
आदर्शों की पराकाष्ठा भारतीय संस्कृति का गौरव
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आदर्शवादिता की बातें करना और व्यवहार में उन आदर्शों से ठीक विपरीत आचरण करना जितना निन्द्य और गर्हित है सम्भवतः उतना बुरा अनैतिक कर्मों में प्रवृत्त होना भी नहीं है। क्योंकि इस प्रकार का आचरण अनीतिपूर्ण तो होता ही है, उनसे सिद्धाँतों की बातें कह कर उसे ढकने दबाने की एक और अनैतिकता स्वभाव में समाविष्ट हो जाती है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, ‘तुम आदर्शों की बात करो और उन्हें अपने अव्यवहार में न उतारो तो तुमसे चोर, डाकू और लुटेरे अच्छे, जिनमें कम से कम कथनी और करनी का अंतर तो नहीं होता।’
दुर्भाग्य से इन दिनों यह प्रवंचनापूर्ण स्थिति बहुत सघनता के साथ पाई जाती है। उदाहरण के लिए दहेज को ही लिया जाए। प्रत्येक व्यक्ति दहेज प्रथा की बुराइयां गिनाते नहीं थकता, और पानी पी पीकर इस कुरीति को कोसता है। इस विषय पर किसी से भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा जाए वह इसका अंत अनिवार्य रूपेण चाहता प्रतीत होता है। लेकिन अधिकाँश व्यक्ति जब अवसर आता है तब मजबूरी के नाम पराये, घर के, अन्य किन्हीं संबंधियों का दबाव बताकर अपने लिए बचाव का रास्ता खोज लेते हैं और दहेज के लिए मुँह फाड़ने लगते हैं। इस दोहरी रीति-नीति को जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी स्पष्टतया देखा जा सकता है। ईमानदारी, परिश्रम, लगन, दायित्वनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता, उदारता आदि गुणों या आदर्शों की हर कोई सराहना करता है तथा उनका पालन आवश्यक बताता है किन्तु जब बात उनके पालन पर आती है तो लोग बगलें झाँकने लगते हैं।
आदर्शों के प्रति यह दोहरी और दोगली दृष्टि न हमारी संस्कृति का अंग रही है और न ही संस्कृति के प्रणेताओं में कहीं इस तरह का छल देखने में आया है। बल्कि इस तरह के हजारों उदाहरण हमारे साँस्कृतिक इतिहास में भरे पड़े है जिनमें लोगों ने आदर्शवादिता का पराकाष्ठा के स्तर पर, पालन किया। आदर्शों के लिए हमारे मनीषियों ने एक अनूठा शब्द खोजा है- जीवन मूल्य। आदर्शों को जीवन मूल्य कहा गया है- अर्थात् जीवन का मूल्य देकर भी जिन पर दृढ़ रहा जाना चाहिए। मनुष्य को सबसे बढ़कर जीवन ही प्रिय है। संसार की समस्त सम्पदाओं की तुलना में वह जीवन को ही प्रधानता देता है। मनीषियों ने जीवन के ऊपर भी आदर्शों को प्रधानता दी है। यह विस्मय विमुग्ध कर देने वाली बात है कि जिस जीवन की तुलना में सब कुछ तुच्छ है, वह जीवन आदर्शों के लिए बलि चढ़ाना श्लाघनीय समझा गया है।
आदर्शों की यह पराकाष्ठा ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय संस्कृति के इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिन लोगों ने इन आदर्शों के लिए अपने जीवन को भी दाँव पर चढ़ा दिया उन्हें मनीषियों ने अवतार कहकर संबोधित किया एवं सराहा और पूजा है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए भगवान राम द्वारा राजमहल में उपलब्ध होने वाली सुविधाओं का त्याग कर जंगल में वनवासी बनकर रहने लगे का उदाहरण विख्यात है। लक्ष्मण ने अपने भाई के प्रति कर्तव्य-पालन के लिए तमाम सुख सुविधाओं को छोड़ दिया। भ्रातृ प्रेम का इतना अनूठा उदाहरण संसार के किन्हीं अन्य देशों में मिलना दुर्लभ है। भरत द्वारा राज्य को धरोहर मानकर सम्हालने तथा स्वयं तापस वेशधारण कर जीवन व्यतीत करने का उदाहरण भी अपने ही जातीय इतिहास में मिलता है।
सत्य के लिए अपना सारा जीवन, राजपाट आदि सब सुख सुविधाएं छोड़कर श्मशान में बिक जाने का हरिश्चन्द्र जैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। महारथी कर्ण और राजा बलि द्वारा दान धर्म की पराकाष्ठा को स्पर्श कर लेने का गौरवपूर्ण अध्याय भी अपने ही इतिहास में जुड़ा हुआ है। कर्ण जानते थे कि कवच-कुण्डल देने से वे मर सकते हैं, उनके लिए जीवन संकट उपस्थित हो सकता है, परन्तु इन्द्र जब उनके सामने याचक बनकर उपस्थित होते हैं, और इन्द्र ही क्यों कोई भी क्यों न हो? उनके लिए न करते नहीं बनता। कर्ण के पिता सूर्य जब इस षड्यंत्र का पर्दाफाश करते हुए अपने पुत्र को सचेत करने और व्यवहारिक बनने का उपदेश देते हैं तो कर्ण यही कहते हैं कि मैं व्यवहारिकता का ही निर्वाह कर रहा हूँ। थोड़ी चीज देकर अधिक प्राप्त करना लाभदायक सौदा ही कहा जायेगा। यह नश्वर शरीर तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है। आज होना है या कल होना है इससे क्या अंतर पड़ता है। मैं इसके बदले अमर कीर्ति प्राप्त कर रहा हूँ तो इसमें घाटे की क्या बात है?
नियम और अनुशासन की मर्यादा तोड़ने पर राजा हंसध्वज ने अपने पुत्र को भी दण्डित करने से नहीं बख्शा। जब देश रक्षा के लिए हर युवक को युद्ध में जाने का निर्देश दिया और सभी युवा व्यक्ति रणांगण में पहुँच गये तो उन्हें पता चला कि राजकुमार सुधन्वा इस अनुशासन मर्यादा का उल्लंघन कर अपनी नवविवाहित पत्नी के साथ प्रणय-लीला में उलझे हुए हैं। राजपुत्र होने के साथ-साथ सुधन्वा नव-विवाहित भी थे। हंसध्वज चाहते तो पुत्र को क्षमा कर सकते थे, परन्तु कर्तव्य सो कर्तव्य। नियम सो नियम। राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को जो दण्ड दिया जाना घोषित किया गया था, वही दण्ड उन्होंने अपने पुत्र को भी दिया। अनुशासन तोड़ने वालों के लिए गरम तेल में डाल देने का दण्ड निर्धारित था, सो सुधन्वा को भी यही दण्ड दिया गया।
शरणागत की रक्षा करना भारतीय धर्म और संस्कृति का गौरव रहा है और इस गौरव को इतिहास पुरुषों ने बड़े से बड़ा त्याग कर भी स्थापित किया है। राजा शिवि ने अपनी शरण में आये पक्षी की रक्षा के लिए उसका शिकार कर रहे बाज को अपनी जाँघ का माँस खिला कर अद्भुत शरणागत वत्सलता के साथ-साथ उदार साहसिकता का भी परिचय दिया। मयूरध्वज ने अपने पुत्र का माँस खिला कर अभ्यागत की इच्छा पूरी की। इस तरह के प्रसंगों में वैचित्र्य के साथ-साथ अस्वाभाविकता भी है, परंतु जिन्होंने मृत्यु के आरपार देखा है उनके लिए इनमें कुछ भी विचित्र या अस्वाभाविक नहीं है। आदर्शों की पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह व्यवहारिक है। जब जीवन क्षण भंगुर है और एक न एक दिन मर ही जाना है, शरीर को मिटना ही है तो क्यों न आदर्शों के लिए मरा जाए? नियतिगत या स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा किसी सिद्धाँत के लिए, आदर्श के लिए मरना अधिक स्तुत्य है।
मृत्यु का रहस्य समझने वालों के लिए उत्सर्ग उसी प्रकार है जिस प्रकार सामान्य व्यक्ति लाखों रुपयों का पुरस्कार प्राप्त करने की आशा में एक दो रुपये का लॉटरी टिकट खरीद लेता है। लाटरी के टिकट खरीदने पर लखपति बनने की सम्भावना तो फिर भी नगण्य सी रहती है, किन्तु आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाला व्यक्ति अपने प्राप्तव्य के संबंध में शत प्रतिशत निश्चिन्त रह सकता है। जिन लोगों ने आदर्शों के लिए उत्सर्ग किया उनकी दृष्टि में यद्यपि मरने के बाद किसी प्रकार का श्रेय कामना नहीं रही, फिर भी उनके लिए श्रेय सुरक्षित है। श्रेय नहीं भी मिले तो भी किसी उद्देश्य के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली बात से मिला आत्मसंतोष कहीं नहीं जाता।
आदर्शों की पराकाष्ठा अपनी संस्कृति की धरोहर है। यदि इस पराकाष्ठा पर नहीं पहुँचा जा सके तो भी कम से कम कथनी और करनी में साम्य तो रखा ही जा सकता है। हम भी इसी ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से तो बचा ही जाना चाहिए। इस छलना से बचकर ही अपनी संस्कृति के प्रति गौरवभाव जागृत और जीवन्त रखा जा सकता है।