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Magazine - Year 1981 - Version 2

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विराट् जगत में मनुष्य की हस्ती ही क्या है?

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व्यक्ति अपने संबंध में न जाने किन-किन भ्रान्तियों और अतिरंजित मान्यताओं की कल्पना किये रहता है। इस तरह की मान्यताओं और धारणाओं के पीछे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ, सबसे सही, सबसे प्रामाणिक और सबसे ऊंचा मानने का मिथ्याभिमान ही है। कोई व्यक्ति अपने संबंध में क्या धारणाएं रखता है और उनके संदर्भ में दूसरों से क्या अपेक्षा रखता है? यही उसे सुखी अथवा दुखी बनाता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति अपने को सर्वाधिक योग्य समझता है तो स्वाभाविक ही उसकी यह आकाँक्षा रहती है कि दूसरे लोग उसकी योग्यता का लोहा मानें और उसे सम्मान दें। अपनी योग्यता और क्षमता का गुमान अथवा मिथ्याभिमान कुछ अधिक ही अपेक्षाएं करने लगता है और जब वे अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो दुखी, क्लान्त तथा उदास होता है।

इस तरह की मनःस्थिति को बड़े-चढ़े अहं के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। अहंकार का एक रूप यह भी है कि व्यक्ति परिस्थितियों और संसार के घटना-क्रमों में अपने को केन्द्र मानकर उनकी समीक्षा करता है। कोई घटना या परिस्थिति मन को खिन्न करने वाली है तो यह संसार नर्क, नीच और निकृष्ट है तथा अनुकूल है तो स्वर्ग, श्रेष्ठ और महान है। वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं होता। परिस्थितियाँ, जिन्हें प्रवाह कहा जा सकता है और जो अपने ढंग से बनती व बहती हैं किसी व्यक्ति विशेष को दृष्टिगत रखते हुए नहीं चलती। व्यक्ति का अपनी दृष्टि में कितना ही मूल्य क्यों न हो, पर विराट् जगत को देखते हुए उसका अस्तित्व समुद्र में एक बूँद के बराबर भी नहीं है।

इस पृथ्वी पर ही, जिस पर हम निवास करते हैं, हमारे जैसे चार अरब दूसरे लोग भी रहते हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त छोटे-बड़े कीड़े-मकोड़ों से लेकर विशालकाय प्राणियों की संख्या तो गिनी ही नहीं जा सकती। इतने विराट् प्राणी परिवार और उसके असंख्य सदस्यों में एक व्यक्ति या एक घटक का क्या अस्तित्व हो सकता है और क्या महत्व? ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति नितान्त मूल्यहीन और महत्वहीन है। लेकिन अपना मूल्याँकन समग्र जगत को दृष्टिगत रखते हुए करना चाहिए और उसी के अनुरूप परिस्थितियों की समीक्षा करनी चाहिए। यदि इतना किया जा सके तो इस संसार में सुखी रहने के असंख्य आधार हैं।

इस विराट् जगत के नियम और रहस्य समझ पाना अभी तक किसी के लिए सम्भव नहीं। इसलिए उन्हें अपने अनुकूल बनाने या स्वयं को उनके अनुरूप ढालने की बात ही नहीं सोची जा सकती। रास्ता एक ही है कि उपलब्ध परिस्थितियों में संतुष्ट रहा जाय तथा उन्नति के लिए शक्ति भर प्रयास किया जाय। अपने संबंध में बनाई गई धारणाओं और मान्यताओं में कितनी सच्चाई है, यह इस जगत् के विराट् स्वरूप को देखने, समझने के बाद स्पष्ट हो जाना चाहिए। जब इस विराट् जगत के वास्तविक स्वरूप को ही अभी नहीं समझा जा सका तो किस आधार पर उसमें अपना स्थान एवं अस्तित्व अपनी कल्पना के अनुरूप महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। इस विराट् जगत के संबंध में अब तक जो जानकारियाँ प्राप्त की जा सकी हैं, यद्यपि वे पूर्ण नहीं हैं फिर भी वे बहुत चमत्कारी, आश्चर्यजनक और अद्भुत हैं। उदाहरण के लिए जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, वही कम रहस्यों और चमत्कारों से भरी हुई नहीं है।

आदिकाल से मनुष्य पृथ्वी के रहस्यों को जानने के लिए प्रयत्न करता रहा है। उसने अपने इन प्रयत्नों में काफी सफलता भी प्राप्त की है फिर भी समुद्र की अथाह सम्पदा उसकी रहस्यमय गहराइयों के साथ अज्ञात, अगम्य बनी हुई है। समुद्र तो पूरी पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में फैला हुआ है। एक चौथाई पृथ्वी पर जहाँ आबादी और वृक्ष, वनस्पतियाँ हैं, वही अभी पूरी तरह मनुष्य के जानने में नहीं आई है। पृथ्वी ऊपर से जिस तरह की दिखाई देती है, अन्दर वैसी नहीं है। इसकी ऊपरी परत लगभग 40 मील मोटी है जिसमें मिट्टी, पत्थर, कोयला तथा अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ हैं। इस परत के नीचे भूरस नामक एक तरल परत है, जिस पर ऊपरी परत तैरती रहती है। यह पर्त पिघली हुई गरम चट्टानों की है। स्मरणीय है पृथ्वी आरंभ में सूर्य के समान आग का तपता हुआ गोला थी। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि कालान्तर में यह धीरे-धीरे ठण्डी होती गई और इसकी ऊपरी परत ठोस बनती गई। अभी ऊपरी परत ही जम कर कड़ी हो सकी है जो करीब 40 मील मोटी है। इसके नीचे आज भी गरम पिघली हुई तरल चट्टानें हैं। उससे भी नीचे वाला 700 मील मोटा भाग शिलावरण कहलाता है जिसके नीचे लोहे और पत्थर की मिलीजुली परतें हैं जो लगभग ग्यारह सौ मील मोटी हैं। पृथ्वी के ठीक मध्य में 43 सौ मील मोटा भू-गर्भ है, इसमें अनेक धातुएं पिघली हुई अवस्था में है। अभी इन परतों तक पहुँच पाना मनुष्य के लिए संभव नहीं हो सका है।

पृथ्वी के गोलाकार रूप को चादर की तरह फैलाया जाय तो वह 19 करोड़ 70 लाख वर्गमील स्थान घेरेगी अर्थात् पृथ्वी का क्षेत्रफल 1970 लाख वर्गमील है। इसमें 530 लाख वर्गमील जमीन और 1310 लाख वर्गमील समुद्र है। शेष भाग में झीलें और टापू हैं। पृथ्वी का ध्रुवीय व्यास 79 हजार मील तथा विषुवत् वृत्तीय व्यास 7927 वर्गमील है। इसकी परिधि 25 हजार मील है और वजन 660 खरब करोड़ टन है। अकेले पृथ्वी के संदर्भ में ही मनुष्य अपने अस्तित्व और अस्मिता का मूल्य आँके तो इतनी विशाल पृथ्वी पर उसका अस्तित्व कितना बड़ा सिद्ध हो सकता है? यह तो केवल पृथ्वी की ही बात हुई। पृथ्वी के वायुमण्डल से बाहर निकल कर खोज करने पर सर्वप्रथम चन्द्रमा के दर्शन होते हैं। चन्द्रमा पृथ्वी से करीब 240 हजार मील दूर स्थित है। इसका व्यास 2160 मील है। यद्यपि वहाँ जीवन का अस्तित्व तो नहीं है फिर भी पृथ्वी पर से दिखाई पड़ने वाले आकाश के विभिन्न तारकों में वह सबसे सुँदर दिखाई देता है।

अपने सौर-मण्डल के, सूर्य परिवार के ज्ञात सदस्यों की संख्या नौ है। पृथ्वी उनमें से एक है। इस तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि हमारी पृथ्वी के समान आकाश में और भी पृथ्वियाँ हैं, जिन्हें ग्रह कहते हैं। इन ग्रहों में बुध सूरज के सबसे पास है और यम सबसे दूर। यम आकार में अन्य सब ग्रहों से छोटा है। बुध और यम दोनों की स्थिति एक दूसरे से सर्वथा उलटी है। बुध सबसे ज्यादा गर्म है तो यम सबसे अधिक छोटा।

पृथ्वी का निकटतम ग्रह शुक्र है। यह हमारी धरती के पड़ौस में कुल 2 करोड़ 60 लाख मील दूर है। इतनी दूरी के बीच में अन्य कोई ग्रह नहीं आता इसलिए उसे ही अपना पड़ौसी ग्रह कहना पड़ेगा। पृथ्वी पर तो एक फर्लांग, एक मील को आठवें भाग की दूरी भी किसी घर को दूरवर्ती और अपरिचित बना देती है, परंतु अनन्त ब्रह्मांड के विस्तार को देखते हुए यह दूरी दो कदम दूर स्थित घर से भी कम कही जायेगी। इस ग्रह का व्यास 7700 मील माना गया है। पृथ्वी से सूर्य की यात्रा करने पर यही ग्रह सबसे समीप पड़ता है। चूँकि यह पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य के अधिक निकट है इस कारण वहाँ का वातावरण भी पृथ्वी से गर्म है। इतना गर्म कि पृथ्वी का कोई प्राणी वहाँ जाय तो जल कर भस्म हो जाय। इतनी गर्मी में वहाँ जीवन के अस्तित्व, की कोई सम्भावना नहीं समझी जाती।

मंगल, शुक्र के बाद समीप पड़ने वाला ग्रह है। यह पृथ्वी से सूर्य की उलटी दिशा में यात्रा करने पर आता है अर्थात् मंगल पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य से अधिक दूर है। सूर्य से इसकी दूरी 13 से 15 करोड़ मील है। यह पृथ्वी की अपेक्षा काफी ठण्डा है। इसका व्यास करीब 4225 मील है। अपने सौर परिवार में यदि सबसे बड़ा और वजनदार सदस्य है तो वह है- बृहस्पति। यह शेष आठों ग्रहों के सम्मिलित भार से भी अधिक भारी है। पृथ्वी से यह करीब 325 गुना वजनदार है तथा व्यास करीब ग्यारह गुना। इस ग्रह के चार उपग्रह हैं या कहा जा सकता है कि बृहस्पति के आकाश में चार चन्द्रमा उगते और चमकते हैं।

शनि सूर्य से 88 करोड़ 64 लाख मील दूर है करीब 29 वर्षों में सूर्य का एक चक्कर करता है। सुँदरता की दृष्टि से इसे सौर परिवार का सर्वाधिक सुँदर ग्रह कहा जा सकता है। शनि के बाद वारुणि अथवा यूरेनस आता है जो सूर्य से 178 करोड़ मील दूर स्थित है। इसका व्यास 32 हजार मील है। डेढ़ सौ वर्ष पहले तक तो वैज्ञानिकों को इसका अता-पता ही नहीं था। यह सूर्य की परिक्रमा 84 वर्षों में करता है। कहा जा सकता है कि वहाँ का एक वर्ष पृथ्वी के 84 वर्षों के बराबर होता है। यदि मनुष्य की आयु वारुणि के समयमान से समझना चाहें तो वारुणि पर रहने की दशा में आदमी जन्म लेने के वर्ष भर बाद ही बूढ़ा होकर मर जाता है। इस ग्रह के पाँच चन्द्रमा हैं। वारुणि के बाद वैज्ञानिकों को वरुण ग्रह दिखाई दिया जो सूर्य से 279 करोड़ मील दूर है। वहाँ यदि मनुष्य को जीना पड़े तो शायद छह महीने में ही वह बूढ़ा होकर मर जाय, क्योंकि पृथ्वी के मान से वह 165 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा लगाता है अर्थात् पृथ्वी के 165 वर्ष बराबर होते हैं वरुण के एक वर्ष के। वरुण के बाद अंतिम ज्ञात ग्रह वरुण है, जिसका पता सन् 1931 में लगा। अनुमानतः इसका व्यास 4000 मील है और यह तीन सौ वर्ष में सूर्य की परिक्रमा करता है।

ऐसा नहीं है कि अपने इस सौर परिवार के केवल 9 सदस्य ही हों, हो सकता है और भी कोई ग्रह हों जिनका अभी तक पता नहीं चला हो। लेकिन यदि ग्रहों की संख्या मात्र नौ ही मानी जाय तो भी सूर्य के कुनबे में ग्रहों के अलावा अनेकानेक धूमकेतु हैं। जो ग्रहों के साथ-साथ में धूमकेतु भी सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। इन धूमकेतुओं में से कुछ तो पाँच वर्ष में ही सूर्य की परिक्रमा कर लेते हैं और कुछ को सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। इन पुच्छल तारों के अलावा अन्तरिक्ष में कई छोटी-छोटी उल्काएं भी घूमती रहती हैं। कई बार ये उल्काएं किसी ग्रह के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में आ जाती हैं और उनके धरातल पर जा गिरती हैं। इसे उल्कापात कहते हैं।

यह विराट् जगत, ब्रह्मांड इतना विस्तृत है कि इसके दो घटकों के बीच की दूरी नाप पाना सरल काम नहीं है, क्योंकि विभिन्न ग्रहों या सितारों के बीच इतनी दूरी होती है कि उसे संख्या में व्यक्त कर पाना अति दुष्कर है। इसलिए अन्तरिक्ष में दूरी मापने के लिए सरल तरीका अपनाया गया है और वह है प्रकाश वर्ष। प्रकाश एक सेकेंड 186 हजार मील चलता है। एक वर्ष में इस गति से प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उस दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहते हैं। दूसरे शब्दों में एक प्रकाश वर्ष करीब 5880 अरब मील के बराबर होता है। कोई ग्रह या तारा इतनी दूर पर स्थित है तो उसकी दूरी व्यक्त करने के लिए कहा जायेगा कि वह पृथ्वी से एक प्रकाश वर्ष दूर है।

ऐसा भी नहीं है कि आकाश में दिखाई देने वाले सभी तारे दो-चार या दस-पाँच प्रकाश वर्ष दूर हों। इनमें से कई तो सैकड़ों, हजारों और लाखों प्रकाश वर्ष दूर हैं। बहुत से तारे तो लाखों वर्ष पूर्व नष्ट हो चुके पर उनका प्रकाश अभी भी पृथ्वी पर दिखाई देता है।

अब अनुमान लगाया जा सकता है कि ब्रह्मांड कितना विराट् और विस्तृत है? अपना यह सौर मण्डल आकाश गंगा का एक नगण्य-सा घटक है। अपनी इस आकाश गंगा में लगभग एक खरब सूर्य हैं, जिनके पृथ्वी जैसे असंख्य ग्रह और उपग्रह इन सूर्यों अथवा तारों में से कई तो अपने सूर्य से अनेक गुना बड़े हैं। उदाहरण के लिए व्याध तारा सूर्य से 21 गुना बड़ा है। ज्येष्ठा नामक तारे में अपनी पृथ्वी के बराबर 700 खरब पृथ्वियाँ समा सकती हैं।

यह ब्रह्मांड कितना बड़ा और कितना फैला हुआ है? इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लेकिन यह सच है कि सारा ब्रह्मांड एक निश्चित नियम के अनुसार चला रहा है। उसके क्रिया−व्यापार की अपनी मर्यादाएं हैं। उन मर्यादाओं के आगे, उस विराट् के आगे मनुष्य की क्या बिसात? वह तो हाथी के सामने चींटी के बराबर की हस्ती भी नहीं रखता। स्थूल अर्थों में यही सच है कि मनुष्य इस सृष्टि का नगण्य, नगण्य भी नहीं, न कुछ हस्ती वाला घटक है। उसके अहं का आधार मिथ्या ही नहीं अपने आपके साथ प्रवंचनापूर्ण भी है।

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