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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
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ध्यान योग का पूर्वाभ्यास शिथिलीकरण मुद्रा से!

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                                                 ध्यान योग का पूर्वस्थान शिथिलीकरण मुद्रा से

                                                                  ***********

      ध्यान योग का एक सत्परिणाम शारीरिक एवं मानसिक तनाव को दूर करना है। अधिक श्रम से, काम करने के क्षेत्र में रहने वाली प्रतिकूलताओं से और मौसम के दबाव से, प्रायः थके हुए शरीर में तनाव उत्पन्न हो जाता है और बेचैनी अनुभव होती है। इस स्थिति में श्रम में खर्च होने वाली शक्ति से भी अधिक सामर्थ्य नष्ट होती है। मानसिक तनाव दूसरों के अप्रिय व्यवहार से -प्रतिफल परिस्थितियों से अथवा अपने ही चिन्तन तन्त्र की दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं। भावुक, आतुर एवं आवेशी प्रकृति के मनुष्य प्रायः तनिक-तनिक सी बात पर सन्तुलन खो बैठते हैं। आशंकाएंँ, कुकल्पनाएंँ भी कम हैरानी उत्पन्न नहीं करती। अधीर और भीरु प्रकृति के व्यक्ति तिल का ताड़ बनाते और उद्विग्र रहते देखे गये हैं। कामना पूर्ति में व्यवधान पड़ने पर भी कई लोग बेतरह विक्षुब्ध हो उठते हैं। ऐसे-ऐसे अनेक कारण मानसिक उत्तेजना के हो सकते हैं। उत्तेजना का प्रत्यक्ष लक्षण तनाव है जिसे बढ़े हुए रक्तचाप, बेचैनी, अनिद्रा, खोज आदि लक्षणों से सहज ही जाना जा सकता है

      शारीरिक एवं मानसिक तनावों में मनुष्य की असाधारण क्षति होती है। कहते हैं कि एक घण्टे का क्रोध एक दिन के बुखार जितनी क्षति पहुँचाता है। शोक के प्रसंगों पर नींद, भूख सभी गायब हो जाती है। तनाव किसी भी प्रकार का किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ क्यों न हो उससे सामयिक कष्टों के अतिरिक्त दूरगामी दुष्परिणाम भी उत्पन्न होते हैं। इन हानियों को समझते हुए यथा सम्भव उसके उपचार भी किये जाते हैं। शामक औषधियाँ ली जाती हैं। नींद की गोलियों से मस्तिष्क का भार हलका करने के प्रयत्न होते हैं। नासमझ व्यक्ति इसके लिए नशेबाजी पर उतर आते हैं। फिर भी अभीष्ट एवं स्थायी समाधान हो नहीं पाता। आज के समय में तनाव की व्यथा अन्य शारीरिक, मानसिक रोगों की तुलना में कम नहीं, वरन् अधिक ही होती है।

     तनाव दूर करने का एक सहज एवं प्रभावशाली उपचार ‘ध्यान’ हो सकता है। मन का शासन पूरे शरीर तन्त्र पर होता है। यदि मन को शान्त, शिथिल एवं समाधान की स्थिति पर पहुँचाया जा सके तो उसका प्रभाव न केवल मस्तिष्क पर शरीर के समूचे नाड़ी संस्थान पर पड़ता है और तनाव से छुटकारा पाने में भारी सहायता मिलती है। इसके लिए शिथिलता की मनःस्थिति उत्पन्न करनी पड़ती है। शिथिलासन-शिथिलीकरण मुद्रा के उपचार इसी निमित्त होते हैं।

      अध्यात्म साधना की दृष्टि से मनःस्थिति शान्त करना प्राथमिक प्रयोग समझा जा सकता है। यदि विचारों की अनियन्त्रित घुड़दौड़ चल रही होगी, चंचलता का आवेश छाया होगा तो फिर उपासना की भाव भूमिका बन ही नहीं सकेगी। अशान्त मन से आत्म-चिन्तन, भक्ति साधन जैसे प्रयोजन सध ही नहीं पाते। किसी प्रकार कर्मकाण्डों की चिन्ह पूजा भर करते रहने की बात कुछ बनती नहीं है।

   शारीरिक और मानसिक उत्तेजनायें आत्मिक -साधनाओं में अत्यन्त बाधक होती है। उनके कारण महत्वपूर्ण साधना विधानों के लिए किया गया भारी प्रयास पुरुषार्थ भी निरर्थक चला जाता है। इसलिए तत्वदर्शी आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए प्रयत्नशील पथिकों को सदा से यही शिक्षा देते रहे हैं कि शरीर को तनाव रहित और मस्तिष्क को उत्तेजना रहित रखा जाय। ताकि उस पर दिव्य चेतना का अवतरण निर्वाध गति से होता रह सके। क्रिया-कलापों की भगदड़ से मांस पेशियों में, नाड़ी संस्थान में तनाव रहता है। बाहर से स्थिर होते हुए भी यदि शरीर के भीतर आवेश छाया रहा, तो उस उफान के कारण   मन का स्थिर एवं एकाग्र रह सकना भी सम्भव न होगा।

      मन मस्तिष्क में अनियन्त्रित हलचलें चल रही होंगी, तरह - तरह के विचार उठ रहे होंगे तो जल में उठती हुई हिलोरी की तरह अस्थिरता ही बनी रहेगी। स्थिर जल राशि में चन्द्र, सूर्य, तारे आदि का प्रतिबिम्ब ठीक प्रकार दृष्टिगोचर होता है, पर हिलते हुए पानी में कोई छवि नहीं देखी जा सकती। विचारों की हड़कम्प यदि मस्तिष्क में उठती रहें, तरह-तरह की कल्पनाएंँ घुड़दौड़ मचाती रहें तो फिर ब्रह्म सम्बन्ध की प्रगाढ़ता में निश्चित रूप से अड़चन पड़ेगी। मस्तिष्क जितना अधिक विचार रहित, खाली होगा उतनी ही तन्मयता होगी और आध्यात्मिक परमात्मा का मिलन संयोग अधिक प्रगाढ़ एवं प्रभावशाली बनता चला जायगा।

   आकाश में जब बिजली कड़क रही हो या आँधी तूफान का मौसम चल रहा हो तो हमारे रेडियो में आवाज साफ नहीं आती। कड़कड़ जैसे व्यवधान उठते रहते हैं और प्रोग्राम ठीक से सुनाई नहीं पड़ते। अन्तरिक्ष से भौतिक शक्तियों एवं आत्मिक चेतनाओं का सुदूर क्षेत्र से मनुष्य पर अवतरण होता रहता है। ब्राह्मी चेतना एक प्रकार का ब्रॉडकास्ट केन्द्र है जहाँ से मात्र संकेत, निर्देश, सूचनाएंँ ही नहीं वरन् विविध प्रकार की सामर्थ्यें भी प्रेरित की जाती रहती हैं। सूक्ष्म जगत में यह क्रम निरन्तर चलता रहता है | जहाँ सही रेडियो यन्त्र लगा है, जहाँ व्यक्ति ने अपने आपको सही अन्तःस्थिति में बना लिया है वहाँ यह सुविधा रहेगी कि ब्रह्म चेतना की विविध सूचनाओं को ग्रहण करके अपनी ज्ञान चेतना को बढ़ा सकें। इतना ही नहीं प्रेरित दिव्य शक्तियों को ग्रहण करने और धारण करने का लाभ उठाकर अपने को असाधारण आत्म-बल सम्पन्न बना सकें। परन्तु यह सम्भव तभी है जब मनुष्य अपने मस्तिष्क को तनाव रहित-शान्त स्थिति में रखे। आँधी-तूफान , कड़क और गड़गड़ाहट की उथल-पुथल रेडियो को ठीक में काम नहीं करने देती। मनुष्य का शरीर और मन उत्तेजित -तनाव की स्थिति में रहे तो फिर यह कठिन ही होगा कि वह ब्रह्म चेतना के साथ अपना सम्बन्ध ठीक से जोड़ सके और उस सम्मिलन की उपलब्धियों का लाभ उठा सके।

     तनाव की स्थिति से उबरने के लिए शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निःचेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। उच्चस्तरीय ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ-प्रशस्त करती है। इस साधना के लिए समय का बन्धन नहीं है तो भी रात्रि का समय अधिक उपयुक्त रहता है।

इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना, अपने पैर का अंगूठा अपने मुख से चूसना इस प्रकार का प्रलय चित्र बाजार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु, हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता। अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुंजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अंगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा का आस्थापूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है।

शरीर को मृत समान निर्जीव करने, काया से प्राण को अलग मानने, अर्धनिद्रित स्थिति में माँस पेशियों को ढीला करके आराम कुर्सी जैसे किसी सुविधा-साधन के सहारे पड़े रहने को शिथिलीकरण मुद्रा कहते हैं। ध्यान योग के लिए यही सर्वोत्तम आसन है। शरीर को इस प्रकार ढीला करने के अतिरिक्त मन को भी खाली करने की आवश्यकता पड़ती है। ऊपर नील आकाश-नीचे अनन्त नीलजल-अन्य कोई पदार्थ, कोई जीव कोई परिस्थिति कहीं नहीं, ऐसी भावना के साथ यदि अपने को निर्मल निश्चिंत मन वाले बालक की स्थिति में एकाकी होने की मान्यता मन में जमाई जाय तो मन सहज ही ढीला हो जाता है। इन दो प्रारम्भिक प्रयासों से सफलता मिल सके तो ही समझना चाहिए कि ध्यानयोग में आगे बढ़ने का पथ-प्रशस्त हो गया।

मस्तिष्क पर क्रोध, शोक, भय, हानि असफलता, आतंक आदि के कारणवश आवेश आते हैं, पर वे स्थायी नहीं होते। कारण समाप्त होने अथवा बात पुरानी होने पर शिथिल एवं विस्मृत हो जाते हैं। उनका प्रभाव चला जाता है। पर कामनाओं की उत्तेजना ऐसी है जो निरन्तर बनी रहती है और दर्द की तरह मनः संस्थान में आवेश की स्थिति बनाये रहती है। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, आशंका जैसे निषेधात्मक और लोभ, मोह, अहंता, वैभव, सत्ता, पद, यश, भोग, प्रदर्शन जैसी भौतिक महत्वाकांक्षाओं की विधेयात्मक कामनायें यदि उग्र हों तो दिन-रात सोते जागते कभी चैन नहीं मिल सकता और अपना अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न उत्तेजित बना रहता है। यह स्थिति ध्यान साधना के लिए-ब्रह्म सम्बन्ध के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है।

शरीर को पूरी तरह ढीला और मन को पूरी तरह खाली करना ही शिथिलीकरण मुद्रा का उद्देश्य है। तनाव से पिण्ड छुड़ाने का यह उत्तम उपचार है। इस अभ्यास को करते समय शरीर को ऐसी स्थिति में रखा जाना चाहिए जिसमें माँस पेशियों को नाड़ी संस्थान को पूरी तरह विश्रान्ति मिल सके। उच्चस्तरीय ध्यानयोग में पद्मासन, सिद्धासन आदि लगाने पड़ते हैं। कमर को सीधा रखना पड़ता है। ताकि मेरुदण्ड गत सुषुम्ना में ब्रह्माण्डीय चेतना का दिव्य अवतरण निर्वाध गति से सम्भव हो सके। इसके लिए पूर्वाभ्यास के रूप में शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास है। इसमें शरीर को ऐसी स्थिति में रखा जाता है जिसमें किसी प्रकार का दबाव न पड़े। अस्तु इसके लिए ‘शवासन’ का उपयोग करना पड़ता है। शवासन का अर्थ है- मुर्दे की तरह निःचेष्ट पड़े रहना यह बिस्तर पर पड़े-पड़े भी हो सकता है। आराम कुर्सी पर लेटा जा सकता है। दीवार या मसनद का सहारा लेने में भी हर्ज नहीं है। इस प्रकार पड़े रहने के उपरान्त सोचना पड़ता है कि शरीर में से प्राण निकल गया और काया मृतक जैसी स्थिति में पहुँच गई है। मृतक के अवयवों को कोई काम नहीं करना पड़ता। फलतः वे पूरे विश्रान्ति में रहते हैं। समाधि में भी यही स्थिति होती है। तुरीयावस्था में पहुँचने पर प्राण को भी ऐसी ही अनुभूति होती है। इनमें न केवल शरीर पूरी तरह शिथिल रहता है वरन् मन को भी कल्पना रहित बनना होता खाली रहना पड़ता है। संसार भर में प्रलय का साम्राज्य छा जाने की मान्यता इसी मनःस्थिति को लाने के लिए संकल्पपूर्वक अपनानी पड़ती है। प्रलय काल में कहीं को व्यक्ति, प्राणी पदार्थ शेष ही नहीं रहता ऐसी दशा किन्हीं के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध कैसे रखा जाय? किसी पदार्थ की कामना कैसे की जाय जबकि कहीं कुछ है ही नहीं? ऐसी दशा में परिस्थितियों का अनुकूलता, प्रतिकूलता उत्पन्न होने का प्रश्न भी कहाँ उठता है? मृतक के लिए चिन्ता या आकांक्षा करने को कोई कारण नहीं। जब सबसे नाता टूट ही गया और शरीर न रहने पर किसी से कोई आदान-प्रदान हो ही नहीं सकता तो निरर्थक कल्पनाओं की घुड़दौड़ मचाने से क्या लाभ?

शवासन में शरीर को निद्रावस्था अथवा मृत्यु जैसा विश्राम-मन को प्रलय काल जैसा चिन्तन विराम देने की स्थिति उत्पन्न की जाती है। मनोनिग्रह की यही प्रथम भूमिका है। इससे शारीरिक और मानसिक तनावों पर नियंत्रण सम्भव होता है। उच्चस्तरीय आध्यात्मिक ध्यान सफलतापूर्वक कर सकने की भूमिका बनती है अस्तु इस प्रयोग के अभ्यास को दैनिक कार्यक्रम में स्थान देना चाहिए। आरम्भ पन्द्रह मिनट से करके उसे क्रमशः बढ़ाना चाहिए और सुविधानुसार आधे घण्टे तक पहुंचाना चाहिए। यह बाल वृद्ध हर किसी के लिए समान रूप से उपयोगी है।

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