
परम पिता के अजस्र अनुदान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शरीर तो माता-पिता के रजवीर्य से बना है। उन्हीं के संरक्षण में बालक का पालन-पोषण होता और उसे शिक्षा-दीक्षा मिलती है। दिखाई देने वाले इन उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए ही सुसंस्कारी व्यक्ति माता-पिता के प्रति श्रद्धासिक्त भाव से कृतज्ञ रहते है। असमर्थ और अशक्त स्थिति में पालन-पोषण करने और शिक्षा-दीक्षा दिलाकर योग्य बनाने जैसे मोटे कार्या के लिए ही कृतज्ञ हुआ जा सकता है तो उस परम पिता के प्रति कितना कृतज्ञ हुआ जाना चाहिए जिसका संरक्षण हर क्षण उपलब्ध रहता है और जिसके अनुदानों से मनुष्य का रोम-रोम उपकृत होता है।
मानवीय कलेवर भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और सम्वेदनशील स्थिति में माता के गर्भ में जन्म लेता है। उसे यो ही खुला छोड़ दिया जाय तो वह अपनी कोमलता और अत्यधिक सम्वेदनशीलता के कारण वैसे ही नष्ट हो गया होता है जैसे खुली वायु, और धूप में कई कीट-पतंगे नष्ट हो जाते हैं। उसे वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियाँ ही नष्ट कर डालती लेकिन परमात्मा ने उसके लिए गर्भाशय के रूप में एक ऐसा वातानुकूलित और सर्व-सुविधा सम्पन्न निवास तैयार किया जो भ्रूण के लिए सभी प्रकार से अनुकूल है।
भ्रूण अपनी कोमलता और सम्वेदनशीलता के कारण इस योग्य नहीं होता कि उसका विकास खुले में हो सके। इसलिए चारों तरफ से बन्द कोठरी-गर्भाशय में उसके विकास की समस्त सुविधाएँ उचित मात्रा में मिलती रहती हैं जन्म के पूर्व ही उसके लिए माँ के दूध जैसा सन्तुलित आहार उपलब्ध कराकर परमात्मा ने कितनी करुणा दर्शाई हैं जन्म लेने के बाद असहाय और असमर्थ शिशु के लिए न केवल भौतिक सहायताएँ भी जरूरी थीं। सो वे समस्त सुविधाएँ शिशु को कुटुम्ब में, समाज में, समुदाय में मिल जाती है। इस तरह जीवन सत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है।
जन्म से पूर्व ही संरक्षण, विकास और पोषण की इतनी सुन्दर सुव्यवस्था प्राप्त होने के बाद भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा और विकसित हुआ मनुष्य न केवल सामाजिक कर्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है अपितु अपने परम-पिता को, अपनी मूल सत्ता को ही भूला बैठता है। इस विस्मरण या कृतघ्नता से भी वह कारुणिक सत्ता अप्रसन्न नहीं होती वरन् अपने अनुदानों को क्रम जारी रखती है। वह दयालु पिता अपने शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी बाल्यावस्था, ममता, स्नेह, सहयोग की आकाँक्षा और जीवन साथी की आवश्यकता पूरी करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था करता है। कहना नहीं होगा कि ईश्वर की कृपा से ही नारी को नर में और नर को नारी में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा प्राप्त हुईं इतना ही नहीं विजातीय तत्वों के आक्रमण से उत्पन्न होने वाले, स्वास्थ्य संकट से जूझने वाली रोग निरोध की क्षमता और प्रतिकूलताओं अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्मजात सुविधाएँ भी परमेश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुई मनुष्य में रोग से लड़ने की शक्ति उसके रक्तकणों में, शारीरिक अवयवों की सुरक्षा उसकी त्वचा के द्वारा देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए उन्नत मस्तिष्क जैसी सुन्दर मशीन उसी परमात्मा की अनुकम्पा है। आज तक इतनी सारी विशेषताओं से सम्पन्न कोई मशीन न तो कोई बना सका है और आगे भी कोई बना पाएगा इसमें सन्देह ही है जो हर परिस्थिति से जूझने, मुड़ने, लचकने या सम्भालने में सक्षम है।
आँख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा, गुर्दे सरीखा सफाई उपकरण, हृदय जैसा पोषण, संस्थान और पाँव जैसा सुन्दर अर्थ बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होगी तुलना न तो किसी इंजीनियर से की जा सकती है और न ही किसी डाक्टर से। वह प्रत्येक कला कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात, सर्व प्रभुता सम्पन्न और सर्वशक्तिमान केवल परमात्मा ही हो सकता हैं। इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी वरन् यह एक प्रकार से स्वयं का आत्माघात भी होगा।
यह तो शरीर के रूप में जीवात्मा को प्राप्त हुए एक दुर्ग भर की चर्चा हुई। यदि इस दुर्ग की रचना प्रक्रिया को देखा जाय तो और भी विस्मय विमुग्ध रह जाना पड़ता है। इस दुर्ग का निर्माण बहुत ही छोटे-छोटे घटकों से हुआ है। ठीक वैसे ही जैसे एक मकान का निर्माण ईंटों से होता है। कहा जा सकता है कि शरीर में तो हड्डी, रक्त, माँसपेशियाँ, हृदय मस्तिष्क आदि बहुत से अंग अवयव होते है। लेकिन मकान में भी तो फर्श, दीवार, अलमारियाँ, मेहराब आदि होते है। इन सबका निर्माण जिस प्रकार ईंटों से होता है। उसी प्रकार मनुष्य शरीर का निर्माण भी छोटे-छोटे कोष्ठों से मिलकर होता है, ये काष्ठ इतने सूक्ष्म और छोटे होते है कि उन्हें आँखों से नहीं देखा जा सकता। वे सिर्फ सूक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा ही देखे जा सकते है। अरबों, करोड़ों की संख्या में विद्यमान ये कोष्ठ शरीर दुर्ग के एक-एक कोने में तैरते घूमते रहते हैं और जहाँ कहीं भी थोड़ी बहुत टूट-फूट हुई वहीं मरम्मत में जुट जाते है। इस टूट-फूट या मरम्मत के काम में हजारों लाखों कोष्ठ अपने प्राण गँवा बैठते हैं। यानी विनष्ट हो जाते हैं। प्राण गँवा देते हैं, यह कहना भी अतिरंजित नहीं होगा क्योंकि प्रत्येक कोष्ठ एक जीवित इकाई होता है।
जब ये कोष्ठ मृत हो जाते हैं तो इनका स्थान लेने वाले नये कोष्ठ भी तुरन्त तैयार हो जाते है। एक क्षण की भी देरी नहीं लगती कि नए तैयार। यह कोष्ठ अपना उत्तरदायित्व सम्हाल लेते है। इस प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था किस देश समाज में हो सकती है। यह परमात्मा की ही कृपा और उसी की अनुकम्पा है कि शरीर दुर्ग के रूप में जीवात्मा को रहने के लिए इतना सुन्दर, सुसज्जित और सुरक्षित आवास मिला।
फिर भी ईश्वर के अनुदान यहीं आकर समाप्त नहीं हो जाते उसने अग्नि में चिनगारी, पदार्थ में परमाणु और सूर्य में किरणों की तरह मनुष्य की अतर्गुहा में स्वयं बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देने का दायित्व पूर्ण कार्य सम्हाला। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही वह रुकने के लिए प्रेरित करता है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को सुनकर भी अनसुनी करता और स्वेच्छा चारिता बरतता है तो उनका दण्ड रोग, शोक, क्लेश, कलह तथा मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है और माया से मूढ बना भ्रम जाल में पड़कर जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के मोल नष्ट करता रहता है। इससे बड़ी मूढ़ता और क्या होगी।
ईश्वरीय सत्ता की अन्तरंग गुह्य में विद्यमान को प्रमाणित करते हुए हर्थटं स्पेसर ने कहा है, ईश्वर एक विराट् शक्ति है और प्राणीमात्र के प्रति वात्सल्य भाव से पूरित है क्योंकि वह समय-समय पर डरा, धमकाकर, पुण्यफल का प्रलोभन देकर मनुष्य को बुराईयों से बचाती तथा अच्छाइयों की ओर प्रोत्साहित करती है। राज्य के नियमों को हम इसलिए मानते है कि न मानने पर राजदण्ड का भय रहता है। नैतिक-नियमों का उल्लंघन करने पर भी भय उत्पन्न होता है, जबकि हम उनका पालन करने या न करने के लिए स्वतन्त्र रहते है। यह भय हृदय में विराजमान परमात्मा द्वारा ही बजाई गई खतरे की घण्टी होती है, जो इसे सुनकर सतर्क हो जाता है उसका कल्याण होता है, न सुनने वाले का तो अमंगल निश्चित है ही।
जन्म के पूर्व से लेकर जीवन सत्ता के अस्तित्व में आने, परिपक्व होने, क्रियाशील और समर्थ बनने तक परमात्मा जीव को गोदी में खिलाता, आपदाओं से उसकी सुरक्षा करता और समझदार हो जाने पर गलतियाँ न करने के लिए समझाता व डराता तक है। इतनी करुणावान-सत्ता का संरक्षण, अभिभावकत्व उपलब्ध होते हुए भी जो व्यक्ति पतन के गर्त में गिरते है, उनसे ज्यादा अभागा कौन होगा?