
जीवात्मा की अकूत शक्ति
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पार्थिव शरीर पार्थिव सीमाओं से आबद्ध रहे यह स्वाभाविक ही है। किन्तु शरीर को ही जीव चेतना का आदि, अन्त मानने वालों को उस समय हतप्रभ और निरुत्तर रह जाना पड़ता है, जब जीवात्मा की अपार्थिव सत्ता और दिव्य क्षमताओं का प्रमाण प्रस्तुत करने वाली घटनायें सामने आती है। तब आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता न मानने, उसे शरीर-चेतना भर समझने की उनकी मान्यता अधूरी और भ्रामक सिद्ध हो जाती है। प्रत्यक्ष को ही वास्तविक और प्रमाणभूत मानने वाले उस समय आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं, जब परोक्ष के रहस्यमय गह्वर से बाहर आये विचित्र और अलौकिक-असामान्य घटनाक्रम निर्विवाद रूप में प्रमाणित हो जाते है।
प्रथम महायुद्ध के समय डान और बाब नामक दो अमरीकी मित्र सैनिक युद्ध के एक मोर्चे में साथ-साथ घायल हो गये। डान का प्राणाँत हो गया। आहत बाब उपचार से ठीक हो गया। पर स्वस्थ होने के बाद वह डान जैसा व्यवहार करने लगा। वह स्वयं को डान ही कहता। युद्ध समाप्ति पर उसे छुट्टियाँ मिलीं। वह घर जाने को रवाना हुआ। किन्तु बाब के घन न पहुँचकर डान के ही घर जा पहुँचा। वहाँ उसके माँ-बाप को देखकर उतना ही प्रसन्न-पुलकित हुआ, जैसा डान होता था। आचरण और व्यवहार में डान से पूर्ण सादृश्य हो जाने पर भी बाब का रूपरंग पूर्ववत् ही था। डान की अपेक्षा वह कुछ ताँबई रंग का था। माँ अपने बेटे का चेहरा-मोहरा कैसे न पहचानती। उसने उसे बेटा मानने से इन्कार कर दिया। इस पर वह बाब रूपी नया डान भावुक हो उठा। भावातिरेक में स्वयं को अपमानित अनुभव करने वाले उसने अतीत की ऐसी-ऐसी नितान्त निजी और प्रामाणिक घटनाएँ बताई कि उन माँ-पिता को विश्वास हो गया कि यह हमारा बेटा डा नहीं है। फिर उसकी चेष्टाएँ, चाल-ढाल सभी कुछ तो डान जैसा ही था। उन्होंने समझा, अपने बेटे की मृत्यु की जो खबर फौजी केन्द्र से हमें मिली थी, वह शायद भ्रान्ति पर आधारित हो। बाद में, छानबीन करने वालों ने इस आश्चर्यजनक तथ्य का पता लगाया और यही निष्कर्ष निकाल सके कि मृत डान की आत्मा बाब के शरीर में प्रविष्ट हो गई।
विश्व विख्यात चित्रकार गोया की आत्मा अमेरिका की एक विधवा हैनरोट के भीतर प्रविष्ट होने की घटना भी सर्वविदित है। नये शरीर में गोया ने “ग्वालन” नामक एक अति विशिष्ट कलाकृति का निर्माण किया। हैनरोट ने जीवन में कभी रंग-कूँची छुई भी नहीं थी “ग्वालन” के निर्माण के बाद वह चित्र, उसकी सृजनकर्मी और स्वयं के भीतर गोया की आत्मा के प्रविष्ट होने का उसका दावा-ये सभी कई दिनों तक अमरीकी-अखबारों में सुर्खियाँ बनकर छाये रहे।
आद्य शंकराचार्य द्वारा शास्त्रार्थ में काम-कला की जानकारी की आवश्यकता आ पढ़ने पर परकाया-प्रवेशविद्या के अपने ज्ञान के आधार पर मृत सुधन्वा के शरीर में प्रवेश किया था और अपना प्रयोजन पूरा कर अपने शरीर में फिर वापस आ गये थे।
“पायोनियर” अन्तरिक्षयान को अमरीका ने बृहस्पति ग्रह की खोज के लिये जब छोड़ा, उसके कई महीनों पूर्व एक अमरीकी आत्मवादी ने अपने जीवित शरीर से ही, सूक्ष्म शरीर को पृथक् कर उस ग्रह की यात्रा की।इन सज्जन का नाम है-इन्गोस्वान। इन्होंने वहाँ के वातावरण, दृश्य आदि का वर्णन अपनी यात्रा के अनुभवों के बाद अमरीकी कान्सुलेट को लिख भेजा, जो उनके कार्यालय में सुरक्षित रहा। इसी बीच हेराल्ड शरमन नामक एक अन्य आत्मवादी ने भी उस एक हजार लाख किलोमीटर दूर ग्रह ‘बृहस्पति’ की यात्रा की। उन्होंने भी अपने विवरण दर्ज करा दिये। महीनों बाद जब ‘पायोनियर-10’ बृहस्पति-’अभियान से लौटा तो वह अपने साथ अतिविकसित वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा एकत्र सूचनाएँ लाया। ये सूचनाएँ, स्वान और शर्मन द्वारा प्रस्तुत सूचनाओं से मेल खा रहीं थी। तीनों के विवरण में सादृश्य था, जबकि तीनों द्वारा एकत्र सूचनाएँ, एक-दूसरे को ज्ञात नहीं थी और फिर अन्तरिक्षयान कोई मनुष्य नहीं था, वह तो वहाँ के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों के द्वारा संचालित योजना के अनुसार भेजा गया यान था, जिसकी सभी महत्वपूर्ण गतिविधियाँ पूर्णतः गुप्त रहती है। महीनों पूर्व, बिना किसी उपकरण के दोनों आत्मवादियों ने एक भी पैसे खर्च किये बिना अपनी जीवात्मा की सामर्थ्य से जो जानकारियाँ संचित की थीं’ वे करोड़ों डालर और सैकड़ों मेधावी मस्तिष्कों के अहर्निश श्रम के खर्च से प्राप्त सूचनाओं जैसी ही थी।
जब यह बात अमरीकी पत्र-पत्रिकाओं में छपी।’ तो वहाँ की एक विज्ञान पत्रिका के सम्पादक ने उन आत्मवादियों को चुनौती दी कि वे जरा बुध ग्रह की यात्रा करें। चुनौती स्वीकार कर ली गई।
दोनों आत्मवादियों ने उस ग्रह की यात्रा सूक्ष्म शरीर द्वारा की। फिर पत्रिका को लिख भेजा कि ‘मरक्यूरी यानी बुध ग्रह का वातावरण पतला है और वहाँ विरल चुम्बकीय क्षेत्र भी है। तब तक बुध के बारे में मान्यता यही थी कि वहाँ चुम्बकीय क्षेत्र नहीं है। उस विज्ञान पत्रिका ने उपहासास्पद टिप्पणियों के साथ उक्त विवरण छापे। बाद में “मेरीनर-10” अन्तरिक्षयान ने बुध ग्रह की परिक्रमा की और लौटकर वही निष्कर्ष साथ लाया। अब तो विज्ञानवादी चकित हो गये।
स्पष्टतः ये घटनाएँ भूतों की हलचलों की घटनाओं से भिन्न कोटि की है। मृत्यु के बाद प्रेतात्माओं द्वारा चाहे जहाँ आ-जा सकने, सताने, चौंकाने आदि की घटनाएँ तो प्रकाश में आती रही है। देव-पितरों द्वारा सत्कर्मों हेतु सहयोग और सद्भाव भरी प्रेरणाएँ देने के प्रसंग भी सामने आते रहे हैं। मरने के बाद व्यक्ति की आत्मा स्थूल-शरीर की सीमाओं में नहीं बँधी रहती, इतना तो स्पष्ट होता रहा है। किन्तु प्रस्तुत घटनाएँ जीवित स्थिति में भी व्यक्ति में ऐसी समस्त क्षमताएँ सन्निहित होना सिद्ध करती है। वियना की मनःसंस्थान प्रयोगशाला और अमरीका के कैलीफोर्निया की मानसविज्ञान शोध-संस्थानों में जीवात्मा की इन क्षमताओं के द्योतक उदाहरणों की निरन्तर छानबीन चल रही है और उनकी प्रामाणिकता से वैज्ञानिक आश्चर्यजनक निष्कर्षों पर पहुँच रहे है। वे व्यक्ति-सत्ता की विलक्षण गहराइयों और जीवात्मा की अकूत शक्तियों को मानने को बाध्य है।
स्पेन में ऐसी ही एक आश्चर्यजनक घटना उस समय सामने आई, जब दो लड़कियाँ एक बस से लौट रही थीं। इनमें से एक का नाम था हाला। दूसरी का मितगोल। बस रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई। मितगोल इस दुर्घटना में पिस गई। हाला पूरी तरह सुरक्षित रही, किन्तु भय से संज्ञाशून्य हो गई। कुछ समय बाद उसे होश आया। इसी बीच दुर्घटना का समाचार सुनकर दोनों लड़कियों के अभिभावक निजी वाहनों से दुर्घटनास्थल पहुँचे। हाला के पिता उसकी ओर बढ़े और प्यार से पुचकारा-”मेरी प्यारी बच्ची!” पर, उन्हें वहीं ठिठक जाना पड़ा। वह लड़की बोल पड़ी-”मैं हाला नहीं, मितगोल हूँ।” वह मितगोल के पिता की ओर बढ़ी।
दोनों अभिभावक चकित थे। लड़की मितगोल के पिता के साथ जाने को उद्यत थी। उसे दर्पण दिखलाया गया ताकि वह अपना भ्रम दूर कर सके और पूर्वस्मृति लौटा सके। परन्तु दर्पण देखते ही वह चौंक उठी, मानो मितगोल का ही रूप बदल गया हो। उसने मितगोल के पिताजी की ओर देखा और बोली-”पिताजी! यह क्या हुआ? मैं बदल कैसे गयी?”
हाला के पिता किसान थे। वह अधिक पढ़ नहीं पाई थी। मितगोल के पिता प्राचार्य थे। वह कालेज में पढ़ रही थी और विभिन्न विषयों की जानकारी रखती थी।
लड़की को समझा-बुझाकर हाला के पिता के साथ भेजा गया। पर वहाँ उसका व्यवहार पूरी तरह बदला हुआ था। एक दिन वह उस विद्यालय में जा पहुँची, जहाँ मितगोल पड़ती थी। वहाँ छात्रों के समूह को सम्बोधित करने लगी और “स्पिनोला के तत्व-ज्ञान” पर भाषण दे डाला। ऐसे अनेक प्रमाणों के बाद प्राचार्य महोदय को मानना पड़ा कि वह मितगोल ही है। वे उसे अपने साथ रखने लगे और रूप-रंग के अतिरिक्त उसमें कुछ भी परिवर्तन कभी देखा भी नहीं। वह सचमुच मितगोल जैसा ही आचरण करती।
ये घटनाएँ जीवात्मा की असीम सामर्थ्य पर प्रकाश डालती है। परकाया-प्रवेश और अनन्त अन्तरिक्ष की इच्छानुसार यात्रा जैसी क्षमताएँ उसमें भरी पड़ी है। विज्ञान इस नये क्षेत्र में प्रवेश कर चुका है और उसकी खोजों के निष्कर्ष भारतीय मनीषियों के प्राचीन प्रतिपादनों को पुष्ट कर रहे है। यदि इन प्रयोगों को सही रीति से कार्यान्वित किया गया, तो आत्महत्या के दिव्य आलोक का रहस्य स्पष्ट हो सकेगा और उससे व्यक्ति, समाज एवं विश्व के जीवन-प्रवाह में श्रेष्ठ, शुभ एवं ऊर्ध्वगामी परिवर्तन आ सकेगा।