
आवरण बन्धनों का विस्फोट
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अणु का विभु के प्रति समर्पण इसी को विस्फोट कहते है। रज घटक जब तक अपने सीमित कलेवर में आबद्ध रहता है तब तक उसकी स्थिति पददलित धूलि जितनी नगण्य और उपहासास्पद बनी रहती है, किन्तु जब हव विराट् से मिलने के लिए आतुर हो उठता है और अपने परम्परागत आवरण को तोड़ने का साहस जुटाता है तो प्रयास को विस्फोट के रूप में आश्चर्यचकित होकर देखा जाता है। उससे निकलने वाले विकिरण का प्रभाव कितना गहरा, कितना व्यापक और कितना चिरस्थायी होता है। इसे सभी जानते है।
उत्तंग शिखर पर जमी हुई हिम कलेवर जब असीमता से असन्तुष्ट होकर लोक-साधना की बात सोचता है तो उसे अपनी काया गलानी पड़ती है। उसकी यह करुण सम्वेदना गंगोत्री से फूटती है। उसका प्रयाण प्यासी भूमि को सींचने और प्राणियों की प्यास बुझाने का होता है। इसी का गंगावतरण कहते है। उसके सभी सहायकों को श्रेय प्राप्त होता है। द्रवित हिम खण्ड धन्य बनते हैं और देवता की तरह अभ्यर्थना प्राप्त करते है। अपने वैभव को सार्थक बनाने के अतिरिक्त चरमविकास के लक्ष्य तक पहुँचकर महान समुद्र बनते है। धरती की हरितमा समुद्र पर ही निर्भर है। हिम खण्ड की उदार साहसिकता पर कृपणों को कुड़कुड़ाने और बहुत कुछ कहने की (गुंजाइश) है, पर बुद्धिमत्ता बताती है कि समीपता छोड़कर असीमता के साथ जुड़ जाने में हानि कम और लाभ अधिक है।
आत्मा सीमित है। संकीर्ण स्वार्थपरता की बेड़ियां ही भव बन्धन उठती है उसी का नाम भक्ति है। भक्ति को भाव से कर्म में उतारने का नाम ही साधना है। साधना कृत्य नहीं दुस्साहस है। उसमें बन्धनों को तोड़ने और महान से मिलने की ललक ही महान भूमिका सम्पादित करती है, सिद्धि के लक्ष्य, तक पहुँचाती है।