस्तु व विषय ही प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन एवं अनुसंधान का क्षेत्र हैं। अब तक के अधिकांश वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य केवल इतना रहा है कि ऐहिक जीवन को अधिक सुख-सुविधापूर्ण बनाने के लिए प्रकृति का दोहन किस प्रकार किया जा सकता है। इस विचारधारा ने जहाँ मनुष्य को साहसी, कर्तव्यपरायण, कर्मशील और व्यावहारिक बनाया है, वहीं उसे बहिर्मुखी, सुखवादी, और आत्मवादी भी बना दिया है। कर्मफल के नियम और आत्म-कल्याण की कल्याणकारी आस्था को हटाकर, औचित्य की समस्त सीमाओं को लाँघती विलासिता ने तथा स्नेह रहितता, असुरक्षा और तनाव ने पश्चिमी मन को ग्रस लिया।

यद्यपि यह सही है कि धर्म के समान प्राकृतिक विज्ञान भी गणित की गिनती, भौतिक की ऊर्जा, रसायन की संयोजकता जैसे अनेक अवस्तुनिष्ठ विचारों (एबसैट्रेक्ट आइडियाज) की नींव पर टिके हैं, तथापि यह भी सही है कि उन विज्ञानों से उपजी पश्चिमी विचारधारा व सभ्यता का वर्तमान स्वरूप केवल वस्तुनिष्ठता या वैषयिकता से, अर्थात् केवल इहलोकवाद से नाता जोड़े हुए है। परलोकवाद के समान इहलोकवाद भी पश्चिम का एक संक्रामक घातक रोग बन चुका है।

धर्म और विज्ञान की यह स्थितियाँ एक दूसरे के बिलकुल विरुद्ध पड़ती है, और प्रतीत होता है कि उनमें समझौते की तनिक भी सम्भावना नहीं है। किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विचारधाराओं के बीच में सन्तुलन का बिन्दु भी विद्यमान है। गतिमान पैण्डुलम जब बाँए या दाँए छोर पर पहुँच जाता है, तब विपरीत दिशा में लौटने के सिवा उसके पास और कोई चारा नहीं रह जाता। यह डोलना, यह अस्थिरता उस समय तक जारी रहती है जब तक कि मध्य की सन्तुलित स्थिति स्थायी रूप से प्राप्त न हो जाय। आत्मवादी धर्म और पदार्थवादी विज्ञान मध्यमान सन्तुलन-बिन्दु की विपरीत दिशाओं में स्थित दो अतिवादी व अस्थायी स्थितियाँ हैं, जहाँ से उन्हें सन्तुलन-बिन्दु की ओर लौटना ही होगा। इससे मिलता-जुलता उदाहरण देते हुए हर्बर्ट स्टेन्सर यह मत प्रतिपादित करते हैं कि-”अन्तिम सीमा तक विकसित हुए भावनात्मक (धार्मिक) संस्कृति को चेतनात्मक (पदार्थवादी) संस्कृति की दिशा में तथा चेतनात्मक संस्कृति को भावनात्मक संस्कृति की दिशा में लौटने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है।” इस प्रकार इस विचित्र किन्तु तर्क सिद्ध निष्कर्ष पर हम पहुँचते हैं कि परम सत्य की खोज में संलग्न धर्म और प्राकृतिक विज्ञान अतिवादी एवं अस्थायी स्थितियों पर स्थिति होने के कारण स्वयं ही “असत्य” की श्रेणी में ही रखे जा सकते हैं। तर्क, प्रयोग और अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि दो अतिवादी स्थितियों के मध्यमान पर ही “सत्य” स्थित होता है, क्योंकि वहीं पर सन्तुलन और स्थायित्व उपलब्ध होते हैं। यह तथ्य स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए कि यह स्थायित्व जड़ता का सूचक नहीं है, वरन् गतिशील सन्तुलन का मध्यमान का गुण है।

इस सन्तुलित मध्य स्थिति को प्राप्त करने में, जिसमें धार्मिक और वैज्ञानिक विचारधाराओं का समानुपातिक समन्वय हो जाता है ,  दर्शन बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। प्रसन्नता की बात है कि सर्वोच्च कोटि के वैज्ञानिकों ने भी दर्शन की इस उपयोगिता को अब स्वीकार कर लिया है। परिणामस्वरूप मानवीय इतिहास का नया और कल्याणकारी युग प्रारम्भ करने की सामर्थ्य से युक्त वैज्ञानिक धर्म और धार्मिक विज्ञान की प्रतिष्ठापना का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

अन्ध श्रद्धा उपार्जित, – कल्पना प्रभूत – अवास्तविकता पर आधारित धर्म, स्वतन्त्र इकाई के रूप में कितना हानिप्रद है, इसका अनुमान व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों को देखकर लगाया जा सकता है। गैलीलियो और आर्किमिडीज के प्राणहरण से लेकर धर्मोन्माद और धर्मयुद्ध तक, तथा परदाप्रथा से लेकर गलत कार्य (पाप) की अनिवार्य हानिकारक प्रतिक्रिया (दण्ड) से मात्र स्नान द्वारा मुक्ति तक सैकड़ों-सहस्रों धार्मिक अन्धविश्वास और मूढ़ मान्यताएँ धर्म के नाम पर मानव मस्तिष्क पर हावी हो गई हैं। गुरुडम नामक तानाशाही-बैकुण्ठ-निर्वाण दिलाने की दलाली-आनुवंशिक उच्चता तथा प्रजातीय उच्चता का अहंकार जैसी अनेक अवैज्ञानिक मान्यताएँ व परम्पराएँ धर्म की दुहाई देकर फल-फूल रही हैं। कारण-कार्य का नियम, धार्मिक सिद्धान्तों व नियमों का पुनः परीक्षण करने का प्रत्येक जिज्ञासु को अधिकार है। उनकी सुस्पष्ट एवं सर्वज्ञात विधि-व्यवस्था, प्रमाणित तथ्यों की मान्यता-जैसे वैज्ञानिक आधार धर्म व्यवस्था में ढूँढ़े नहीं मिलते।; किन्तु आशा की जानी चाहिए कि वैज्ञानिक धर्म जब कभी भी मानव समाज में प्रचलित होगा ; तब क्यों-कैसे मान्यता और समाज में उनके प्रसारण की स्वीकृति का प्रमाण पत्र प्रदान किया करेंगी।

विज्ञान भी स्वतन्त्र इकाई के रूप में कितना अपूर्ण है, इसकी झलक जेम्स जीन्स के इस वक्तव्य से मिलती है-”विज्ञान गूँगा और बहरा है। वह अपनी एक हथेली पर पैनिसिलीन और दूसरी पर परमाणु बम रखकर तुम्हारे पास आता है। अब यह तुम पर निर्भर है कि तुम किसे पसन्द करते और उठाते हो॥तात्पर्य यह हुआ कि विज्ञान चुनाव सम्बन्धी कोई सलाह नहीं देता, न ही गलत चुनाव के दुष्परिणामों की शिकायत सुनना चाहता है।

तब सही मार्गदर्शन कहाँ से प्राप्त हो? असमंजस की इस स्थिति में धर्म, वास्तविक धर्म,सहायता का हाथ बढ़ाता है। वह सत्य, न्याय और लोक मंगल की कसौटियाँ प्रस्तुत करता है। प्राकृतिक विज्ञानों की जो भी देन इन कसौटियों पर खरी उतरें ,वे ही ग्रहणीय है, शेष नष्ट करने योग्य। जब कभी भी धार्मिक विज्ञान विश्व में प्रचलित होगा, उपरोक्त कसौटियाँ ही अनुसन्धान की दिशाओं को निश्चित किया करेंगी।

इस दृष्टिकोण से अच्छा हो, यदि हम धर्म को “अपूर्ण विज्ञान” कहें और विज्ञान को “अपूर्ण धर्म।” यह पर्यायवाची शब्द जहाँ उनका निजी विशेषताओं पर जरा भी आँच नहीं लाते, वहीं उनकी अपूर्णता और अन्योन्याश्रितता को भी उभारकर हमारे सामने लाते हैं; और हमारी इस भ्रान्ति को दूर करते हैं कि उनमें से कोई एक प्रमुख और प्रभावशाली है, तथा दूसरा गौण और मुखापेक्षी।

वास्तविकता यह है कि मानव रचना में आत्मतत्व और अनात्मतत्व दोनों लगे हैं। दोनों के तालमेल से ही जीवन सुसंगठित, सन्तुलित और उन्नत हो सकता है। आत्म विज्ञान और पदार्थ विज्ञान, दोनों का समानुपातिक समन्वय ही इहलोक और परलोक को उत्साह व समृद्धि से तथा सन्तोष व आनन्द से भर सकता है। धर्म और विज्ञान का – अर्थात् आत्मा और अनात्म पक्षों का –अर्थात् परमात्मा और माया का –अर्थात् आत्म कल्याण और विश्व कल्याण का – अर्थात् परलोक और इहलोक का ऐसा बुद्धिमत्तापूर्ण योग  ही व्यावहारिक और उचित है।

पिछले कुछ समय की तथा वर्तमान समय की धर्म और विज्ञान  – क्षेत्रों की गतिविधियाँ इस बात का संकेत दे रही हैं ,कि उनके बीच की कृत्रिम दीवारों के ढहने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। पूर्वकाल में धर्म द्वारा निन्दित और दण्डित विज्ञान आज धर्म से हाथ मिलाकर, उसे अपनी वैज्ञानिकता प्रदान कर रहा है, दूसरी ओर धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों ने सर्वोच्च कोटि के वैज्ञानिकों के चिन्तन को परम सत्य की शोध तथा मानव कल्याण के प्रयास की दिशा में बढ़ने की सफल प्रेरणा दी है। प्रकृति के मूलभूत नियमों की खोज, परामनोविज्ञान आदि धर्म और विज्ञान के मध्य सेतु बनने जा रहे हैं। इस बात के लक्षण दिखाई देने लगे हैं , कि सम्पूर्ण मानवता की एक आत्मा की घोषणा करने वाला वैज्ञानिक धर्म , भविष्य के गर्भ में विकसित हो रहा है। विभिन्न विशिष्ट विज्ञान भी परस्पर समन्वित होकर एक विज्ञान का रूप धारण करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि ऐसा समन्वित विज्ञान स्वयं को तथा धर्म को , एक ही वृहद सत्य के दो परस्पर सम्बन्धित पक्ष सिद्ध कर सकेगा। अविच्छिन्न रूप से जुड़े तथा एक दूसरे को पोषित करने वाले धर्म और विज्ञान की, अर्थात् वैज्ञानिक धर्म और धार्मिक विज्ञान की ,आज के विश्व में महती आवश्यकता है। इनके प्रादुर्भाव और क्रियाशील होने के पश्चात् ही विश्व-शान्ति और विश्व-बन्धुत्व की कल्पनाएँ सार्थक हो सकेंगी।

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