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Magazine - Year 1979 - September 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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गतिशील-जीवन प्रवाह

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जीवन का जो स्वरूप वर्तमान में दिखायी पड़ रहा है, वह इतने ही तक सीमित नहीं है वरन् उसका सम्बन्ध अनन्त भूतकाल तथा अनन्त भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस अनन्त श्रृंखला की एक कड़ी मात्र है। भारतीय दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। कर्मफल की व्याख्या पुनर्जन्म के सिद्धान्त द्वारा ही की जाती है।

पुनर्जन्म के विरुद्ध कुछ लोग तर्क यह देते है कि यदि जीवन का अस्तित्व भूतकाल में था तो उस समय की स्मृति क्यों नहीं रहती? ध्यान देने योग्य यह है कि घटनाओं की विस्मृति मात्र से पुनर्जन्म का खण्डन नहीं हो जाता। इस जीवन की प्रत्येक दिन की घटनाओं को ही हम कहाँ याद रख पाते है। अधिकांश घटनाएँ विस्मृत हो जाती है। स्मृति का न होना मात्र, घटना को अप्रमाणित नहीं कर देता। स्मृति तो अपने जनम की भी नहीं रहती। इस आधार पर यदि कहा जाय कि जन्म की घटना असत्य है क्योंकि उसकी हमें स्मृति नहीं है तो इसे अविवेकपूर्ण ही कहा जायेगा।

किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में जन्मजात ऐसी विशेषताएं दिखायी पड़ती हैं जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। बड़े-बड़े विचारक भी उन विशेषताओं का कारण स्पष्ट नहीं कर पाते। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की मानने से यह गुत्थी सहज ही सुलझ जाती हैं। यह मानना पड़ता है कि उसका कारण पूर्व जन्मों के संचित कर्म है।

विकासवाद के समर्थकों ने मानवी गुण एवं प्रवृत्तियों का आधार पैतृक माना है तथा कहा है कि बच्चा अपने माता-पिता से विशेष प्रकार के गुण प्राप्त करता है। यह बात एक सीमा तक ही सत्य है। देखा यह जाता है कि अनेकों बच्चों में जन्मजात ऐसी विशेषताएं होती है जो उनके माता-पिता में नहीं थी। इन विशेषताओं के कारण की खोज में वैज्ञानिक पिता-पितामह से लेकर अनेक पीढ़ियों तक जाने का प्रयत्न करते है। उनके अनुसार इन पीढ़ियों में से कोई एक ऐसी होनी चाहिए जिसमें वे विशेषताएं विद्यमान थीं। किन्तु इस प्रकार की व्याख्या से निराशा ही हाथ लगती है। वस्तुतः बच्चे के ये गुण मौलिक होते हैं जो वह संस्कारों के रूप में साथ लाता है। कुछ व्यक्ति गायक, संगीतज्ञ, कलाकार, साहसी, कवि, साहित्यकार होते है। पैतृक गुणों के आधार पर व्याख्या की जाय तो असफलता ही हाथ लगती हैं यह पता चलता है कि उसके पैतृक पीढ़ियों में कोई भी इन गुणों से युक्त नहीं था। तथ्य यह है कि प्रत्येक जीव अपनी मौलिक क्षमता लेकर आता है। उन क्षमताओं को वह माता-पिता के माध्यम से विकसित करता है।

यदि पैतृक गुण ही मानवी गुण के आधार होते तो एक परिस्थितियों में पैदा होने वाले समान सुविधाओं को प्राप्त करते हुए भी इतने भिन्न क्यों दिखायी पड़ते, एक ही पिता के पुत्र असमान पाये जाते हैं। यह असमानता उनकी मौलिक क्षमताओं की भिन्नता के कारण है। एक उन्हीं परिस्थितियों में विद्वान, योग्य, प्रतिभा सम्पन्न बन जाता है, जबकि दूसरा दयनीय अवस्था में पड़ा रहता है। यह पूर्व जन्मों की संग्रहित सूक्ष्म क्षमता एवं संस्कारों की ही विशेषता है जो एके को महान तथा दूसरे को अविकसित स्थिति में पड़े रहने देती है। विकास की यह परस्पर भिन्नता उस बात की प्रमाण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ कुछ पूर्वजन्मों की मौलिक विशेषताएं बीच रूप में लेकर अवतरित होता है।

विकासवाद की व्याख्या करते समय डार्विन जैसे वैज्ञानिक ने मानवी विशेषताओं की विवेचना पैतृक गुणों के आधार पर करने का प्रयत्न किया। जीवात्मा माता-पिता के शरीर में प्रविष्ट होकर कुछ गुणों को अपनी मूल विशेषताओं के अनुरूप प्राप्त करता है। इस सीमा तक तो बात सही है, किन्तु सम्पूर्ण विशेषताओं का आधार पैतृक मानना सही नहीं है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किये बिना इन गुत्थियों को सुलझा सकना संभव नहीं है।

पाश्चात्य दार्शनिक भी पुनर्जन्म में विश्वास करते है। ‘प्लेटौ’ ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि “जीवात्माओं की संख्या निश्चित है। जन्म के समय जीवात्मा का सृजन नहीं होता, वरन् एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रत्यावर्तन होता है। ‘लिवनीज’ ने अपनी पुस्तक दी आयडियल फिलासफी आफ लिग्टोज” में लिखा है कि “मेरा विश्वास है कि मनुष्य इस जीवन के पहले भी रहा है।”

प्रसिद्ध विचारक ‘लेस्सिग’ की पुस्तक “दी डिवाइन एजुकेशन आफ दि. ह्यूमन रेस” प्रख्यात है। वे अपनी इस पुस्तक में लिखते है-”विकास का उच्चतम लक्ष्य एक जीवन में ही पूरा नहीं हो जाता वरन् कई जन्मों के क्रम में पूर्ण होता है। मनुष्य ने कई बार इस पृथ्वी पर जन्म लिया है तथा अनेकों बार लेगा।”

दार्शनिक ‘ह्यूम’ का कहना है कि “आत्मा अजर अमर है। जो अक्षय, अजर या अविनाशी है वह अजन्मा भी है। आत्मा की अमरता के विषय में पुनर्जन्म ही एक सिद्धान्त है जिसका समर्थन प्रायः सभी दर्शन शास्त्री करते है।” ‘गेटे’ ने अपनी एक मित्र श्रीमती ‘वी.स्टेन’ की एक पत्र में लिखा था कि “इस संसार से चले जाने की मुझे प्रबल इच्छा है। प्राचीन समय की भावनाएँ मुझे यहाँ एक घड़ी सुखमय बिताने नहीं देती। यह कितनी अच्छी बात है कि मनुष्य मर जाता है और जीवन में अंकित घटनाओं के चिह्न मिट जाते है। वह पुनः परिष्कृत संस्कारों के साथ वापस आता है।”

पत्र लिखने का लक्ष्य चाहे जो भी रहा हो किन्तु ‘गेटे’ के उपरोक्त कथन में पुनर्जन्म में विश्वास होने का दृढ़ प्रमाण मिलता है। तत्व ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ ‘गीता’ भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा-देव! योगभ्रष्ट व्यक्ति की स्थिति क्या होती है? भगवान कृष्ण कहते है-

शुचीनाँ श्रीमताँ गेहे योगभ्रष्टो इभिजायते। अथवा योगिनामेव कुले भवति धीथताम॥

वह योगभ्रष्ट साधक पवित्र और साधन सम्पन्न मनुष्य के घर जन्म लेगा अथवा बुद्धिमान योगी के घर पैदा होगा।

पिछले जन्म की विशेषताओं एवं संस्कारों की प्राप्ति दूसरे जन्म में होती है। जन्म के साथ दिखायी पड़ने वाली आकस्मिक विशेषताओं का कारण पूर्वजन्म के कर्म होते है। उसका प्रमाण गीता के अगले श्लोक में मिलता है-

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदैहिकम्। यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनम्दन॥

वह अपने पूर्व जन्म के संस्कार को प्राप्त करके पुनः मोक्ष सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है।

दुष्कर्मों के फलस्वरूप जन्म निम्न योनियों में होता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-

तानहं द्विषतः क्रूरान संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यज स्त्रभषुभानासुरीव्वेव योनिषु॥

निकृष्ट कर्म करने वाले क्रूर, दीन नराधमों को मैं आसुरी योनियों में फेंक देता हूँ।

पुनर्जन्म एक सुनिश्चित सिद्धान्त है जिसको अधिकांश विचारशील स्वीकार करते है। कुछ लोग जीवन की इति श्री भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ समझ लेते है। उनकी मान्यता है कि जब जीवन वर्तमान तक ही सीमित है तो उसका उपभोग जैसे भी बन पड़े करना चाहिए। नीति-अनीति में भेद किये बिना ऋण कृत्वा घृतं पिवेत” का चारवाकी-सिद्धान्त अपनाना चाहिए। निस्सन्देह वे भयंकर भूल करते है। सामाजिक दण्ड के भागी तो बनते ही हैं, अपना अगला जीवन भी अन्धकारमय बनाते है। अच्छे का फल अच्छा, बुरे का बुरा मिलना निश्चिंत है। फल ही नहीं कर्मों के संस्कार भी सूक्ष्म रूप से अगले जीवन में साथ जाते तथा नये जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करते है। विशिष्ट प्रतिभा, योग्यता, जन्मजात इसी कारण दिखायी पड़ती है। इस तथ्य को जानते हुए अपने गुण-कर्म-स्वभाव में सतत परिष्कार करते रहना चाहिए? जीवन की अगली कड़ी की पृष्ठभूमि अभी से तैयार की जानी चाहिए।

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September 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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