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Magazine - Year 1979 - October 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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रहस्यों की पिटारी-पीनियल ग्रन्थि

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अब तक शरीर विज्ञान सम्बन्धी जितनी खोजें हुई, उनमें अवयवों की प्रत्यक्ष हलचलों को ही मुख्य आधार माना जाता रहा है। जो भी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से दृष्टिगोचर हो- उसे ही विज्ञान प्रामाणिक मानता गाया है। इतना सब होते हुए भी शरीरगत अनेकानेक संदर्भ ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य अभी तक नहीं जान पाया है। इन पर रहस्य के पर्दे अभी भी पड़े है। वे तब ही हटैंग जब स्थूल की हलचलों पीछे झाँक रही सूक्ष्म सत्ता की लाला को समझने के प्रयास किये जायेंगे।

अन्तःस्रावी ग्रंथियों, वंशानुक्रम-प्रक्रिया, भ्रूणावधि में जीव का उग्र विकास क्रम, जीव कोष की अनंत संभावनाओं से भरी क्षमताएँ, अचेतन मन की रहस्यमय गतिविधियाँ, प्रभावशाली तेजोवलय जैसे संदर्भ ऐसे है, जिनका स्थूल शरीर की सामान्य हलचलों से कोई सम्बन्ध नहीं है। शरीर शास्त्रियों की विशद खोजबीन इसके कुछ ही रहस्य पता लगा पाई है। ऐसी अद्भुतताएं जिनका तालमेल जैव-रासायनिक हलचलों से नहीं बैठता, उन्हें सूक्ष्म शरीर की शरीर कह सकते है। यह क्षेत्र अत्यन्त सुविस्तृत है, जिसकी थाह पाने का प्रयास अध्यात्मवेत्ता युग-युगों से करते आये है एवं आधुनिक वैज्ञानिक अब इस दिशा में भी अग्रसर हुए है।

इस क्षेत्र का परिचय देने में अग्रणी है-शरीर की अन्तःशक्ति हारमोन ग्रन्थियाँ। इस दिशा में विशेष अनुसंधान करने वाले डा क्रुकशेंक ने इन स्रावों की आधार ग्रन्थियों को जादुई ग्रन्थियाँ कहा है। वे कहते है कि व्यक्ति का स्तर एवं व्यक्तित्व इन स्रावों के क्रियाकलापों का निरीक्षण कर ही जाना जा सकता है। शरीर की आकृति ही नहीं उसकी प्रकृति का निर्धारण भी इन हारमोन रसों द्वारा ही होता है।

वैसे तो अपने-अपने स्थान पर सभी ग्रंथों का महत्व है, पर इन सभी को नियामक सत्ता जहाँ विराजमान है उन्हें मास्टर गलैण्ड्स कहा गया है। इनमें मुख्य है- पीनियल एवं पीटुटरी। इनकी संरचना भी अपने आप में अनोखी है एवं दोनों का ही परस्पर गहन संबंध भी है।

जिस ग्रन्थि को शरीर विज्ञानी पीनियल कहते है- उसे पौराणिक वर्णन के अनुसार तृतीय नेत्र कहा गया है। जबकि तंत्र और योगशास्त्र उसे आज्ञाचक्र की संगति देते आये है। कुछ समय पहले तक वस्तुतः वैज्ञानिकों क यही मान्यता थी कि यह ग्रन्थि मनुष्य के लिए अनावश्यक है तथा यह मानवी सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक चरणों का बचा हुआ अवशेष है। परन्तु अध्यात्मक चेतना का विज्ञान है। इसलिये अध्यात्मवेत्ताओं को दृष्टि स्थूल पर नहीं अपितु उसके अन्तराल में छिपी सूक्ष्म सत्ता पर जाती है। पीनियल की शरीर विज्ञान क्षेत्र में बढ़ती ख्याति एक इसी तथ्य से जानी जा सकती है कि कई राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन पिछले दस वर्षों में इसकी गुत्थियां सुलझाने हेतु ही आयोजित किये गये।

शारीरिक दृष्टि से पीनियल मानव शरीर का सबसे छोटा घटक है। यह एक चौथाई इंच लम्बा एवं सौ मिली ग्राम भारी होता है। इतना छोटा अंग शायद ही कभी इतनी उत्तेजना का कारण बना हों। गर्दन और सिर के मिलन बिन्दु पर प्रेरुदण्ड के ठीक ऊपर स्थित यह ग्रन्थि भू-मध्यभाग में तीसरे वेण्ट्रीकल की छत से जुड़ी है।

ऐसा नहीं कि पीनियल पर बाद-विवाद पहले न चला हो। ग्रीक वैज्ञानिक हीरोफीबस जो ईसा से चार शताब्दी पूर्व शरीर विज्ञान की अपनी व्याख्याओं के कारण काफी प्रसिद्ध हुए थे।-पीनियल सम्बन्धी अपने विचारों से विवादास्पद भी रहे। वे इस ग्रन्थि को विचार प्रवाह का नियामक (रेगुलेटर) मानते थे। उनके अनुसार यह ग्रन्थि शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र के मध्यस्थ के रूप में कार्य करती मानी जाती थी। प्रारम्भिक लेटिन एनाटाककिस्टों ने भी इसे स्वामी ग्रन्थि की संज्ञा दी थी। सोलहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक एवं स्नायु विज्ञानी रेने डेस्कार्ट्स ने इसे विवेकी आत्मा का निवास स्थान बताया था। सन् 1886 में दो माइक्रोएनाटाकिस्ट एचडब्ल्यू ग्राफ तथा ई बाल्डविन स्पेन्सर ने स्वतंत्र पीनियल पर शोध की। इनके शोध निष्कर्षों ने यह प्रमाणित किया कि यह ग्रन्थि वातावरण के प्रकाश से सीधे और बाह्यचक्षु के स्नायुमार्ग द्वारा दोनों ही तरह से प्रतिक्रिया करती है। यह निष्कर्ष अध्यात्मवेत्ताओं की इस घोषणा से साम्य रखता है कि पीनियल ग्लैण्ड से पृथक किये गये है। इन दोनों रसस्रावों के गुणों व कार्यों के संबंध में किया गया अनुसंधान स्थूल शरीर की रहस्यमय परतों के संबंध में कई नये तथ्य उजागर करता है।

येल मेडीकल स्कूल में कार्यरत मोटोन बी0 लर्नर ने सन् 1958 में पीनियल से मेलेटोनिन नामक हार्मोन को पृथक किया। यह पदार्थ मेंढक तथा मछलियों में वातावरण प्रकाश परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप त्वचा में रंग परिवर्तन हेतु जिम्मेदार है और मनुष्य में यही भावनात्मक परिवर्तनों का तथा क्रोध एवं भय के आवेगों का नियंत्रण करता समझा जाता है। वयःसंधि के प्रारम्भ में तथा मनुष्य के यौन विकास में इसकी विशिष्ट भूमिका है। जैसे-जैसे बच्चे वयःसन्धि में प्रवेश करते है, इनकी पीनियल ग्रन्थि का आकार और कार्यक्षमता घटती चली जाती है। संभवतः यह ग्रन्थि यौनविकास के प्रारम्भ को अपने नियंत्रण में रखती है और जब इसका नियंत्रण हट जाता है। तो यही कार्य पीटुचरी को यौन हार्मोन्स स्रावित करने की प्रेरणा बन जाता है कामेन्द्रियों को पीटुचरी ग्लैण्ड के माध्यम से नियंत्रित करने में इस तरह का सक्रिय योगदान पीनियल की महत्वपूर्ण भूमिका प्रतिपादित करता है। वैज्ञानिक इसी रहस्यमय भूमिका को देख कर पीनियल को एक आवश्यक एवं मस्तिष्कीय कार्य क्षमता की वृद्धि तथा व्यक्तित्व के निर्माण हेतु उत्तरदायी अंग मानने लगे है। पीनियल की इसी कार्य विधि के कारण संभवतः उसका संगीत आज्ञा चक्र के साथ दी गई है।

विवेक का जागरण ही आज्ञाचक्र का जागरण कहलाता है। इसी विवेक का सहारा लेकर यदि मनुष्य अपनी समस्त क्षमताओं को विधेयात्मक प्रवृत्तियों की ओर नियोजित कर दे तो अचेतन की सुप्त सम्पदा के हीरे मोती उसे प्राप्त हो सकते है। यही प्रसुप्त का जागरण अथवा चित्त का परिशोधन है। यह मनोनिग्रह ही मनोमय कोश की साधना का आधार भूत अंग है। शिवजी द्वारा तीसरे नेत्र को खोल कर कामदेव का दहन मात्र पौराणिक आरष्यान नहीं अपितु इसी ग्रन्थि द्वारा पीटुचरी का संचालन एवं जननेन्द्रियों के स्रावों पर नियंत्रण है। मन के महादैत्य की साधना इसी संस्थान को सुविकसित करने से संभव होता है। इसी की साधना से मनुष्य देवोपम उपलब्धियाँ प्राप्त करते चले जाते है। मनुष्यों के बीच निकृष्टता और वरिष्ठता का जो अन्तर दिखाई पड़ता है उसमें इसी संस्थान का विकसित स्तर, चिंतन का क्रम एवं मनुष्य का दृष्टिकोण प्रमुख भूमिका प्रस्तुत करते है। यहीं से वस्तुतः प्रारम्भ होता है-समस्त अध्यात्म साधनों का आद्याक्षर।

प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डेनियल क्रीमेन ने मस्तिष्क के ऊतकों से एक दूसरा हारमोन पृथक किया है। जिसकी सघनता सर्वाधिक पीनियल ग्लैण्ड तथा मध्य मस्तिष्क के केन्द्रक के निकट की संधि कोषाओं में होती है। इसे सिरोटोनिन नाम दिया गया है। पीनियल मस्तिष्क हेतु सिरोटोनिन के संग्राहक का रोल अदा करता है जबकि संधि कोशाएं मस्तिष्क के अन्य भागों में इसे वितरित करती है। बाद में यह देखा गया कि सिरोटोनिन तो मेलेटोनिन की प्रारंभिक अवस्था है। एक और विचित्र संयोग यह पाया गया कि एल.एस.डी. 25 (लिसर्जिक एसिड डाय इथाइल अमाइड) नामक मादक औषधि जो राई नामक घास से पृथक की जाती है, की आणविक संरचना, सिरोयेनिन की संरचना से करीब-करीब मिलती जुलती है। एल.एस.डी. की अल्पमात्रा के प्रयोग से ही चेतना में गंभीर परिवर्तन होते देखे गये है। हिप्पी वर्ग इसका सेवन कर आध्यात्मिक अनुभूतियों का आनन्द लेने की बात कहते है तो दूसरी ओर चिकित्सक समुदाय इसके उपयोग के संबंध में चेतावनी देते है। वस्तुतः यह दवा सिरोटोनिन के कार्यों को निष्फल करने की क्षमता रखती है। इसी एक सामर्थ्य द्वारा यह चेतना के उच्चतम आयामों तक मनुष्य को पहुँचा देती है। पर यह विकास प्राकृतिक नहीं है। इसके पीछे निहित तथ्य यह है कि मस्तिष्क में सिरोटोनिन की सघनता का स्तर विवेकपूर्ण विचारों के लिए जिम्मेदार है तथा एल.एस.डी. 25 के सेवन से इसकी सघनता में परिवर्तन सामान्य सत्य को भी विकृत कर देता है।

इन सबसे यह प्रमाणित होता है कि पीनियल ग्लैण्ड चेतना की परिवर्तित अवस्था में रासायनिक चक्र को चलाने वाला स्थूल माध्यम है। संभवतः मानवी यौनपक्ष तथा चेतना की अवस्था आँतरिक रूप से परस्पर संबंधित है। जितना ही कड़ा नियंत्रण, पीनियल का पीटुटरी पर एवं दोनों का जननेन्द्रियों पर होता है उतना ही शरीर के सुप्त केन्द्रों के जागृत होने की संभावनाओं का एवं चेतना की उच्चतम स्थिति प्राप्त करने की साधक की पात्रता का विकास होता चला जाता है। इस तरह में बाँधा मात्र मस्तिष्क के ऊतकों में निहित सिरोटोनिन का स्तर ही है।

कुण्डलिनी योग और कुछ नहीं- पीनियल ग्लैण्ड को सक्रिय कर हठधर्मी अंतःस्रावी ग्रन्थि प्रणाली पर नियंत्रण बनाये रखने का विज्ञान है। यह अंतःस्रावी ग्रंथों के रस स्राव में गंभीर परिवर्तन करता है तथा मस्तिष्क ऊतकों में सेमटाँनिन के स्तर को कम करता है। वयःसंधि के प्रारम्भ तथा यौनपक्ष के आगमन से हमारा ध्यान तथा चेतना दीर्घ कार्यकारी पीनियल ग्लैण्ड से हट जाता है। इस प्रकार यह कार्य करना बन्द कर देता है। और प्रजनन प्रणाली हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। एक युवा में जो द्वार उच्च चेतना के गमन हेतु होता है, वह बंद हो जाता है पर उस दिशा में विकास की संभावनाएं छोड़ जाता है।

इस पूरे वैज्ञानिक विवेचन से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हर मनुष्य अपने ही द्वारा गढ़ी गयी कारा में बंद है। इन बंधनों को तोड़ना संभव है यदि वह अपने अंदर छिपी सामर्थ्य को पहचान ले। आज्ञाचक्र की साधना और कुछ नहीं- ऋतंभरा प्रज्ञा, दूरदर्शिता, विवेकशीलता का ही जागरण है। महामानवों का इतिहास यही बताता है कि उन्होंने अपनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाकर उसे एक सुनियोजित ढंग से लक्ष्य की ओर अभिमुख कर दिया। परिणामतः उन्हें इसी जीवन में वे सभी भौतिक तथा आत्मिक वरदान मिले, जिनका शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर वर्णन किया है।

हारमोन्स में हमारे शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक विकास की अनन्त संभावनाऐं भरी पड़ी हैं। योग साधना द्वारा मनोमय कोश की साधना आज्ञाचक्र के जागरण की साधना किये जाने पर महत् उद्देश्य व्यक्तित्व का परिष्कार करना तथा चिंतन को उच्चस्तरीय बनाना है। शारीरिक बलवृद्धि तथा मानसिक स्वास्थ्य के रूप में शेष अनुदान स्वतः मिलते चले जाते हैं। हमारा शरीर सृष्टा की अनुपम देन है। इसमें जीवकोष से लेकर जीन्स तक तथा न्यूरान्स से लेकर हारमोन्स तक सभी अनन्त क्षमताओं से संपन्न हैं। केवल इनकी संभावनाओं को पहचानना एवं उनका सदुपयोग करना मनुष्य को आना चाहिए। उच्चचेतना के इन्हीं प्रवेश द्वारों को खोलने हेतु आज वैज्ञानिक प्रयत्नशील है।

First 9 11 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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October 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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