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Magazine - Year 1981 - Version 2

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मानसिक असन्तुलन, स्वास्थ्य संकट का मूल कारण

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अमेरिका के मनःशास्त्री डा. जान ए. शिण्डलर ने अपनी पुस्तक “रुग्णता की गहराई” में लिखा है- “आहार विहार की अनियमितता से जितने रोग होते हैं उसकी तुलना में मानसिक असंतुलन के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों की संख्या कहीं अधिक है।”

शरीर की संरचना ऐसी है कि वह बाहरी हमलों, टूट-फूटों और प्रतिकूलताओं से जूझती और छुट-पुट गड़बड़ियों का मुकाबला करती रहे सके। अन्य प्राणियों को भी प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है और आघातों को सहने तथा कष्टकर स्थिति से होकर गुजरने के लिए विवश होना पड़ता है। इतने पर भी उनके शरीर गड़बड़ाते नहीं, पटरी बिठा लेते हैं और टूट-फूट को सम्भाल कर अपनी गाड़ी चलाते रहते हैं। चोटें तो लगती हैं, पर उनमें से किसी को बीमारियों के चंगुल में फंसकर कराहते रहने की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता।

मनुष्य ही है जो मानसिक असंतुलन उत्पन्न करता और उनके विक्षोभों के फलस्वरूप शरीर के विभिन्न अवयवों को सामान्य कार्य पद्धति में अवरोध उत्पन्न करता है। फलतः बीमारियाँ उसे आ घेरती हैं।

शरीर यात्रा में रक्त संचार का कितना ही महत्व क्यों न हो वस्तुतः उसका नियंत्रण केन्द्र मस्तिष्क में रहता है। हृदय पोषण देता है यही सही है, पर उसमें प्रोत्साहन एवं नियमन की क्षमता नहीं है, यह कार्य मस्तिष्क का है। उसी के ज्ञान तन्तु मेरुदण्ड के माध्यम से समस्त शरीर में फैलते हैं और निर्देश देकर सारे काम कराते हैं। मस्तिष्क में नींद आने लगे तो अन्य अंग सहज ही शिथिल होते चले जाते हैं। आकुंचन-प्रकुँचन, निमेष, उन्मेष, श्वास-प्रश्वास जैसी क्रियाएं अचेतन मन-संस्थान के इशारे पर ही चलती हैं। जीवनी शक्ति भोजन से नहीं वरन् साहसिकता और प्रसन्नता के आधार पर मिलती और पनपती है। यदि इस केन्द्र में गड़बड़ी चले तो उसका प्रभाव शरीर के विभिन्न अवयवों पर पड़े बिना रह नहीं सकता।

रोगों की जड़ शरीर में हो तो काय चिकित्सा में सहज सुधार होना चाहिए। पोषण की पूर्ति आहार से होनी चाहिए और विषाणुओं को औषधि के आधार पर हटाने में सफलता मिलनी चाहिए। किन्तु देखा जाता है कि जीर्ण रोगियों की काया में रोग बुरी तरह रम जाते हैं कि उपचारों की पूरी-पूरी व्यवस्था करने पर भी हटने का नाम नहीं लेते। एक के बाद दूसरे चिकित्सक और नुस्खे बदलते रहने पर भी रुग्णता से पीछा नहीं छूटता। इलाज के दबाव में बीमारियाँ रंग रूप बदलती रहती हैं, पर जड़ें न कटने से टूटे हुए फिर नई कोपलों की तरह उगते रहते हैं। जड़ों को खुराक मिलती रहे तो टहनियाँ तोड़ने से भी पेड़ सूखता नहीं है।

शरीर और मनःशास्त्र के मूर्धन्य विशेषज्ञ डा. हेन्स सीली ने अपने अस्पताल के प्रायः तीन हजार रोगियों को कई प्रकार से जाँच पड़ताल की और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि पुराने रोगियों में से अधिकाँश की व्यथा मनःक्षेत्र की विकृतियों से संबंधित थी। दवादारू के प्रयोग उन पर कारगर नहीं हुए। किन्तु जब मानसोपचार आरम्भ किया गया और उनके चिन्तन क्षेत्र में घुसी हुई अनुपयुक्त मान्यताएं एवं विचारणाएं हटाई गईं तो वे बिना दवादारू के ही अच्छे होने लगे और खोया हुआ स्वास्थ्य पुनः वापिस प्राप्त कर सके।

सत्ताईस साल के प्रयोगों के उपराँत डा. सीली का निष्कर्ष यह है कि गर्दन एवं कमर दर्द के रोगियों में से 75 प्रतिशत, थकान, तनाव और सिर-दर्द वालों में से 80 प्रतिशत, उदर रोगियों में 70 प्रतिशत, गाँठों की जकड़न बालों में 64 प्रतिशत और रक्तचाप हृदय रोगियों में 30 प्रतिशत मानसिक असंतुलन के कारण इन व्यथाओं में फंसे और मूल स्थिति यथावत बने रहने के कारण अनेकों चिकित्साएं परिवर्तित करते रहने पर भी अस्वस्थ ही बने रहे। व्यथा से छुटकारा तब मिला जब वे अपनी मान्यताओं और असंतुलनों से छूटने के उपाय अपनाने पर सहमत हुए।

जर्मनी की मनोविज्ञान शोध परिषद् ने सम्पन्न और निर्धन परिवार के एक-एक सौ बच्चे स्वास्थ्य परीक्षण के लिए चुने। पाया गया कि सुविधा एवं असुविधा के कारण उनके स्वास्थ्य में कोई अंतर नहीं पड़ा। बढ़िया और घटिया भोजन के रहते हुए भी उनके बीच स्वास्थ्य संबंधी कोई बड़ा अंतर नहीं पाया गया। किन्तु जब दूसरे सौ-सौ बच्चों इस दृष्टि से जाँचा गया कि पारिवारिक परिस्थितियों का उन पर क्या असर पड़ता है तो तथ्य बिल्कुल दूसरे ही सामने आये। मालूम पड़ा कि जिनके परिवार में तनाव, मन-मुटाव, असंतोष, विग्रह रहता था बच्चे न केवल दुर्बल पाये गये वरन् बीमारियों तथा बुरी आदतों के भी शिकार बने हुए थे। इसके विपरीत जिन घरों में स्नेह, सौजन्य और सहयोग का वातावरण था वे न केवल शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ वरन् मानसिक दृष्टि से भी कुशल पाये गये।

अब यह तथ्य क्रमशः अधिक उजागर होता जा रहा है कि शरीर मात्र रासायनिक पदार्थों का ढ़ाँचा नहीं है वरन् उसकी दृढ़ता एवं क्षमता पर मनःस्थिति का भारी प्रवाह रहता है। आहार-विहार का कितना ही महत्व क्यों न हो, पर मानसिक संतुलन के बिना सुविधाओं और अनुकूलताओं के रहते हुए सुदृढ़ आरोग्य प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के उपराँत अब चिकित्सा क्षेत्र के मूर्धन्य यह सोचने लगे हैं कि मानवी स्वास्थ्य की समस्याओं का स्थायी समाधान उसके चिन्तन में हल्कापन लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। जो मनोविकारों से दबे हुए हैं उन्हें उनसे छुड़ाने की प्रक्रिया को चिकित्सा विज्ञान में सम्मिलित करना चाहिए।

अमेरिकी मनोवैज्ञानिक चिकित्सक रेबेका ने अनेकों रोगियों की चिकित्सा के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि बेहद अहंकार की भावना से शरीर के कई अंग कठोर हो जाते हैं और व्यर्थ अहंकारी जीवन जीने तथा असली रूप छिपाने से हृदय कठोर हो जाता है और मूत्राशय में पथरी रोग पनपता देखा गया।

घृणा, ईर्ष्या, क्लेश-कलह के भावों से भीतर नसों में रस या रक्त प्रवाह मंद हो जाता है। इन्हीं महिला चिकित्सक का मत है कि निरशंक, प्रसन्नता और निर्भय भावना शरीर के भीतरी अंगों में तेल मालिश का काम करती है।

देखा गया है कि मन के उतार-चढ़ावों का प्रभाव शरीर पर तत्काल पड़ता है। क्रोध आने से चेहरा लाल पड़ जाता है- रक्त संचार की गति बढ़ जाती है, शरीर काँपने लगता है। इसके विपरीत शोक के समय चेहरा पीला पड़ जाता है आदमी चिन्तित व बेहाल हो जाता है। बार-बार क्रोधित या आवेशित होने से आमाशय, पक्वाशय, संचार, तिल्ली, जिगर, रक्तवाहिनियों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जबकि भय व शोक के समय रक्तवाहिनियां संकुचित हो जाती हैं। रक्त प्रवाह धीमा पड़ जाता है। जिससे नाना प्रकार की बीमारियाँ धर पकड़ती हैं।

भले या बुरे विचार अपना प्रभाव धीरे-धीरे मनुष्य की मनःस्थिति पर छोड़ते-छोड़ते स्थायी रूप धारण कर लेते हैं जिससे उनके ही अनुरूप मन का स्थायी निर्माण होता है। सद्विचारों से जहाँ शारीरिक, मानसिक कार्यक्षमता की वृद्धि होती है उसके विपरीत कुविचारों का दुष्परिणाम यह होता है कि रक्तचाप, मधुमेह, अपच, नपुँसकता आदि के रोग प्रकट होने लगते हैं। इस वर्ग के रोगों को मानस रोगों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

स्वास्थ्य समस्या का वास्तविक समाधान खोजने वाले रोगियों, विचारकों एवं चिकित्सकों को इस तथ्य को समझना होगा कि आरोग्य का स्थिर रहना एवं गड़बड़ाना अधिकतर मानसिक संतुलन पर निर्भर रहता है। अवाँछनीय चिन्तन से बचकर हल्की-फुल्की जिंदगी जीने की नीति पसंद की जा सके तो जागृत दिखने वाली स्वास्थ्य समस्या को सरलतापूर्वक सुलझाया जा सकता है।

First 20 22 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Type: TEXT
Language: HINDI
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