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Magazine - Year 1979 - September 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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भूत व भविष्य दोनों को वर्तमान में देखा जाना जा सकता है!

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First 14 16 Last
विश्व के रूप और उसकी क्रियाओं का गणितीय आधार पर विश्लेषण करते हुए जब आइन्स्टाइन ने सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, तभी से अतीत की घटनाओं को असली रूप में देख सकने की सम्भावनाओं की चर्चा वैज्ञानिकों के बीच चल पड़ी है। अब प्रति-पदार्थ और प्रति-कणों की खोज के साथ ही भविष्य से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की ओर काल-यात्रा करने वाले कणों तथा तरंगों की खोज से भविष्य की झाँकी करने की प्रक्रिया पर भी विचार चल रहा है।

सापेक्षतावाद द्वारा आइन्स्टाइन ने सिद्ध कर दिया था कि अतीत की जो घटनाएँ हमारे लिए घटित एवं समाप्त हो चुकी हैं, उनकी तरंगें विश्व-ब्रह्माण्ड में अब भी विद्यमान हैं तथा किसी अन्य लोक के निवासी यदि उनके सामने समुचित साधन हों, तो हो सकता है कि वे उन घटनाओं को ऐसे देख रहे हों, जैसे कि वे इसी समय उनके सामने घट रही हों। इसी सिद्धान्त के आधार पर आर्कियोविडियोफोन जैसे यन्त्र की रचना हुई और वैज्ञानिक यह विश्वास कर रहे हैं कि शीघ्र ही वे अतीत की घटनाओं को चाहने पर प्रत्यक्ष देख सका करेंगे, ऐसा एक अनूठा टेलीविजन जैसा यन्त्र बनाया जा सकेगा। इसका अर्थ है कि ईसामसीह को प्रवचन करते, पैगम्बर मुहम्मद को जनता का संगठन-मार्गदर्शन करते तथा भगवान कृष्ण को गीता का उपदेश करते या राम-रावण युद्ध अथवा महाभारत युद्ध होते देखा-सुना जा सकता है।

पिछले दिनों अँग्रेजी पत्रिकाओं में ऐसी कितनी ही घटनाएँ छपी हैं जिनमें यह तथ्य उभर कर आता है कि भूतकाल के घटनाक्रम भी दिवास्वप्न की तरह कई बार वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं और वे यथार्थता की कसौटी पर सही उतरते हैं।

आक्सफोर्ड के सेन्टह्यूम कॉलेज की प्राध्यापक कुमार एलेनोर एफ॰ जार्डन ने अपनी वार्साई (फ्राँस) यात्रा के समय प्राचीन खण्डहरों में ऐसे दृश्य देखे थे जो शताब्दियों पूर्व हुए, राजाओं के रहन-सहन पर प्रकाश डालते थे। उन दृश्यों की ऐतिहासिक तथ्यों के साथ संगति बिठाई गई तो वे सच निकले। एलेनोर का कथन है कि इससे पूर्व उन विवरणों का उन्हें आभास मात्र भी नहीं था।

इंग्लैण्ड के गैयार्सी टावर नामक कस्बे के रहने वाले कर्नल डेविड स्मिथ ने सौ वर्ष पूर्व का एक घटनाक्रम इस प्रकार देखा, मानो वह अभी-अभी घटित हो रहा है। आश्चर्यपूर्वक उन्होंने तलाश किया कि क्या कभी ऐसी कोई घटना उधर घटित हुई थी। पता लगाने पर पाया गया कि जैसा उसने दिवा स्वप्न देखा ठीक वैसा ही भूतकाल में प्रत्यक्ष हो चुका है।

अतीत की ही तरह अनागत भविष्य की सम्भाव्य घटनाएँ भी कई बार दिवास्वप्न के रूप में प्रत्यक्ष देखी जानी जाती हैं और कालान्तर में वे ज्यों की त्यों सत्य सिद्ध होती हैं। बाल्टीमोर के एक इंजीनियर की लड़की लिंडा एन ब्युरिट्स को अपने भविष्य की ऐसी ही पूर्व झाँकी दिखाई पड़ गई थी। यह भावुक, सम्वेदनशील कल्पना-प्रवण किशोरी जीवन के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति रखती थी। काव्य, संगीत और चित्रकला में उसे रुचि थी। जब वह हाईस्कूल में थी, तभी एक दिन अचानक एक पोर्ट्रेट बनाने बैठी। यह उसके द्वारा बनाया गया प्रथम व्यक्ति-चित्र था। उसने अपनी ही आयु के एक अनजान लड़के का चेहरा बना डाला। वह चेहरा न तो उसने अपने जीवन में कभी भी देखा था, न उसके माता पिता ने। जब माँ ने पूछा कि यह लड़का कौर है जिसकी तुमने तस्वीर बनाई है, तो लिन्डा ने बताया कि “यह मेरी कल्पना का राजकुमार है। मैंने इसे कभी भी देखा नहीं। बस मुझे एक चित्र बनाने की प्रेरणा हुई, मैं बैठ गई और यह पोर्ट्रेट बन गया। वह पोर्ट्रेट बड़े चाव से उस किशोरी ने अपने अध्ययन-कक्ष में लगा लिया।

आगे चलकर महाविद्यालयी शिक्षा प्राप्त कर वह एक अध्यापिका बन गई। इसी बीच उसे ‘ब्रेन ट्यूमर’ हो गया। उसकी मृत्यु के समय डाक्टरों ने उसके माँ-बाप से अनुरोध किया कि बच्ची की आंखें नेत्र बैंक को दान कर दी जाएँ। उन्होंने अनुमति दे दी। मृत्यु के तत्काल बाद डाक्टरों ने उसकी आंखें सुरक्षित रख लीं।

ये आंखें लगाई गई वहाँ से 400 मील दूर स्थित चार्लस्टन शहर के उसी लड़की के हम उम्र 22 वर्षीय युवक बूड़ी को। इस लड़के की आंखें बचपन से ही कमजोर थीं। बीस साल की आयु में उसे गम्भीर नेत्ररोग हो गया तथा ऐसे आपरेशन के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं शेष बचा, जिसमें नेत्रदाता के शरीर से अलग किये जाने के 72 घण्टों के भीतर रोगग्रस्त आँख की जगह दूसरी आँख प्रतिरोपित कर दी जाये।

युवती लिंडा की आंखें नेत्र-बैंक को दे दी गई। बूड़ी के डाक्टर का क्रम नेत्र-आकाँक्षियों में प्रथम था, अतः उसे ही वे आँख मिलीं। ताजी नयी आंखें पाकर बूड़ी कृतज्ञता से भर उठा। उसने नेत्रदानी परिवार के प्रति कृतज्ञता दिखलाने हेतु बैंक से उनका पता पूछकर पत्र लिखा। कुछ दिन बाद वह उनसे मिलने गया। वहाँ अपने मधुर व्यवहार से बहुत घुल-मिल गया। उसकी हंसी लिंडा जैसी ही थी। अतः माँ-बाप को अपनी बेटी की स्मृति ताजी हो आई। विदा के समय वूडी अपना एक चित्र उन्हें दे आया। लिंडा की माँ को वैसे भी यह चेहरा परिचित लग रहा था।

इस घटना के छः माह बाद, एक दिन लिंडा के माता-पिता अपनी स्वर्गीय पुत्री की वस्तुएँ उलट-पुलट रहे थे। तभी उन्हें वह पोर्ट्रेट मिला, जिसे उनकी लाड़ली ने हाईस्कूल जीवन में बनाया था तथा अपनी कल्पना का राजकुमार कहा था। इंजीनियर-दंपत्ति विस्मय से उछल पड़े-’हे भगवान्! यह तो वूडी का ही चित्र है।” सचमुच वह पोर्ट्रेट वूडी के ही उस चित्र जैसा था, जो उस लड़के ने अपने आगमन के समय छः माह पहले उन दोनों को दिया था। इस प्रकार लिंडा की भविष्यकल्पना पूर्ण सत्य निकली।

समष्टि-मन अपने आप में एक इकाई है। हमारे साधारण विचार समय और पदार्थ में ढले-सिमटे रहते हैं। काल और देश के ढाँचों में होकर ही विचार स्पष्ट रूप ले पाते हैं और वही जानकारी जो दिक्−काल के खाकों में ढली हो, हमारे चेतन-मन को ग्राह्य होती है। किन्तु वस्तुतः समय और स्थान हमारे मस्तिष्क की हो कल्पना एवं रचना है। उनकी कोई निरपेक्ष स्थिति नहीं है। घटनाओं की सापेक्षता में ही दिक् और समय का महत्व उभरता है।

3 अगस्त को सुबह 5 से 6 तक हमने दर्शन-शास्त्र की कान्ट की पुस्तक पढ़ी। 16 जुलाई को संसद में दोपहर 2 बजे अमुक-अमुक ने बहस की। मई 78 में राजेन्द्र ने हाईस्कूल की परीक्षा दी। 11 नवम्बर 77 विनय के घर में सुबह तीन बजकर 55 मिनट पर बच्ची पैदा हुई-आदि-आदि प्रत्येक कथन किसी घटना से जुड़ा है। घटनाओं से परे समय को समझ पाना सचेतन मस्तिष्क के लिए दुष्कर है। जब व्यक्ति अपने आपको समय से ऊपर उठाकर देखता है, तो उसे मस्तिष्कीय चेतना ही दिखाई पड़ती है। यही बात मांडूक्य-कारिका में कही गई है-

“चित्तकाला हि येऽन्तस्तु, द्वय कालाश्च ये बहिः। कल्पिता एवं ते सर्वे विशेषो नान्यहेतुकः॥” (2914)

अर्थात्-यह विश्व वास्तव में चित्त की अनुभूति-सम्वेदना और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है। दृश्य जगत में इसके अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है।

अतः समष्टि मन से अपने को जोड़ देने पर चित्त की अनुभूति-क्षमता का क्षेत्र अनन्त तक विस्तृत हो जाता है और उस समय भूत-भविष्य की किसी भी घटना को प्रत्यक्ष जानना सहज सम्भव है।

सायास-सचेत रूप में अपने मन को समष्टि-मन से जोड़ने के लिए साधना करनी होती है। जो जिस स्तर तक उस समष्टि चित्त से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसकी भूत-भविष्य की दर्शन-क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है। इसी तथ्य को महर्षि पातंजलि ने योगदर्शन में इस प्रकार प्रतिपादित किया है-

“क्षण तत्क्रमयोः संयमाद् विवेकजं ज्ञानम्।” (3152)

अर्थात्-समय के अत्यंत छोटे टुकड़े क्षण के क्रम में चित्त-संयम करने से संसार की सही स्थिति का निरीक्षण किया जा सकता हैं।

कई बार व्यक्ति के अवचेतन मन का तार कुछ पलों के लिए समष्टि के प्रवाह से अनायास भी जुड़ जाता है। सामान्य लोगों में ऐसा किसी अनजान क्षण में ही घटित हो उठता है। उस क्षण में ही उन्हें भूत या भविष्य की प्रत्यक्ष झाँकी दिखाई पड़ जाती है, जिसे लोग चमत्कार मान बैठते हैं।

वस्तुतः इसमें चमत्कार जैसा कुछ है नहीं। मनुष्य के भीतर ऐसी विशिष्ट क्षमताएँ स्वाभाविक रूप में विद्यमान है, जिनका समुचित विकास कर वह काल की मानव-निर्मित सीमाओं को भेदकर अतीत-अनागत की प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त कर सकता है। योग-साधनाओं द्वारा यह विकास सहज रूप में हो जाता है और तब व्यक्ति को अपनी उस अनन्त विस्तृत आत्म-चेतना का बोध होता है, जिसे वह विस्मृत किये रहता है।

First 14 16 Last


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September 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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