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Magazine - Year 1981 - Version 2

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हंसोड़ स्वभाव -एक दैवी वरदान

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मानवी सद्गुणों में प्रसन्न रहना मूर्धन्य है। इससे चित्त हलका रहता है और प्रतिकूलताओं के कारण उत्पन्न होने वाले तनाव से सहज ही बचाव होता रहता है। उत्तरदायित्वों को पूरी तरह निबाहते हुए भी चिन्तन का स्तर इतना परिष्कृत होना चाहिए कि परिस्थितियों को अनावश्यक महत्व न दिया जाय, जो तिल का ताड बनाते हैं। सामान्य सी प्रतिकूलता देखकर चिन्तित, भयभीत, निराश होने लगते हैं उन्हें वास्तविक कठिनाई से कई गुना कष्ट उठाना पड़ता है। मनःस्थिति को यदि सन्तुलित और हल्की-फुल्की रखा जा सके तो फिर जीवन में आते-जाते रहने वाले प्रिय एवं अप्रिय प्रसंग इतना दबाव नहीं डाल सकते कि प्रसन्नता और सरलता से रहित भारभूत जीवन जीने के लिए विवश होना पड़े।

यों सामान्यतया सफलता में और असफलता में प्रसन्नता होती है और असफलता एवं प्रतिकूलता में अप्रसन्नता का सहज उभार आता है। किन्तु साथ ही इतना भी है कि वह चमक बिजली कोंधने की तरह क्षणिक होती है और घटना क्रम पुराना होते ही अभ्यस्त आदत चरितार्थ होने लगती है। जिनका स्वभाव खीजने का है वह सफलता का आनन्द तक नहीं उठा पाते, कुछ ही घड़ियां बीतने पर मुँह लटकाये दिखने लगते हैं। इसके विपरीत जिनने अपने दृष्टिकोण में प्रसन्नता ढूंढ़ते रहने की कलाकारिता का समन्वय किया है वे कठिनाइयों के बीच भी अपनी विनोदी वृत्ति के कारण मुस्कराने से लेकर खिल-खिलाने तक के अवसर खोज लेते हैं।

हंसने-हंसाने की आदत एक दैवी वरदान है। जिसे वह मिला हो उसे बड़भागी ही माना जाना चाहिए। उदार लोग दूसरों को कुछ उपहार देकर उनका दुख हरते और आनन्द बंटाते देखे गये हैं। यह कार्य निर्धन व्यक्ति भी सरलतापूर्वक कर सकते हैं। अपनी हंसी का उपहार सहज ही दूसरों तक जा पहुँचता है उनके मन का बोझ हलका करने में इतनी सहायता करता है जितना मुफ्त में अन्न, वस्त्र बाँटने वाले भी नहीं कर सकते। मानसिक स्वास्थ्य का मूल्य शारीरिक आरोग्य से भी बढ़कर है। प्रसन्न रहना अमीरों के वैभव से किसी भी प्रकार कम नहीं है।

हास्य को विद्वान स्टैनिसलार ने आत्मा का गुण कहा है। उनका कथन कितना उपयुक्त है- ‘‘अच्छा हास्य आत्मा का हास्य है, उदासीनता उसके लिए विष है” आत्मा के परिष्कार, मनःसंतुलन एवं स्वस्थ रहने के लिए हास्य निःसंदेह बहुत ही महत्वपूर्ण है।

दार्शनिक जे. गिल्वर्ट ओकले ने आदमी के लिए हंसना अनिवार्य बताया है। न हंसने एवं न मुस्कराने वाला व्यक्ति वस्तुतः रोगी होता है। उत्तम शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिए हंसना भोजन की तरह ही आवश्यक है। मार्शियल ने कहा है- “आप यदि बुद्धिमान हैं तो हंसिये। एक छोटी से छोटी खुशी मनुष्य के बड़े से बड़े दुख को भी ढ़क लेती है।”

अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार ड्राइडन का कथन है कि “हंसना एक बहुत ही अच्छी विशेषता है चाहे उसका कारण कुछ भी हो।”

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तो जी खोलकर हंसना स्वयं में एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्वास्थ्यप्रद टॉनिक है और हंसते रहने वाले- प्रसन्न चित्त रहने वाले- व्यक्तियों का शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।

‘ह्यू फलैण्ड ने खूब खिल-खिलाकर हंसना पाचन के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यायाम बतलाया है। ‘डेनी’ का कहना है कि “मनुष्य के पास देने के लिए बहुत कुछ है। हंसी के फूल और प्रेम का सागर इन दोनों की कोई कीमत नहीं लगती। स्वयं खिलो और और अन्यों को खिलाते चलो।”

चित्त की प्रसन्नता के संबंध में गीता के अध्याय दो के 65 वें श्लोक में कहा गया है-

“प्रसादे सर्व दुखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसौ ह्याशुबुद्धि पर्यवतिष्ठते॥’’

अर्थात्- “चित्त प्रसन्न रहने से सब दुखों की निवृत्ति हो जाती है- उनकी हानि हो जाती है। जिसको आन्तरिक प्रसन्नता चित्त की प्रफुल्लता, उल्लास प्राप्त हो जाता है उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है”। मानसिक संतुलन, स्थिरता, समस्वरता बनाये रखने के लिए मन की प्रसन्नता आवश्यक है।

गाँधीजी ने प्रसन्नता एवं हंसी के संबंध में लिखा है- ‘‘हंसी मन की गांठें खोल देती है- हमारे मन की ही नहीं सभी के मन की। हंसी हृदय की ऐसी पवित्र उमंग भरी गंगा है जो सबको शीतलता प्रदान करती है। भीतर का विषाद और अवसाद हंसी के तेज झोंकों से रुई के कतरों की भाँति नष्ट हो जाता है।’’

खिल-खिलाकर हंसने की आदत से शरीर निरोग रहता है। हंसने से फेफड़े मजबूत होते हैं। रक्तसंचार ठीक होता है। मन के विकार हंसने से दूर होते हैं। श्री केरीबोर ने तो हंसी व उल्लास को यौवन की संज्ञा दी है उनका कथन है- ‘‘हास्य यौवन का श्रृंगार है। जो व्यक्ति यौवन का श्रृंगार नहीं कर सकता उसके पास यौवन कैसे टिक सकता है? हंसने का प्रफुल्ल रहने का स्वभाव बनाइये, यौवन सदा आपके साथ रहेगा।”

जार्ज बर्नार्डशॉ ने एक जगह कहा है- ‘‘हंसी की सुँदर भूमि पर जवानी के पुष्प खिलते हैं और जीवन को सुगंध से भर देते हैं। जवानी को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए आप खूब जी खोलकर हंसा कीजिए।’’

अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियां सभी के जीवन में आती हैं। ऐसा किसी महापुरुष के जीवन में भी कभी नहीं हुआ कि सदैव उनको अनुकूलताएं, सुविधाएं ही मिली हों। वास्तविकता तो यह है कि महामानवों को अत्यधिक प्रतिकूल विकट स्थिति का सामना करना पड़ा है। उसी से उनकी प्रतिभा निखरी है। भयंकर प्रतिकूलता की स्थिति में भी वे हंसते-हंसते उनका सामना करते हुए आगे बढ़े हैं।

आज मनोविज्ञान की आधुनिकता शोधों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मुक्त रूप से हंसना शारीरिक स्वास्थ्य के लिए तो आवश्यक है ही मानसिक स्वास्थ्य एवं मनःसंतुलन के लिए भी वह उतना ही आवश्यक है। जीवन में रोग, चिन्ता, उद्वेगों तथा तनावों से मुक्त रहकर आनन्दित रहने के लिए संतोष वृति का होना जरूरी है। अधिकाँश रोगों एवं दुखों का मुख्य कारण अधिकतर लोगों में असंतोष का होना है। इस असंतोष की आग से बचने का रास्ता है- जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण और उसे हास्य एवं प्रफुल्लतापूर्वक खेल मानकर चलने वाली मनःस्थिति। स्वास्थ्य की कुंजी प्रफुल्ल जीवनचर्या में ही निहित है।

आध्यात्मिक जीवन पथ पर चलने वाले साधकों को विनोदी एवं प्रफुल्ल प्रकृति का होना प्रथम चरण है। प्रत्येक बात में हास्य-विनोद का एक पहलू होता है। यह एक दैवी गुण है जो आस-पास के लोगों तक को प्रफुल्लता से आनन्दित कर देता है। रोग उत्पन्न होने पर मनुष्य कभी अपने भूत, कभी भविष्य के बारे में विश्लेषण करने लगता है। बेसिर पैर की कुकल्पनाएं करने लगता है और चिन्ताओं को अपने मस्तिष्क में डेरा डालने के लिए आमंत्रित कर लेता है। परिणाम यह होता है कि निश्चिन्त, उन्मुक्त जीवन स्वप्न बनकर रह जाता है। सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाय तो चिन्ताएं अस्तित्वहीन होती हैं और चिन्ता एक भयानक मनोरोग है जो अन्यान्य अनेकों शारीरिक, मानसिक कष्टों को भी ले आता है। इससे मुक्त होने का उपचार एक ही है कि परिस्थितियों के दूसरे पक्ष को देखना जो हास-परिहास से परिपूर्ण है। पर्यवेक्षण करने पर पता लगेगा कि जिन्हें बहुत बड़े अवरोध के रूप में कल्पित कर लिया गया वे मात्र छोटे-मोटे कंकड़-पत्थर थे और ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ वाली कहावत चरितार्थ होती दिखती है। महत्वहीन बातों को बहुत महत्व दे दिया गया, जिनका न कोई आधार रहा होता और न उद्गम।

तथ्य को समझा जाय तो किसी भी परिस्थिति में आशावादी दृष्टिकोण, संतोष वृति एवं उत्साह को अपनाते हुए प्रसन्न और प्रफुल्ल रहा जा सकता है। विपरीत परिस्थितियों में ही तो मानसिक समस्वरता बनाये रखने में चित्त की प्रसन्नता की कसौटी है। अनुकूल परिस्थितियों में तो सभी मोद मनाते रहते हैं। मन की प्रफुल्लता से जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है, रोगों से संघर्ष करने की क्षमता बढ़ती है।

कैलीफोर्निया की एक अमीर महिला सिम्पसन बहुत समय तक चिन्तित एवं उद्विग्न रहने के परिणाम स्वरूप अनिद्रा रोग से ग्रसित हो गयी। उसका जीवन उसे असह्य लगने लगा था। उसको एक मनोचिकित्सक ने भारी फीस वसूल करने के उपराँत एक रामबाण उपचार बताया कि वह दिन में कम से कम तीन बार खूब खिलखिलाकर हंसा करें। चिकित्सक के निर्देशानुसार उसने बिना किसी कारण कई बार खिलखिलाना शुरू कर दिया। केवल इसी से कुछ ही दिनों में उसे ठीक प्रकार से नींद आने लगी और स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक लाभ हुआ।

प्रसन्नता प्रकृति की दी हुई सबसे महत्वपूर्ण पुष्टाई है। शारीरिक स्वस्थता एवं मानसिक उत्साह बढ़ाने में यह अचूक उपचार है।

“सैटर डेरिब्यू” के सम्पादक नार्मन कजिन्स ने अपने गंभीर लकवे से ग्रस्त शरीर को हास्य एवं जिजीविषा के सहारे नियंत्रित करने में सफलता पाई। कजिन्स महोदय ने मात्र विटामिन ‘सी’ के कुछ इन्जेक्शन भर दवा के नाम पर लिए थे। उनका कथन है- ‘‘औषधि विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहा है और औषधियों के सहयोगियों में हास्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।” वस्तुतः मुक्त कण्ठ से हंसना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है।

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