• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • शांतिकुंज में दो महत्वपूर्ण सत्रों की श्रृंखला
    • आवरण बन्धनों का विस्फोट
    • ज्ञान शक्ति की गौरव गरिमा
    • स्रोत अंदर है, बाहर नहीं
    • आत्म-ज्ञान मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि
    • संयम बरतें-स्वस्थ रहें
    • अनन्त ईश्वर की समीपता से अनन्त सामर्थ्य की प्राप्ति
    • तद् धनं ह्यति दुःखार्थम्
    • ईश्वरीय अनुग्रह सबके लिए सहज सुगम
    • गतिशील-जीवन प्रवाह
    • चलो! मरण त्यौहार मनायें
    • कल्पना और सत्य मात्र संयोग या तथ्य
    • कृतज्ञता का पाठ न भूलें
    • प्रकृति के विचित्र नियम अबूझ पहेलियां
    • भूत व भविष्य दोनों को वर्तमान में देखा जाना जा सकता है!
    • एक सूत्र में पिरोदिया (kahani)
    • पशु-पक्षी भी संवेदना शून्य नहीं
    • विनाश की विभीषिकाएँ और सृजन की सम्भावनाएँ
    • मृत्यु को सामने रख कर चलें
    • स्काईलैब तो मर गया पर प्रेत शान्ति अभी भी शेष है
    • अभ्यास ही आवश्यक (kahani)
    • स्वाध्याय करें भी, करायें भी
    • कोई नहीं भी जानते (kahani)
    • संगीत मात्र मनोरंजन के लिये ही नहीं
    • धनोपार्जन की कला भी धर्मनिष्ठ बने
    • सतत शिक्षा का सिद्धान्त लागू किया जाय
    • रईस का सामान वापस मिल गया (kahani)
    • यह विष थोड़ा कम करें
    • अपनों से अपनी बात - युग परिवर्तन, प्रज्ञावतार, गायत्री शक्ति पीठ की श्रृंखला
    • शान्ति का अर्थात (kahani)
    • समर्पित फूल
    • समर्पित फूल (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • शांतिकुंज में दो महत्वपूर्ण सत्रों की श्रृंखला
    • आवरण बन्धनों का विस्फोट
    • ज्ञान शक्ति की गौरव गरिमा
    • स्रोत अंदर है, बाहर नहीं
    • आत्म-ज्ञान मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि
    • संयम बरतें-स्वस्थ रहें
    • अनन्त ईश्वर की समीपता से अनन्त सामर्थ्य की प्राप्ति
    • तद् धनं ह्यति दुःखार्थम्
    • ईश्वरीय अनुग्रह सबके लिए सहज सुगम
    • गतिशील-जीवन प्रवाह
    • चलो! मरण त्यौहार मनायें
    • कल्पना और सत्य मात्र संयोग या तथ्य
    • कृतज्ञता का पाठ न भूलें
    • प्रकृति के विचित्र नियम अबूझ पहेलियां
    • भूत व भविष्य दोनों को वर्तमान में देखा जाना जा सकता है!
    • एक सूत्र में पिरोदिया (kahani)
    • पशु-पक्षी भी संवेदना शून्य नहीं
    • विनाश की विभीषिकाएँ और सृजन की सम्भावनाएँ
    • मृत्यु को सामने रख कर चलें
    • स्काईलैब तो मर गया पर प्रेत शान्ति अभी भी शेष है
    • अभ्यास ही आवश्यक (kahani)
    • स्वाध्याय करें भी, करायें भी
    • कोई नहीं भी जानते (kahani)
    • संगीत मात्र मनोरंजन के लिये ही नहीं
    • धनोपार्जन की कला भी धर्मनिष्ठ बने
    • सतत शिक्षा का सिद्धान्त लागू किया जाय
    • रईस का सामान वापस मिल गया (kahani)
    • यह विष थोड़ा कम करें
    • अपनों से अपनी बात - युग परिवर्तन, प्रज्ञावतार, गायत्री शक्ति पीठ की श्रृंखला
    • शान्ति का अर्थात (kahani)
    • समर्पित फूल
    • समर्पित फूल (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1979 - September 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


आत्म-ज्ञान मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थी, मैत्रेयी और कात्यायनी। जब महर्षि ने संन्यास लेना चाहा, तब अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर कर कहा-हम अब संन्यास लेने वाले है तुम दोनों घर की सम्पूर्ण संपत्ति को आधा-आधा बाँट लो। यह सुनते ही मैत्रेयी बोल उठी देव! क्या इन धन सम्पदाओं को प्राप्त कर मैं अमर हो जाऊँगी? नहीं-याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया। जिस प्रकार धन-सम्पत्ति वालों का लोभ-मोह से भरा जीवन होता है देवि! उसी प्रकार का तुम्हारा भी जीवन हो सकेगा। तब तो ऐसे धन की हमें आवश्यकता नहीं- मैत्रेयी ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा। पुनः निवेदन किया कि-देव हमें तो अमरत्व का साधन बाताइये। हमें धन-संपदा नहीं चाहिए।

मैत्रेयी के बार-बार आग्रह करने पर महर्षि को विवशतः अमरत्व का साधन-आत्म-कल्याण का साधन बताना ही पड़ा। उनने सूत्र रूप में कहा-

आत्मा वाऽऽदे मैत्रेयि! द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निविध्यासितव्यश्च। आत्मानः खलु दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति। (वृहदारण्यकोनिषद)

है मैत्रेयी! आत्मा ही देखने योग्यताएं सुनने योग्य, मनन करने योग्य और अनुभव करने योग्य है। अपने आपको-आत्मा को-जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। यही अमरत्व का साधन है-यह आत्म- कल्याण का मार्ग है।

अपने को जान लेना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। गीताकार ने आत्मोत्कर्ष की गरिमा समझाते हुए कहा है-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ळयात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

अपनी आत्मा द्वारा अपना उद्धार करो, आत्मा को पतित न करो। आत्मा ही अपना बन्धु है और आत्मा ही अपना शत्रु है।

व्यक्ति को दुनिया की, विश्व ब्रह्माण्ड की यत्किंचित् जानकारी कितना सन्तोष प्रदान करती है। जान पहचान के लोगों से मिलने पर कितनी प्रसन्नता होगी है, कदा-चित् अपने को पहचाना जा सके-आत्मा को जाना जा सके-तो कितने महान् आनन्द की प्राप्ति हो। उपनिषद्- कार के शब्दों में अपने आपको जान लेने वाले को ही सर्वोपरि सुख की प्राप्ति होती है-

तमात्मस्थं येनुपश्यन्ति धीराः तेषा सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥ कठोपनिषद् 2।2।12

उस अपने में स्थित आत्मा को जो विवेकी पुरुष देख लेते हैं -जान लेते है-उन्हीं को नित्य सुख प्राप्त होता है, अन्यों को नहीं।

अपनी आत्मा को जान लेने पर भवबन्धनों से मुक्ति हो जाती है-

न मुक्तिर्जपनाद्धोमादुपवास शतैरपित। ब्रळमैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति जीवभृत॥

जप, हवन, तथा सैकड़ों उपवास से भी मुक्ति नहीं मिल पाती, आत्मज्ञान, हो जाने पर जीव और ब्रह्म की एकता, की अनुभूति होने पर आत्मा मुक्त हो जाती है।

अनाद्यनन्त महतः परं ध्रुवं, निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते। कठो.1।3।15

उस अनादि अनन्त, महत्तत्व (बुद्धि) से परे तथा ध्रुव (निश्चल) आत्मा को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छुट जाता है।

महान्त विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति। कठो.2।1।4

उस महान और विभु (सर्वसमर्थ) आत्मा को जान कर बुद्धिमान पुरुष शोकाकुल नहीं होता।

इस प्रकार अनेकानेक श्रुतिवचनों द्वारा आत्मज्ञान की गरिमा को प्रतिपादित कर उसे प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई है। व्यक्ति को जिसमें अपना लाभ दिखाई पड़ता है, उस कार्य को बड़े परिश्रम, मनोयोग व प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न करता है। यदि आत्मज्ञान के लाभों को जाना जा सके तथा इसे प्राप्त करने का प्रयास किया जा सके तो व्यक्ति धन्य हो जायेगा।

आत्म ज्ञान का तात्पर्य अपने को जानने से है। मैं कौन हूँ? किस लिए हूँ कहाँ से आया हूँ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तरज्ञान कहा जायेगा। इसी प्रकार की प्रबल जिज्ञासा एक बार देवराज इन्द्र और दैत्यराज विरोचन को हुई। दोनों एक साथ प्रजा-पति के पास गये ओर विनम्रतापूर्वक अपना प्रश्न उनके सामने रखा। प्रजापति ने एक बड़े पात्र में पानी मँगवा कर उसमें अपना-अपना शरीर, मुख देखने का कहाँ और बताया-यही तुम हो-यही तुम्हारा स्वरूप है। वस्तुतः प्रजापति ने दोनों की विवेकबुद्धि का अन्दाज लगाने के लिए ऐसा किया था। क्या इनमें आत्मा को जानने की उत्कट अभिलाषा है? आत्मा को पहचान सकने की क्षमता है? इसका पता लगाने के लिए ऐसा किया था। विरोचन तो जल में अपनी आकृति देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला मैंने तो अपने को जान लिया ऐसा कहता हुआ, अपने घर चला गया, वहाँ सभी को इसी प्रकार दर्पण में खूब सज-धज कर अपने स्वरूप को देखने और प्रसन्न होने का कहा।

लेकिन इन्द्र को इतने भर से सन्तोष न हो सका, वे पुनः प्रजापति के पास जाकर बोले-

‘‘..........................-नाहपात्र भोग्यं पश्यामि।’’

मैं तो इसमें कोई भलाई, लाभ, नहीं देखता। जब शरीर ही आत्मा को भी यह सब दुःख, कष्ट, प्रसन्नता के साथ आत्मा को भी यह सब अनुभव होता होगा और शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती होगी।

इन्द्र की यह शंका सही थी। जिज्ञासा से प्रसन्न होकर प्रजापति ने आगे की बात बताते हुए कहा-आत्मा परमात्मा का ही अंश है-उसी का लघु रूप है। परमात्मा की समस्त विशेषताएँ इसमें विद्यमान है। शरीर के नष्ट होने पर भी इसका विनाश नहीं होता। तुम वही तो-तत् त्वम् असि।

व्यक्ति जब अपने को ईश्वर का परम पवित्र अविनाशी अंश समझता है, आत्मा के रूप में अनुभव करता है और शरीर को एक उपकरण भी स्वीकारता है, तब वही दीन-दीन स्थिति से ऊपर उठकर, उन कार्यों को ही करता है, जो उसके गौरव के अनुरूप होते हैं-आत्म-संतोष प्रदान करते हैं।

आत्मा के इस स्वरूप को जानने की एक लम्बी प्रक्रिया है। आत्म-बोध, आत्म परिष्कार, आत्म -निर्माण और आत्म-विकास की लम्बी मंजिल पार करके ही आत्मा के सही स्वरूप का अनुभव किया जा सकता है।

सर्वप्रथम अपने को शरीर से भिन्न होने की धारणा को पुष्ट करना पड़ता है। हम दूसरे हैं और हमारा साध्य नहीं। हम अपनी सारी शक्ति शरीर को ही सुख पहुँचाने में न झोंक दें। शरीर से भिन्न भी कुछ है- वही मैं है। इस प्रकार का बोध हो जाने पर अपने द्वारा किये जाने वाले ओछे कार्यों को छोड़ना पड़ता है। यहीं से आत्म-परिष्कार आरम्भ होता है।

दोष-दुर्गुणों के दूर हो जाने पर उनके स्थान पर सद्गुणों-श्रेष्ठताओं का समावेश करना आवश्यक होता है। कषाय-कल्मषों से रहित होने पर शुद्ध अन्त-करण में श्रेष्ठ-सद्गुणों की अभिवृद्धि होने लगती है। सही आत्म-निर्माण है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्ट स्तर के चिन्तन एवं कर्तृत्व को स्थान देना आत्मज्ञान का तृतीय चरण है।

इसके उपरान्त आत्मविकास आता है। अपने ही समान सभी प्राणियों को, जीव, जन्तुओं को, समझाना ही आत्म-विकास है। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ का सही आदर्श है।

किन्तु ‘आत्मज्ञान’ की लक्ष्य प्राप्ति इतनी सुगम नहीं होती अनेकानेक विघ्न बाधाएँ चुनौती बनकर साधक के समक्ष आ खड़ी होती है। बिना परीक्षा के तो सामान्य कार्य की दक्षता भी प्रमाणित नहीं हो पाती, तो इतने महान लक्ष्य की कौन कहे? काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-यह छः दोष, छः बाधक तत्व, आत्मिक प्रगति के मार्ग में अवरोधक बन कर आड़े आ जाते हैं-

तप्प्रत्यूहाः षडाख्याता योगविघ्न करानघ। काम क्रोधौ, लोभमोहौ, मदमार्त्सय संज्ञकौ॥ -देवी भागवत

‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, पद और मात्सर्य-यह छः योग मार्ग के -आत्मिक उन्नति के शत्रु है, जो इस कार्य में विघ्न डाला करते हैं।

आत्म-साधना के अधिकाँशतः साधक इन बाधकों द्वारा विचलित कर दिये जाते हैं। काम-क्रोध की लिप्सा में फंसकर अपनी साधन-सम्पत्ति को गवाँ बैठते हैं। इस स्थिति को संभालना बहुत आवश्यक होता है। आत्म-लाभ की फसल की रखवाली, काम क्रोधादि पक्षियों से इन्हीं दिनों करनी पड़ती है। इन बाधक तत्वों से बच निकलता बड़े पुरुषार्थ की बात होती है। इसी स्थिति को ‘साधना-समर’ कहा गया है।

आत्मज्ञान की प्राप्ति सर्वोपरि उपलब्धि है। ‘अपने आपको जान लेने वाला पुनः कुपथगामी नहीं होता है, फलतः दुष्कर्म अन्य दुष्परिणामों को, उसे नहीं भुगतना पड़ता। वह परमात्मा की ही तरह निर्विकार और शुद्ध हो जाता है-

‘यदा तु शुद्ध निजरुपि सर्व कामक्षये ज्ञान-मपस्तदोषाम्।’-विष्णु पुराण

‘आत्मज्ञान प्राप्त होने पर मानव निर्दोष हो जाता है, तथा सभी कर्मों के क्षय हो जाने से अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान लेता है।’ इस समय व्यक्ति अपने पराये में कोई भेद नहीं देखता है, क्योंकि अपने और पराये का भेद तो संकीर्णता की स्थिति में ही रहता है। संकीर्णता से ऊपर उठने वाले को ही आत्म-लाभ हो पाता है। उस समय सम्पूर्ण संसार को ही वह अपना परिवार मानने लगता है-

‘अयं निजः परोषेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचारितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

‘यह हमारा है यह दूसरे का है-ऐसा विचार क्षुद्र हृदय वाले-संकीर्ण-विचारों वाले करते हैं, उदार चेता-आत्मज्ञानी-तो सम्पूर्ण विश्व को ही अपना परिवार समझते हैं।

इसके अतिरिक्त आत्मज्ञान हो जाने पर-अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेने पर-व्यक्ति परमात्म-शक्तियों से ओत-प्रोत हो जाता है। ‘आत्मज्ञान’ हो जाने पर ‘ब्रह्माण्ड ज्ञान’ भी हो जाता है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में तात्विक अन्तर कुछ भी नहीं है’ अन्तर है तो केवल स्वरूप का। इसलिए पिण्ड (आत्मा) को जानने वाला ‘ब्रह्माण्ड को भी जान लेता है-

ब्रहमाप्डे ये गुणाः सन्ति पिण्डमध्ये च ते स्थिताः।

ब्रह्माण्ड में जो गुण है, वे पिण्ड में भी विद्यमान हैं। ‘आत्मज्ञान’ के महान् लाभ से लाभान्वित होना ही सर्वोपरि बुद्धिमत्ता है। उसी में जीवन की सार्थकता है।

First 4 6 Last


Other Version of this book



September 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • शांतिकुंज में दो महत्वपूर्ण सत्रों की श्रृंखला
  • आवरण बन्धनों का विस्फोट
  • ज्ञान शक्ति की गौरव गरिमा
  • स्रोत अंदर है, बाहर नहीं
  • आत्म-ज्ञान मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि
  • संयम बरतें-स्वस्थ रहें
  • अनन्त ईश्वर की समीपता से अनन्त सामर्थ्य की प्राप्ति
  • तद् धनं ह्यति दुःखार्थम्
  • ईश्वरीय अनुग्रह सबके लिए सहज सुगम
  • गतिशील-जीवन प्रवाह
  • चलो! मरण त्यौहार मनायें
  • कल्पना और सत्य मात्र संयोग या तथ्य
  • कृतज्ञता का पाठ न भूलें
  • प्रकृति के विचित्र नियम अबूझ पहेलियां
  • भूत व भविष्य दोनों को वर्तमान में देखा जाना जा सकता है!
  • एक सूत्र में पिरोदिया (kahani)
  • पशु-पक्षी भी संवेदना शून्य नहीं
  • विनाश की विभीषिकाएँ और सृजन की सम्भावनाएँ
  • मृत्यु को सामने रख कर चलें
  • स्काईलैब तो मर गया पर प्रेत शान्ति अभी भी शेष है
  • अभ्यास ही आवश्यक (kahani)
  • स्वाध्याय करें भी, करायें भी
  • कोई नहीं भी जानते (kahani)
  • संगीत मात्र मनोरंजन के लिये ही नहीं
  • धनोपार्जन की कला भी धर्मनिष्ठ बने
  • सतत शिक्षा का सिद्धान्त लागू किया जाय
  • रईस का सामान वापस मिल गया (kahani)
  • यह विष थोड़ा कम करें
  • अपनों से अपनी बात - युग परिवर्तन, प्रज्ञावतार, गायत्री शक्ति पीठ की श्रृंखला
  • शान्ति का अर्थात (kahani)
  • समर्पित फूल
  • समर्पित फूल (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj