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Magazine - Year 1979 - October 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रार्थना अर्थात् विनम्र पुरुषार्थ

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चिकित्सा शास्त्र पर नोबेल पुरस्कार विजेता फ्राँस के लियो विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा कैरले ने जटिल से जटिल रोगों का उपचार कर दिखाया है। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान को अपनी प्रतिभा द्वारा कई महत्वपूर्ण अनुदानों से भी सम्पन्न बनाया। जिन रोगों का उपचार तो दूर निदान करना भी बड़े-बड़े डॉक्टरों के वश में नहीं था, डा कैरल ने उनके अचूक इलाज और कारगर औषधियाँ खोज निकाली। उनसे जब इस सफलता का रहस्य पूछा गया तो वे बोले, ‘आम लोगों की तरी मैं भी एक साधारण मनुष्य हूँ और उनसे अधिक मेरी कोई सामर्थ्य भी नहीं है। मुझे जो सफलतायें प्राप्त करने का श्रेय मिला है, वे मेरे पुरुषार्थ का क्रम परमेश्वर के दिव्य सहयोग का प्रतिफल अधिक है।

प्रार्थना सभी करते है। उसमें ईश्वर से कुछ माँगते और याचना भी करते है। परन्तु देखा जाता है कि किन्हीं को सर्वथा निराश ही होना पड़ता है। डा कैरल जिस किसी भी रोगी का उपचार करते उससे कहते थे, प्रार्थना करो, सच्चे मन से प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए पश्चात्ताप और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रतिज्ञा के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो वह जरूर सुनी जायेगी। सच्चा इलाज तो प्रार्थना है और जो सच्चे हृदय से प्रार्थना करेगा वह शारीरिक ही नहीं आन्तरिक रोग-शोकों से भी छुटकारा पा जायगा।

वस्तुतः प्रार्थना फलित होती ही तब है जब वह सच्चे मन से की जाय। उसके लिए हृदय में सच्ची माँग उत्पन्न की जाय। क्योंकि प्रार्थना में अवलम्बन तो ईश्वर का ही लिया जाता है, पर वह ईश्वर सर्वव्यापी और परम कारुणिक सत्ता है। उसे हर किसी की इच्छा और आवश्यकता का ज्ञान है तथा वह उपयोगी और लाभदायक इच्छाओं की पूर्ति भी करना चाहता है। परन्तु इच्छा मात्र से कुछ नहीं होता। उसके लिए पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। जन्म देने और पालन करने वाला पिता भी अपनी सन्तान के प्रति सभी जिम्मेदारियाँ तब तक निभाता है जब तक कि वह अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य नहीं हो जाता। आत्म निर्भर होने के बाद वह उन्हीं कार्यों में योगदान देता है जो पुत्र के वश की बात नहीं है और पिता अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें पूरा करा सकता है। लेकिन कोई जीवन भर ही अपने अभिभावकों पर आश्रित रहना चाहे, स्वयं कुछ न करने की बात सोचे तो न यह सम्भव है और न स्वाभाविक ही। परमात्मा भी अपनी ज्येष्ठ सन्तान मनुष्य को अपनी अनुकम्पा से तभी लाभान्वित करता है जब कि वह स्वयं भी पुरुषार्थ करने के लिए तत्पर हो।

पुरुषार्थ रहित प्रार्थना तो याचना ही कही जायगी और याचना अपने आप में हेय है क्योंकि दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसके साथ जुड़ी हुई है, जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती हैं हाथ चाहे किसी व्यक्ति के सामने पसारा जाय अथवा भगवान के सामने झोली फैलाई जाय उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। बात एक ही है। चोरी चाहे किसी मनुष्य के घर में की जाय अथवा भगवान के मन्दिर में, चोरी तो चोरी है, बुराई है और बुराई हर स्थान पर बुराई ही रहेगी।

आत्म-गौरव को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया, भले ही उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसी समर्थ सत्ता के लिए कदापि शोभा नहीं देती। जिस प्रार्थना को सच्ची प्रार्थना कहा जा सकता है उसका अर्थ अपनी आत्मा को परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह अपने में ऐसी पात्रता विकसित करे जिससे आवश्यक विभूतियाँ उसकी योग्यता के अनुरूप सहस ही मिल सके। वर्षा होती है। पहाड़ों, मैदानों, नदियों और सरोवरों में बिना किसी भेदभाव के बादल पानी बरसाते है, पर पहाड़ की चोटियों पर पानी नहीं ठहरता, मैदानों में बह जाता है और मैदानों में भी सूख जाता है। लेकिन नदियाँ, सरोवर और गड्ढे, कुएँ पानी से भर जाते हैं क्योंकि उनमें वह रिक्तता, पात्रता विद्यमान रहती है जिनमें कि पानी ठहर सके।

यह एक तथ्य और भी ध्यान देने योग्य है कि सरोवर हो या गड्ढे, बाहर से उनमें पानी आता है तो वह उतना ताजा नहीं रहता जितना कि नदियों व कुँओं में ताजा और निर्मल रहता है। इसका कारण है नदियों तथा कुँओं के स्त्रोत अपने आप में होते है। अपने में निहित स्त्रोतों से कुँओं और नदियों में निरन्तर जल आता रहता है वह ताजा और शुद्ध तो रहता ही है, कभी सूखता भी नहीं। जबकि तालाब और गड्ढे पोखरों का पानी थोड़ी-सी धूप और जरा-सी गर्मी पड़ने पर सूख जाता है।

इसका कारण है नदी और कुँओं का संबंध स्त्रोतों के द्वारा जलोदधि से होता है। चूँकि सागर कभी सूखता नहीं इसलिए नदियाँ भी नहीं सूखती। कुँओं का संबंध भी यदि जमीन में बहने वाली गहरी जलधाराओं से होता है तो उनका पानी भी कभी खत्म नहीं होता। क्योंकि उनका संपर्क विराट् और अगाध जलराशि से सम्बद्ध हो जाता है। प्रार्थना भी मनुष्य का संपर्क विश्वव्यापी महानता के साथ घनिष्ठता बढ़ाती है। सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना का परिणाम आदर्शों के रूप में भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में होता है। उसके साथ जुड़ जाने पर प्रतीत होता है कि अपने दुःख क्लेशों, का हेतु कोई ओर नहीं अपनी ही तमसाछन्न मनोभूमि है, जिसमें अज्ञान और आलस्य ने जड़े जमाली है। प्रार्थना की कुदाली से अन्तःभूमि में व्याप्त कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण कर अन्तःशक्ति के स्त्रोत को खोलने का प्रयास किया जाय तो मनुष्य की कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहती कोई भी आकाँक्षा बिना पूरी हुए नहीं रहती।

अन्तःशक्ति को जगाने वाली अन्तःज्योति की एक भी किरण उग सके तो उस अन्धकार से सहज ही छुटकारा मिल सकता है, जिसमें पग-पग पर ठोकरें लगती है और उनसे शोक सन्ताप उत्पन्न होता है। उस स्थिति में यह अन्तःप्रकाश उत्पन्न होता है, परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है, पर उसके जिस अंश की हम उपासना या प्रार्थना करते है वह सर्वात्मा है और पवित्रात्मा है।

यह प्रकाश उत्पन्न होने पर व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने तथा पेट और प्रजनन के लिए सीमाबद्ध रखने वाली वासना, तृष्णा की मूढ माया से छुटकारा पाने के लिए मन तड़पने लगता है। वासना, तृष्णा के इस भव बन्धन से छुटकारा पा लेना और अपने आत्मविस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म साक्षात्कार भी कहते है। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म स्तर से, परमात्मा से यही प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करें और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करें जिससे सर्वत्र दिखाई पड़ने वाला अन्धकार दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।

प्रार्थना वही सच्ची है जो अपनी आत्मा की गौरव गरिमा के अनुरूप कही जायगी जिसमें यह कामना जुड़ी रहे कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये, जिसमें हम उसके सच्चे भक्त अनुयाई एवं पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकें। प्रार्थना में ईश्वर से वह शक्ति प्रदान करने की बिनती की जाती है जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर विवेक सम्मत कर्तव्य पथ पर साहसपूर्वक चला जा सके और इस मार्ग में जो अवरोध आते हैं उनकी उपेक्षा करते हुए अटल रहा जा सके। कर्मों के फल अनिवार्य हैं, अपने प्रारम्भ भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्यपूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराशा न होने वाली मनःस्थिति बनाते रहा जा सके।

मन को इतना निर्मल बना देने का अनुनय कि कुकर्मों की ओर प्रवृत्ति ही न हो और हो भी तो उन्हें करने का दुस्साहस न उठे। इस प्रकार मनुष्य जीवन को, अपनी आत्मा के स्तर को निरन्तर ऊँचा उठाने और गतिशील बनाये रहने की माँग ही सच्ची प्रार्थना कही जायगी। जिसमें धन, सम्मान, स्वास्थ्य, सफलता आदि की याचना की गई हो, वह प्रार्थना नहीं कही जा सकती। जिसमें अपने पुरुषार्थ, कर्त्तव्य के अभिवर्धन का स्मरण न हो ऐसी प्रार्थना को याचना मात्र कहा जायगा और ऐसी याचनाओं की सफलता प्रायः संदिग्ध ही रहती है।

डा. एमेली कोडी, जिन्होंने परामनोविज्ञान पर वर्षों तक खोज की है और कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रणयन किया है, लिखा है, “प्रार्थना मात्र ईश्वर को धन्यवाद देने या उससे कुछ याचना करने के प्रक्रिया नाम नहीं है। वरन् यह वह मनःस्थिति है, जिससे व्यक्ति शंका और सन्देहों के जंजाल में से निकल कर श्रद्धा की भूमिका में प्रवेश करता है। अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकरा कर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है। जिसमें यह संकल्प भी जुड़ा रहता है कि भावी जीवन परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार पवित्र और परमार्थी बन कर जिया जायगा। ऐसी गहन अन्तःस्थल से निकली हुई प्रार्थना जिसमें आत्म परिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो भगवान का सिंहासन हिला देती है। ऐसी प्रार्थना के परिणाम भी इतने अद्भुत होते हैं कि उन्हें चमत्कार भी कहा जा सकता है।

जब मन दुर्बल हो रहा हो, मनोविकार बढ़ रहे हों और लगता हो कि पैर अब फिसला, तब फिसला, तो सच्चे मन से परमात्मा को पुकारना चाहिए। गज को ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान, पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल आर्त भक्त की पुकार अनसुनी नहीं करते है और उस मनोबल के रूप में अन्तःकरण में उतरते हैं जिसे गरुड कहा जा सकता है तथा जो पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों को उदरस्थ करने का अभ्यासी है भी। परमात्मा से यही माँग भी जाना चाहिए। समझदारी इसी में है। भिखारी बनकर राजा के पास पाँच दस पैसे माँगने पहुँचा जाय तो उसे मूर्ख ही कहा जायगा। फिर ईश्वर तो राजाओं का भी राजा, सम्राटों का भी सम्राट और अधिकों का भी महाधिपति है, उससे लौकिक याचनाएँ पुरी करने के लिए कहना भिखारी जैसी मूर्खता करने जैसा है। भगवान से वही माँगना चाहिए जिन्हें देने में वह भी सन्तुष्ट होता है और प्राप्त होने पर स्वयं को भी गौरव की अनुभूमि होती है। वह माँगने योग्य वस्तु आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध, अन्तःप्रकाश अथवा समर्पण स्वीकार ही है।

भगवान को अपने में और अपने का भगवान में समाया होने की अनुभूमि जब इतनी प्रबलता के साथ अनुभूत होने लगे कि उसे कार्यरूप में परिणत किये बिना रहा ही न जा सके तो यही समर्पण भाव की परिपक्वता है। ऐसी शरणागति व्यक्ति को द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती है तथा यह गतिशीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता सहित भक्त के व्यक्तित्व में उतरना पड़ता है।

आरम्भ अपने पापों के पश्चात्ताप, निर्मल जीवन जीने के संकल्प और सफलताओं के लिए विनम्रतापूर्वक ईश्वर को धन्यवाद देने से करना चाहिए। निस्सन्देह सफलताएँ अपने ही परिश्रम पुरुषार्थ का प्रतिफल होती है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उस परिश्रम पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वाला परमात्मा अपने अन्तःकरण में ही विद्यमान है। यदि इस तथ्य को नकारकर अपने क्षुद्र अस्तित्व का अभिमान किया जाता है तो मदोन्मत्त हाथी की तरह न केवल अपनी शक्तियों का विध्वंसकारी दुरुपयोगी होने की सम्भावना बनती है, वरन् उनके भी नष्ट होने का संकट खड़ा रहता है। अस्तु जो कुछ प्राप्त है उसके लिए परमात्मा के प्रति कृतज्ञता और धन्यवाद के बोध से भर कर परमात्मा से आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध के ही दिव्य वरदान की माँग की जाय। सर्वतोभावेन परमात्मा के प्रति समर्पित भक्त का योगक्षेम वहन करने की प्रतिज्ञा भगवान ने स्वयं की है, पर उस शर्त को भी तो पूरा किया जाना चाहिए जो पात्रता विकसित करने, हृदय को वासनाओं और तृष्णाओं से रिक्त करने के रूप में जुड़ी हुई है।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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October 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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