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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनःशक्ति की विकृति और विनाश एक है।

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                                                                  मन:शक्ति की विकृति और विनाश है |

                                                                                       *********

   “ए टेक्स्ट बुक ऑफ फिजियोलॉजिकल साइकोलॉजी” के लेखक एस. पी. ग्रासमैन ने एक ऐसे उदर –शूल –रोगी का वर्णन किया है, जिसे प्रतिदिन अपराह्न दो बजे ही भयंकर कष्ट होता। उस स्थिति में उसका सारा शरीर पीला पड़ जाता, आँखों के कोर काले पड़ जाते, अपान वायु रुक जाती और जीवन   –  मरण जैसा संकट उत्पन्न हो जाता। उसने अनेक डाक्टरों से उपचार कराया ,किन्तु रत्ती भर आराम न मिला। अन्त में उसने मनोचिकित्सक से भेंट की और उन्हें अपनी कष्ट – कहानी सुनाई।

      विन्सेन्ट थाम्प्सन नामक उक्त व्यक्ति अमेरिका के अत्यन्त धनाढ्य उद्योगपति हैं। डॉ. ग्रासमैन ने कई प्रकार से उनका जीवन – वृत्तांत जानने का प्रयत्न किया ,किन्तु वे किसी ठोस कारण की खोज न कर सके। अन्त में उन्होंने उनकी धर्मपत्नी से पूछताछ की। उससे इस बात का पता चला कि थाम्प्सन महोदय दिन भर प्रसन्न रहते हैं ,किन्तु बारह बजे से एक बजे तक वे किसी विचार में खोये से प्रतीत होते हैं।

    मनोवैज्ञानिक को सूत्र हाथ लग गया। उन्होंने थाम्प्सन से पूछा-" वे ऐसा क्यों करते हैं?"  इस पर उनने वर्षों पुरानी अपनी गाँठ खोली। उनने बताया कि ठीक बारह बजे रैमिंजे कम्पनी के मालिक वानथेक्सी उधर से निकलते हैं। हम दोनों किसी समय सहपाठी थे। जिस लड़की से मैं प्यार करता था ,ज्ञात हुआ कि श्री थैक्सी भी उसमें रुचि रखते थे। अन्त में उन्हीं के कारण उस लड़की ने उन्हें अपमानित किया ,तभी से उनके मन में थैक्सी के प्रति कटुता बढ़ती गई। उन्हीं के कारण एक बार मुझे अपने रोजगार में भी घाटा उठाना पड़ा, इसी द्वेष के कारण जब भी वे सामने से गुजरते हैं ; मेरी क्रोधाग्नि भभक उठती हैं और मैं उन्हें मार डालने तक की बात सोचने लगता हूँ।

इस घटना की जानकारी के बाद डॉ. ग्रासमैन ने फिजीशियन डॉ. ब्लेयर्ड के साथ जाँच करने के बाद पाया कि ठीक उसी समय स्वैच्छिक –नाड़ी –मण्डल से एक प्रकार का स्राव आमाशय और आँतों में विष के समान फैल जाता है | उस समय मानसिक शरीर दूषित हो उठता है और तभी पीड़ा उसे एकाएक दबोच लेती है। सारा दोष उनकी क्रोध और उत्तेजना मिश्रित ईर्ष्या का था, उसी कारण उन्हें इस भयंकर व्याधि का सामना करना पड़ रहा था ;जबकि डॉक्टर और दूसरे लोग बीमारी पेट में ढूँढ़ रहे थे।

   डॉ. ग्रासमैन ने उन सज्जन को समझाया , –आप (1) जुडिशस सप्रेशन - अर्थात् मन में जो भी भली-बुरी बात उठा करे , उसका विवेचन किया करे, ;दूसरी को बताया करें, अपनी विवेक – बुद्धि इतनी तीव्र रखें कि अपनी छोटी से छोटी भूल तक पकड़ में आ जाये और तब पूर्वाग्रह रहित केवल सत्य को, न्याय को, व्यावहारिकता को ही उचित मानने का अभ्यास किया करें।  (2) जुडिशस सग्रेगेशन – अर्थात् उस स्थिति में निषेधपूर्ण चिन्तन के स्थान पर सद्भावपूर्ण आचरण यथा, – क्षमायाचना, मित्रता ,उपकार आदि का आचरण करें। (3) जुडिशस फारगेटफुलनेश –अर्थात् बार-बार उन बातों को मन में लाने की अपेक्षा, उस समय कोई अच्छी पुस्तक पढ़ने, धर्मपत्नी के साथ मनोविनोद करने, संगीत सुनने जैसे किसी अन्य कार्य में मन को घुलाकर उस बात को भूल जाया करें। (4) इमैजिनेशन अर्थात् अपनी आत्मा के सम्मुख अपने आप को खड़ा करके सम्वेदनापूर्ण चिन्तन किया करें। उस समय अपने आपको अबोध शिशु और अन्तःकरण को माँ मानकर उस तरह की भावनायें जगाया करें, जैसी माँ बेटे के मध्य होती हैं।

      उपरोक्त चार आधार आज मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी रुप में प्रस्तुत हो रहें हैं | उनका आधार यह है कि मनुष्य की जो भी कुछ शरीरिक व्याधियाँ होती हैं , वह आज या कल के दुर्भाग्यपूर्ण चिन्तन का ही अभिशाप होती है | मनुष्य का दृश्य शरीर तो यह हाथ -पाँव वाला शरीर है,पर वह वास्तव में उस कठपुतली की तरह है , जिससे मन में बँधे विचारों के धागे सुक्ष्म  –नाड़ी  –मण्डल के द्वारा नचाते रहते है | यदि मन बीमार है, तो शरीर अवश्य बीमार  होगा | मन की गाँठ जितनी कठिन होंगी, व्याधि उतनी ही स्थायी और कष्टप्रद | अब बीमारियों का दोष किसी विषाणु को देने की अपेक्षा, शारीरिक मल को देने की अपेक्षा, पूरी तरह मानसिक विशेष को मान लिया गया है और यह निष्कर्ष पूरी तरह सामने आ गया है कि मनुष्य  सद्विचारों ,सद्भावनाओं में निमग्न रहकर 80 प्रतिशत  बीमारियों से तो तत्काल ही छुट सकता है| 20 प्रतिशत के जो आधार पहले से बन चुके हैं ,उन्हें भी अपनी दुर्भावनाओं ,पापों , कुविचारों को खोलकर , उनका प्रायश्चितकर माफ़ किया जा सकता है जो अटल प्रारब्ध बन गये हों| मन को सम्वेदनाओं यथा असीम करूणा ,परोपकार की भावना ,प्रगाढ़ श्रध्दा ,ईश्वरभक्ति की भावनाओं में डुबाकर होने वाले अटल कष्टों को भी भाले के स्थान पर मात्र कांटे चुभने जैसे हलके रुप से निपटा जा सकता है |

   थाम्प्सन महोदय ने बात को गम्भीरता से अनुभव किया। उन्होंने माना अपने पर अधिकार हो सकता है, दूसरों को अपना मानने और उससे अपने अनुकूल आचरण की आशा रखना मूर्खता ही तो है। उन्होंने थैक्सी से जाकर क्षमा याचना की और अपने अब तक के विद्वेष के विष को विसर्जित कर दिया। अपने घर में वे अधिक रुचि लेने लगे। यह परिवर्तन उनकी पत्नी उनके बच्चों को बहुत अच्छा लगा| वे सब उन्हें स्नेह और प्यार की दृष्टि से देखने लगे। विचारों की दिशा बदली तो उनका सारा जीवन ही आनन्द विभोर हो गया। उदर शूल तो मानों ब्याज में ही ठीक हो गया हो।

  मनोभावों की उथल-पुथल शारीरिक क्रिया-कलाप को किस तरह प्रभावित करती है? सामान्यतः यह बात अक्सर दृष्टि में आती रहती है | अत्यन्त भय की अवस्था में लोग एकाएक पीले पड़ जाते हैं, क्रोध की अवस्था में आँखें लाल हो उठती हैं। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि ऐसा चमड़ी के नीचे रक्ताणुओं के एकाएक विस्तारण से होता है। जो हमेशा चिन्ता, तनाव, ईर्ष्या से घिरे रहते हैं ,उनकी खोपड़ी में गंजापन और चिकनापन आ जाने का भी यही कारण है |यदि तनाव में किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना हो , तो गिल्टियाँ तक उभर आती हैं। चिन्ताग्रस्त स्थिति में अधिकांश दबाव आमाशय और जननेन्द्रिय पर पड़ता है। पेट का कड़ा होना, गाँठें पड़ना, भूख न लगना, अतिकामुकता, बार-बार पेशाब जाना ,ये बीमारियाँ इस बात की प्रतीक हैं  , कि मस्तिष्क में चिन्ता और तनाव की आँधियाँ चल रही हैं। पश्चिमी देशों में “ध्यान-साधना” से लोगों को अत्यन्त शान्ति मिलने की आम मान्यता बन गई है। इसी कारण ध्यान और योग-साधनाओं के प्रति वहाँ व्यापक आकर्षण बढ़ रहा है, उसका अर्थ यही है कि मन को विकृत चिन्तन की परिधि से निकाल कर उसे भावभरी सम्वेदनाओं में गहरा उतारा जाये। हाल की कुछ बिलकुल नई शोधों से यह तथ्य और भी स्पष्ट हुए हैं।

      अभी हाल ही में अमरीका के कार्नेल विश्वविद्यालय में एक प्रयोग किया गया। विश्वविद्यालय के अस्पताल में एक रोगी आया। आकस्मिक चोट के कारण उसकी ग्रास की नली बन्द हो गई थी। इसलिए उसे एक छिद्र द्वारा आमाशय में खाना पहुँचाया जाता था। इस प्रकार उस व्यक्ति का आमाशय वैज्ञानिक प्रेक्षणों के लिए उपलब्ध हो गया। उस समय देखा गया कि उस व्यक्ति को डाँटने पर जब उसमें असन्तोष तथा विरोध का भाव आया, तो उसका आमाशय लाल हो गया। उसमें से अधिक रक्त प्रवाहित होने लगा और आमाशय की परतें फूलकर मोटी हो गईं।

         लन्दन के डॉ. वानडेन ब्राँक और कैलिफोर्निया के डॉ. आर्थर ए वेल ने मृत्यु के कारणों पर प्रकाश डालते हुये अपने-अपने ग्रन्थों में लगभग एक से विचार व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं मानवी - काया की संरचना ऐसी है कि यदि उसे सही साज सम्भालकर रखा जा सके,  तो सामान्य आयुष्य सैकड़ों वर्ष की हो सकती है। विनाश तो मनःशक्ति के विकृत होने से आरम्भ होता है | यदि अस्त-व्यस्तता रोकने और जीवट बनाये रहने का प्रयत्न किया जाये , तो आरोग्य और दीर्घजीवन के मार्ग में आने वाली अन्य सभी बाधायें सरलतापूर्वक हटाई जा सकती हैं।

                                                                                                   ----***----

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