
मुक्त कण्ठ से हँसिये, जी भर कर रोइये
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जीवन में परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। एक परिस्थिति किसी व्यक्ति के लिए अनुकूल होती है तो वही परिस्थिति दूसरे किसी व्यक्ति के लिए प्रतिकूल भी हो सकती है। कौन-सी परिस्थिति किस व्यक्ति के अनुकूल है और किस व्यक्ति के लिए, प्रतिकूल यह तय कर पाना कठिन है, किन्तु इतना निश्चित है कि प्रत्येक व्यक्ति अनुकूल परिस्थितियों में प्रसन्न होता है और प्रतिकूल स्थितियों उद्विग्न हो उठता है। अनुकूलता में उत्पन्न होने वाली प्रसन्नता विषण्णता को भावनात्मक संवेग कहा जाता है।
कई बार लोग इन परिस्थितियों में उत्पन्न होने वाले भावनात्मक संवेगों को सभ्यता, शिष्टता या लोक-लाज के कारण दवा देते हैं। उदाहरण के लिए जब मुक्त कण्ठ से हँसने का मन होता है तो लोग जबरन अपनी हँसी को रोक लेते हैं या जब रुलाई फूटती है तो आँसुओं को जब्त करने की चेष्टा करते हैं। इन भावनात्मक संवेगों को रोकना कई बार अनेक रोगों और मानसिक उलझनों का कारण बन जाता है। यह भी होता है कि किन्हीं मानसिक कारणों अथवा बाहरी दबावों से व्यक्ति अपने भावनात्मक संवेगों को सहज रूप से व्यक्त नहीं कर पाता है। निखरे और सुलझे हुए मन में सभी अभिव्यक्तियाँ सहज और मुक्त रूप से होती हैं। बच्चा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उन्मुक्त हास्य और उन्मुक्त रुदन दोनों ही उसमें स्पष्टतया देखे जा सकते हैं। बड़े हो जाने पर भी भावनात्मक उद्वेलन उसी प्रकार उठते गिरते हैं जैसे सागर में लहरें चढ़ती-उतरती हैं। इन उद्वेलनों का उतार-चढ़ाव का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है। जो परमहंस स्थिति में पहुँच गये हैं, उनकी बात भिन्न है अन्यथा। मनुष्य मात्र को इन भावनात्मक उद्वेलनों से गुजरना पड़ता है;
प्रसन्नता और हर्ष की अभिव्यक्ति प्रायः हँसी अथवा मुस्कान के रूप में होती है और उदासी तथा क्षोभ की प्रतिक्रिया रुलाई के रूप में फूटती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब हँसने का मन हो तो बिना कोई संकोच किये हँस लेना चाहिए और जब भीतर से रुलाई फूट रही हो तो जी भर कर रो लेना चाहिए। इसका कारण बताते हुए वैज्ञानिकों का कहना है कि हर्ष और शोक दोनों ही मनुष्य मन को अलग-अलग ढंग से उत्तेजित करते हैं। उत्तेजना की प्रतिक्रिया सहज स्वाभाविक नहीं होती, वह मन पर अतिरिक्त दबाव डालती है। उस दबाव से मुक्त होने के लिए ही हास उल्लास, उदासी, रुदन आदि प्रतिक्रियायें जन्मती हैं। यदि हर्ष, उल्लास या हास्य को जबरन रोककर दबा दिया जाय तो निश्चित रूप से भावनात्मक सन्तुलन गड़बड़ाता है। यही बात रोने, क्षोभ प्रकट करने और शोक करने के सम्बन्ध में है। मन ही मन घुटते रहने से उदासी अनेक प्रकार की ग्रन्थियों का कारण बनती है और कई अवसरों पर तो प्राण संकट भी उपस्थित हो जाता है।
घर में अकस्मात किसी प्रयोजन की मृत्यु हो जाती है तो उस आघात से कई व्यक्ति रोना भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में, जब रुलाई नहीं फूटता तो आसपास के लोग भरसक चेष्टा करते हैं कि वह रोने लगे। क्योंकि उस स्थिति में आघात का तीर इतना गहरा बैठता जाता है कि दूसरे विकास उत्पन्न करके या प्राण हर लेने के बाद ही रुकता है। इस आघात को सह लेने की क्षमता जी भरकर रो लेने से उत्पन्न होती है। एक तरह से रुलाई मरहम का काम करती है जो उस आघात की पीड़ा को हल्का करती है। सामान्य शोक या दुख के अवसरों पर भी देखा गया है कि रो लेने के बाद चित्त हल्का हो जाता है।
इसी प्रकार परदुःख कातरता मनुष्य स्वभाव का सहज गुण है। दूसरों को दुःखी देखकर भीतर की करुणा व सम्वेदना आन्दोलित होती है। यह हलचल भी आवश्यक है। यदि इस उद्वेलन को दबा दिया जाता है तो मन की कोमल भाव सम्वेदनाओं को क्षति पहुँचती है। इसी प्रकार प्रसन्नता और हर्षप्रद घटनाओं की प्रतिक्रियाओं को उल्लसित ढंग से व्यक्त कर देने का परिणाम स्वयं के लिए ही लाभप्रद नहीं होता बल्कि उनकी अभिव्यक्ति निकटवर्ती लोगों में भी सहचारी भाव उत्पन्न करती है। स्वयं का जो तो हल्का होता ही हैं, दूसरों को भी प्रसन्न होने का लाभ मिलता है।
कहा जा चुका है कि जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। असन्तोष, असफलता, क्षोभ, आघात और सफलता, सन्तोष, उल्लास आदि जीवन के उज्ज्वल और अन्धकार-मय पहलू दिन-रात की तरह, सभी के जीवन में आते-जाते रहते हैं। उनका आना-जाना यदि खिलाड़ी भावना से ग्रहण किया जाय तो चित्त के उद्वेलित, आन्दोलित होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी प्रशाँत मनः स्थिति परिष्कृत व्यक्तित्व का चिह्न है। अच्छा तो यही है कि सभी परिस्थितियों को खिलाड़ी भावना से स्वीकार किया जाय लेकिन ऐसा न किया जा सके तो उचित है कि हर्ष और शोक को सहज ढंग से व्यक्त कर दिया जाय। मनोभूमि में जब दुःखद घटनाओं की अनुगूँज उठ रही हो तो यही उपयुक्त है कि भीतर से उठ रही रुलाई को रोका न जाय, नकली बहादुरी के प्रदर्शन का प्रयत्न मन के भीतर की घुटन को तो हल्का करेगा नहीं, मस्तिष्क की क्रियाशीलता को अवश्य क्षति पहुँचायेगा। भारी सदमे के कारण उत्पन्न होने वाले घातक रोग इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। कई बार ही उनके कारण मृत्यु तक होती देखी गई है। यदि उस समय फूट-फूटकर रो लिया गया होता या कि अपना दुःख जो खोलकर किसी आत्मीयजन से विस्तारपूर्वक कह दिया होता तो ऐसी स्थित कदापि नहीं आती।
उच्च आदर्शों को अपनाने और उत्कृष्ट विचारों में रमण करने वाले व्यक्तियों के भीतर अपने चारों ओर पीड़ा और पतन की परिस्थितियां देखकर भी क्षोभ, रोष और करुणा का सम्मिश्रित वेग फूट पड़ता है। इन संवेगों को दबाया न जाय तो यही व्यक्त-होकर श्रेष्ठ कर्मों का आधार बनते है। प्रस्तुत परिस्थितियों से जूझने और उलट देने का संकल्प उसी भाव भूमि में उत्पन्न होता है। काव्य, कला, संगीत, साहित्य आदि में निहित मर्मस्पर्श करने वाली शक्ति इन्हीं अभिव्यक्तियों से अंकुरित होती है। समाज निर्माण और लोकमंगल का संकल्प ऐसी अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों के द्वारा और अधिक दृढ़ और प्रखर बनता चलता है। यदि उन प्रतिक्रियाओं को भाव सम्वेदनाओं को दबा दिया जाय तो उच्च आदर्शों को अपनाने वाले व्यक्ति भी व्यक्तिगत सन्तोष से अधिक कुछ नहीं पा सकते और न समाज को ही कुछ दे पाते हैं।
हास्य और रुदन जैसी प्रवृत्तियों का रासायनिक स्वरूप क्या होता है, यह महत्वहीन है। यद्यपि वे एक से नहीं होते। प्रो. स्टुगार्ट ने भिन्न-भिन्न भाव-भूमियों में निकल पड़ने वाले आंसुओं का विश्लेषण कर यह बताया है कि इनमें से प्रत्येक प्रकार के आँसुओं में प्रोटीन, शर्करा, लवण और कीटाणु नाशक आदि तत्वों का भिन्न-भिन्न अनुपात रहता है। साथ ही कुछ रासायनिक मिश्रण भी पाये जाते हैं। प्रो. स्टुगार्ट ने इस विश्लेषण के आधार पर, लम्बे समय तक प्रयोजनों और परीक्षणों द्वारा अपने शोध प्रयासों से इतने निष्कर्ष प्राप्त कर लिए कि अब अश्रु कणों के विश्लेषण द्वारा ही उनके बहने का कारण जाना जा सकता है। अर्थात् आँसू बहाने वाला व्यक्ति सामने न हो, केवल आँसुओं का ही विश्लेषण किया जाय और जिस व्यक्ति के वह आँसू हैं उससे रोने का कारण भी न पूछा जाय तो केवल आँसुओं के विश्लेषण द्वारा ही सब कुछ जाना जा सकता है।
स्मरणीय है कि आँसू शोक के समय ही नहीं निकलते, जोर से हँसने पर भी आँखों में आँसू चुहचुहाने लगते हैं। प्रो. स्टुगार्ट के अनुसार आँसुओं के विश्लेषण द्वारा यह भी जाना जा सकता है कि वे खुशी के आँसू है या दुःख के। अमेरिका के मनोवैज्ञानिक जेम्स इलियर के अनुसार हास्य और रुदन के भाव संवेगों को रोकने से जुकाम, सिरदर्द, आँखों में जलन, स्मरण शक्ति ह्रास, पेट के रोग जैसे कई शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न होते है।
प्रायः देखा गया है कि स्त्रियाँ आँसू बहाने में कंजूसी नहीं करतीं। यही कारण है कि वे पुरुषों की अपेक्षा घुटना का शिकार बनती है और अधिक स्वस्थ तथा दीर्घ जीवी होती हैं। जबकि पुरुष अपनी कठोर प्रकृति का दण्ड स्वास्थ्य के क्षरण के रूप में भोगते हैं। मनः चिकित्सक बेनार्ड होल्स ने तो कई विक्षिप्त रोगियों को कारुणिक दृश्य दिखा-दिखाकर नियमित रूप से रुलाया। केवल इसी उपचार के द्वारा वे विक्षिप्त रोगी ठीक हो गये।
हास्य और रुदन की तरह भय और क्रोध भी भावनात्मक संवर्ग हैं। यदि वे संवेग परिस्थितियों के कारण सहज रूप से उत्पन्न होते हैं तब तो उनकी अभिव्यक्ति हो जाती है, पर मनुष्य सबसे ज्यादा भयभीत अपने ही दुष्कर्मों से होता है। यदि उस भय का उपचार किया जाय तो न दुष्कर्म करते बन पड़ता है और न ही भयजन्य मनोविकारों का शिकार होना पड़ता है। लेकिन दुष्कर्मों में रत रहा जाय और भय की भावनाओं का दमन किया जाय तो व्यक्ति आत्मनाश और सर्वनाश के गर्त में ही गिरता है। अपराधी कितना ही वीर और साहसी क्यों न हो, अपने आप से भय, समाज से भय, राज्य का भय, दण्ड और न्याय व्यवस्था का भय उसे भीरु और कायर बनाता जाता है। अन्ततः भय की यह दमित भावना गहरे मानसिक सन्ताप और जटिल मानसिक रोगों का कारण बनती है। हिटलर युवावस्था में धीर वीर और साहसी था, पर जब अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के वह क्रूर कर्मों की और प्रवृत्त हुआ तो उसका अपना ही भूत, भयजन्य मानसिक सन्ताप उसे खाने लगा और खाता ही गया। इसी मनस्ताप के कारण अन्तिम दिनों में उसे एक प्रकार का लकवा मार गया और उसे अपने विश्वासों पर भी सन्देह होने लगा। यह मनस्ताप आखिर उसे आत्महत्या के कगार तक पहुँचाकर ही रहा। यदि अपनी आत्मा के साथ न्याय किया जाय, अन्तरात्मा की आवाज को सुना जाय और उसके अनुसार चलने का प्रयास किया जाय तो अपने भय से होने वाला मनस्ताप नहीं सताता और न ही विक्षोभ की आग में जलना चलना पड़ता है।
इतने पर भी अनजाने में यदि कोई दुष्कर्म बन जाय तो उसके कारण होने वाले मानसिक सन्ताप को पश्चाताप प्रक्रिया एवं आत्मस्वीकृति द्वारा दूर किया जा सकता है। भारतीय मनीषी आचार्यों ने इसी उद्देश्य से प्रायश्चित विधान किया था ताकि अनजाने हुए दुष्कर्मों के दुष्परिणामों से बचा जा सके। जान-बूझकर पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी सद्बुद्धि जागृत होने पर भी प्रायश्चित प्रक्रिया अपनाकर पापकर्मों का प्रक्षालन किया जा सकता है।
पाप कर्मों का दुष्परिणाम दण्ड भुगतना पड़ता है, यह निश्चित है, पर यह आवश्यक नहीं है कि सामान्य जीवनक्रम में आने वाले उतार-चढ़ावों का कारण भी पा ही हों। मन की स्वाभाविक क्रिया-प्रतिक्रियाओं को छिपाने की प्रवृत्ति, मानसिक भाव उद्वेलनों को सहजता से व्यक्त न करने की आदत, असह्य, नकली और कृत्रिम गम्भीरता आदि बातें मन में उन ग्रन्थियों को जन्म देती है, जो विकृतियों की ओर अग्रसर करती है। सहज सरल जीवन में इस प्रकार की ग्रन्थियाँ नहीं ही पड़ती हैं। बोझिल और उलझा हुआ मन ही अनैतिक जीवन की ओर प्रवृत्त करता है। मन में ऐसा बोझ न लदने देने के लिए भावनात्मक उद्वेलनों को दबाना नहीं चाहिए।
समुद्र में ज्वार-भाटे की तरह ही हमारे चित्त के तल पर भी परिस्थितियों के घात-प्रतिघात, हर्ष-विषाद, उल्लास और शोक के उतार-चढ़ावों को उठाते गिराते रहते हैं। इन भावों को सहज और मुक्त रूप से व्यक्त होने देना चाहिए तथा स्वयं बालकोचित सरलता बनाये रहना चाहिये। अधिक उत्कृष्ट स्थिति तो यही है कि हर्ष और शोक में से कोई भी प्रवृत्ति मन का सन्तुलन बिगाड़ ही न पाए। गीता में इसी मनःस्थिति के व्यक्तियों को स्थित प्रज्ञ, गुणातीत, ज्ञानी, योगी और अनासक्त पुरुष कहा है। वह स्थिति लम्बे अभ्यासों और आध्यात्मिक साधनाओं से प्राप्त होती है। उसके लिए प्रयास किया जाय यह अच्छा ही है, पर यह स्थिति एक दिन में नहीं बनती। जब भीतर वैसी उत्कृष्ट मनःस्थिति न हो तब ऊपर से भावोद्वेगों को दबाकर शान्ति बनाये रखना हानिकर ही सिद्ध होगा। इसीलिए कहा गया है कि मुक्त कण्ठ से हँसना और जी भरकर रोना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक ही है।