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Magazine - Year 1979 - September 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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सतत शिक्षा का सिद्धान्त लागू किया जाय

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संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘शिक्षण एवं साँस्कृतिक संगठन-यूनेस्को-ने शिक्षण प्रक्रिया को आजीवन चालू रखने आवश्यकता पर बल दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के शिक्षा-सम्बन्धी प्रस्ताव में भी इसी आशय की बात कही गई है तथा ऐसी विश्व-व्यवस्था बनाने का आग्रह किया गया है। कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति ज्ञान की एक शाखा से दूसरी शाखा में सरलता से आ जा सके और ज्ञान के फल को अधिकाधिक चख सके तथा जीवन का आनन्द प्राप्त करता रह सके। अमरीका, फ्राँस, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी जैसे उन्नत देशों में ऐसी व्यवस्था भी है।

अमेरिका में शिक्षा की इस प्रक्रिया को निरन्तर चालू रहने वाली शिक्षा’ कहकर पुकारा जाता है। सरकारी योजनाओं में उसका उल्लेख इसी नाम से रहता है। शिक्षा विभाग का यह बहुत बड़ा कार्य है। कम से कम 300 कालेजों और विश्वविद्यालयों में इस शिक्षा की व्यवस्था है। इसके अंतर्गत छोटे-बड़े अनेक पाठ्यक्रम निर्धारित है। सेन्ट लुई विश्वविद्यालय द्वारा 80 पाठ्यक्रम चलाये जाते है, जिनमें एक ‘आज की दुनिया में मनुष्य और ईश्वर का तालमेल जैसा विषय भी सम्मिलित हैं वाशिंगटन विश्वविद्यालय, सेन्ट ‘लई-मिसूरी में उन लोगों की शिक्षा व्यवस्था भी है। जो अनिश्चित आजीविका वाले श्रमिक हैं। ऐसे लोग वहाँ शिक्षा भी प्राप्त करते है और अपनी मजदूरी भी करते हैं।

फ्लोरिडा विश्वविद्यालय ने ऐसे पाठ्यक्रम अधिक अपनाये हैं जिनके सहारे मनुष्य अधिक विनोदी बन सके और हँसता-हँसता रह सकें। इनमें एक जादूगरी, संगीत, नृत्य, अभिनय एवं विदूषक के पाठ्यक्रम भी सम्मिलित हैं।

केलोग, मिशिगन, जौर्जिया, ओक्ला, हीमा, नेंब्रास्का, न्हूहैम्पशर, इलिनोये, इण्डियाना विश्वविद्यालयों ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के लिये, दूर-दूर से आने वालों के लिये छात्रावास भी बनाये हैं। इस कार्यक्रम के अंतर्गत जनता की बढ़ती हुई माँग पूरा करने के प्रति प्रायः प्रति वर्ष नये कम्यूनिटी कॉलेजों की स्थापना होते चलने का सिलसिला बँध गया है। संभवतः यह संख्या अगले दिनों और भी तेज करनी पड़ेगी।

वाल्टीमोर, मैरीलेण्ड के कम्यूनिटी कॉलेज ने अधिक आयु के लोगों को अधिक प्रोत्साहन देने की दृष्टि से यह नियम बनाया है कि 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को प्राथमिकता दी जायेगी और उन्हें शिक्षा शुल्क न देना पड़ेगा। कुछ ऐसे भी स्कूल हैं जो केवल छुट्टियों के दिनों में ही खुलते हैं ताकि अधिक व्यस्त रहने वाले लोग उन्हीं सुविधा के दिनों में कुछ न कुछ सिख सकें। सरकार और व्यापारिक संस्थाओं द्वारा यह परामर्श दिया जाता रहा है कि किस उद्योग में मन्दी आने से श्रमिकों की छटनी करनी पड़ेगी और किस धन्धे का विकास होने से उनमें नई भर्ती की जरूरत पड़ेगी। शिक्षित उद्योगों के श्रमिक समय से पूर्व शिक्षा प्राप्त करके नये उद्योगों के लिए उपयुक्त बन सकें और उनका स्थानान्तरण करके ही सुविधाजनक पग उठा लिये जाय इसके लिये उन क्षेत्रों में नये-नये पाठ्यक्रम चालू कर दिये जाते है। इससे छटनी और भर्ती का सहज सन्तुलन बन जाता है और किसी प्रकार की उखाड़ पछाड़ नहीं करनी पड़ती।

महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न लोगों का नवीनतम ज्ञान से लाभान्वित करने के लिए कई पाठ्यक्रम चलाये जाते है। जैसे अमेरिकन ला इन्स्टीट्यूट जो वकीलों को कानूनी दावपेचों सम्बन्धी उच्च न्यायालयों द्वारा दी गई टिप्पणियों और राज्य सरकारों द्वारा किये गये परिवर्तनों का सम्पूर्ण विवरण जल्दी से जल्दी पहुँचा देता है और किसी वकील को उसकी तलाश के लिए अलग से माथा पच्ची नहीं करनी पड़ती। इसी प्रकार उस देश की मेडीकल एसोसियेशन ने अपने 140,000 सदस्यों को नवीन तथ्य शोध निष्कर्षों से अवगत करते रहने के लिए 67 क्षेत्रीय केन्द्र संस्थानों की स्थापना की है। कुछ विद्यालयों ने अपने पाठ्यक्रमों की फिल्में बना ली है और वे शिक्षार्थियों की बस्तियों में ले जाकर उन्हें दिखाते है ताकि छात्रों को विद्यालयों तक आने-जाने के समय और पैसा खर्च न करना पड़े।

सरकारी शिक्षा तन्त्र, लोक सेवी संस्थायें तथा व्यापारिक आधार पर चलाये गये प्रतिष्ठान, इन तीनों क सम्मिलित प्रयासों में ऐसा तालमेल रहता है कि हर क्षेत्र और हर वर्ग की आवश्यकता पूरी होती रहे और उनमें अनावश्यक प्रतिद्वन्दिता पैदा न होने पाये। 70 वर्षीय ब्रण्डेज ने प्रौढ़ शिक्षा को अर्थ उपार्जन का माध्यम बनाया है और वे उसमें पूरी सफल हुए है, इनके पाँच दर्ज पाठ्यक्रमों में वक्तृत्व कला से लेकर यौन शिक्षा तक की लोक रुचि की जानकारियाँ सम्मिलित है।

सतत शिक्षण की यह प्रक्रिया अत्यन्त आवश्यक है। किसी आयु-’वर्ग या समय-सीमा में शिक्षा का बाँध देना तो शिक्षा की आवश्यकता और महत्व का अवमूल्यन है। सतत शिक्षण-प्रक्रिया विज्ञान के क्षेत्र में तो इसलिए भी आवश्यक है कि नये अनुसन्धानों के कारण पुराने तथ्य पिछड़ जाते है और नवीन शोधों से लाभ उठाने के लिए नये निष्कर्ष आवश्यक होते हैं। खेल, नृत्य, पर्यटन,संगीत व सामान्य ज्ञान के सम्बन्ध में भी सर्वसाधारण को गहरी रुचि है। स्त्रियाँ दाम्पत्य-जीवन के हास-विलास, पेश-विन्यास, शिशुपालन आदि विषयों के ऊँचे, अधिक ऊँचे कोर्स पूरे करती रहती है।

अमरीका में न्यू आर्लियन्स (लुईजियैना) के अवकाश प्राप्त नाविक 81 वर्षीय लोकस टकरे ने दर्शन शास्त्र की आरम्भिक कक्षा में अपना नाम लिखवाया। इस प्रकार के कदम उठाना भारत में आश्चर्यजनक माना जाता है क्योंकि यहाँ बड़ी उम्र में स्कूली शिक्षा प्राप्त करने का प्रचलन नहीं है, पर अमेरिका में ऐसी बात नहीं है। वहाँ यह एक बिलकुल सामान्य बात है। छोटी उम्र के लड़के भी खेल-कूद पसन्द करते है और बड़ी उम्र वालों को भी इसमें रुचि रखने पर कोई रोक नहीं है। ठीक उसी प्रकार क्या बड़ी उम्र क्या छोटी उम्र इसमें नियमित रूप से विद्या पढ़ने में कोई अन्तर नहीं आता।

पौष्टिक भोजन हर आयु के लिए आवश्यक है। स्वच्छ हवा बच्चों से लेकर बड़ों तक का स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए जरूरी है। स्वस्थ मनोरंजन और निश्चिन्तता प्रफुल्लता सभी आयु वर्ग वालों के लिए आवश्यक और उपयोगी है। उसी प्रकार शिक्षा या ज्ञान भी व्यक्ति मात्र की आवश्यकता है उसके लिए आयु, स्थिति और वय का कोई बन्धक-प्रतिबन्धक नहीं है। रहा प्रश्न उसे प्राप्त करने की आयु का तो वह भी निरा संकोच है, अन्यथा ऐसा कोई कारण नहीं है कि उसे केवल बच्चों की बात ही समझा जाय और बड़ों के लिए उसकी कोई आवश्यकता वही रहे या बचपन गुर्जर जाने के बाद जिसे प्राप्त नहीं किया जा सकें।

वयस्क और प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षा का महत्व समझाया जाना चाहिए और उन्हें ऐसे शिक्षण-पाठ्यक्रम सुलभ कराए जाने चाहिए, जिनमें उनके जीवन में तात्कालिक लाभ स्पष्ट दिखाई पड़े।

प्रौढ़ व्यक्तियों के शिक्षा के प्रति अनुत्साह इसलिए भी देखा जाता है कि उन्हें समय न मिलने साधन उपलब्ध न होने की शिकायतें रहती हैं। वस्तुतः तो ये कोई बड़े कारण नहीं है। जब हम ढेरों समय गपबाजी के लिए निकाल लेते हैं, अपना बहुत-सा समय और बहुत-सा पैसा अनावश्यक कार्यों में खर्च कर देते हैं तो कोई कारण नहीं है कि शिक्षा के लिए समय तथा साधनों का अभाव हो। अत्यन्त आवश्यक कार्य दूसरे जरूरी कामों को छोड़कर भी किये जाते हैं। अपना कोई प्रिय स्वजन किसी दुर्घटना का शिकार हो गय हो तो सारे काम एक ओर छोड़कर उसे देखने के लिए जाया जाता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या उत्पन्न हो गई हो तो उसके लिए सभी काम एक ओर रख दिये जाते हैं। आशय यह है कि आवश्यक और उपयोगी समझे जाने वाले कार्यों के लिए समय तथा साधनों की कमी कभी बाधक नहीं बनती। यह कठिनाई उत्पन्न तब होती है जब लगता हो कि कोई व्यर्थ का कार्य करने के लिए कहा जा रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो शिक्षा का महत्व न समझने के कारण ही प्रौढ़ व्यक्ति समय न मिलने तथा साधन उपलब्ध न होने का बहाना करते है।

शिक्षा कोई खिलौना नहीं। बचपन से ही याद शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाय तो अच्छा ही रहता। परन्तु वह अवसर निकल गया तो शिक्षा इतने कम महत्व की वस्तु नहीं है कि उसे प्राप्त करने के लिए बाद में कोई प्रयत्न न किये जाय। बचपन में खिलौनों से नहीं खेला जा सका तो भी बड़ी उमर में उनकी कोई आवश्यकता नहीं रहती है। परन्तु बचपन में यदि अच्छा स्वास्थ्य नहीं बनाया जा सका तो सारी उमर ही बीमार रहकर सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता। यह बहाना कोई नहीं करता कि क्या करें साहब अब तो स्वास्थ्य बनाने की उमर ही जाती रही। अब जैसा है वैसा ही स्वास्थ्य रहने दिया जाय। पहलवान बनने के लिए अच्छा होता यदि बचपन से ही दण्ड बैठक लगाई जाती। परन्तु ऐसा नहीं हो सका और बाद में किसी को पहलवानी का चस्का लगा तो वह उसी आयु में दण्ड बैठक और व्यायाम शुरू कर देता है। प्रश्न आयु या स्थिति का नहीं है। प्रश्न इस बात का है कि शिक्षा के प्रति आम आदमी का क्या दृष्टिकोण है और उसमें कौन से ऐसे परिवर्तन किये जाने चाहिए जिससे कि वह शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रवृत्त हो उठे।

सर्वसाधारण में-जिनमें अशिक्षितों की संख्या ही अधिक है शिक्षा के प्रति यही धारणा बनी हुई है कि वह बच्चों के लिए एक ऐसा काम है जिनमें बच्चों इधर उधर मारे-मारे फिरने की अपेक्षा एक स्थान पर बैठे और बँधे रह सके। इसका मूल कारण शिक्षा का मौजूदा सड़ा स्वरूप है।

शिक्षा के प्रयोजन को अभी हमारे यहाँ ठीक से समझा ही नहीं गया है। शासक वर्ग और प्रबुद्ध व्यक्ति भी उसे पर्याप्त महत्व नहीं देते। जो भी समस्यायें हमारी दिमागी जड़ता और मानसिक पिछड़ेपन से सम्बद्ध हैं, उनका उन्मूलन शिक्षा के व्यापक कार्यक्रम द्वारा ही किया जा सकता है। जाति प्रथा, मद्यपान, छुआछूत, साम्प्रदायिकता वगैरह बुराइयाँ हमारी दिमागी, गुलामी और रूढ़िवादिता के बड़े गवाह हैं, बल्कि उन्हीं की उपज हैं। इनको सिर्फ कानून बनाकर नहीं खत्म किया जा सकता। कानून एक सीमा तक मदद जरूर कर सकता है। इसमें ज्यादातर काम मानसिक प्रशिक्षण द्वारा करना है। यह काम प्रौढ़ शिक्षा द्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि हमारे देशवासियों का दिमागी पुनरुत्थान किया जाए, उन्हें बताया जाए कि उनके देश की तरक्की किन कारणों से रुकी हुई है, परिस्थितियों में वाँछित सुधार कैसे लाया जा सकता है। तभी हम इन सामाजिक बुराईयों के खिलाफ जोरदार अभियान शुरू कर सकते है।

शिक्षा को बच्चों तक तथा उसकी उपयोगिता को आजीविका तक सीमित करने से ही इस देश में व्यापक जागृति की सम्भावनाएँ बहुत कुछ सिमट गई है। शिक्षा के विस्तार के बिना प्रबल जन-जागृति असम्भव है।

भारत में विश्व की जनसंख्या का छठवाँ भाग बसता है। शिक्षण-प्रशिक्षण के ओर समुचित नियोजन के अभाव में इतनी विपुल जनशक्ति निताँत सामान्य आवश्यकताएँ तक नहीं जुटा पा रही, विकास और प्रगति के नये क्षितिजों को छूना तो भिन्न बात है। अज्ञान और अशिक्षा के इस भयानक घातक अन्धकार को दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा और सतत शिक्षा का व्यापक क्रम चलाना जाना चाहिए। सतत शिक्षा और वयस्क अथवा प्रौढ़ शिक्षा के सिद्धाँत को अमल में लाने का यह वृहत् कार्यक्रम अकेले सरकार के भरोसे छोड़ देना अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ना है। सामाजिक उत्कर्ष की आकाँक्षा रखने वाले सभी प्रबुद्ध लोगों को अपने-अपने स्तर पर इस हेतु प्रयास करना चाहिए।

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September 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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