
शान्ति और प्रगति के लिए साधन शुद्धि आवश्यक
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गाँधीजी ने विश्व शाँति के लिए कुछ मूल सूत्र बताये। (1) साधनों की शुद्धता (2) मानव मात्र में भ्रातृत्व की भावना का विकास (3) जीवन में नैतिकता का समावेश (4) आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा (5) भौतिक जगत से ऊपर किसी महत् शक्ति में विश्वास।
बापू ने कहा था व्यक्ति और समाज को सभ्य और सुशिष्ट बनाने के लिए अन्य बातों के साथ ये भी आवश्यक है कि जीवनयापन के लिए जिन वस्तुओं का उपयोग हो रहा है उनका उपार्जन किस तरह से हुआ, नैतिक अथवा अनैतिक तरीके से। साध्य चाहे जितना श्रेष्ठ हो पर यह निश्चित है कि साधन की अशुद्धता साध्य को भी नष्ट कर डालती है। विश्व शान्ति के लिए शान्तिपूर्ण साधनों का ही प्रयोग करना होगा। शास्त्र के बल पर स्थायी शान्ति कदापि नहीं पायी जा सकती, जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र दमन एवं शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करता और पाशविक शक्ति के आधार पर विजय की आशा करता है तो विरोधी पक्ष की पाशविक प्रवृत्तियां भी प्रबल हो जाती है। हिंसा प्रतिहिंसा की श्रृंखला-सी बन जाती है। भ्रष्ट तरीके अन्ततः भ्रष्ट परिणाम ही उत्पन्न करते हैं।
विश्व शान्ति का महत्वपूर्ण आधार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना है। विश्व बन्धुत्व भावना वेदान्त दर्शन पर आधारित है। जब सबमें एक ही चैतन्य सत्ता विद्यमान है तब आपस में द्वेष एवं घृणा के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। सूर्य की असंख्य किरणों के, समुद्र की अनेक लहरों के रूप में हमारा अस्तित्व है। समूह से पृथक जीवनयापन सम्भव नहीं। व्यक्ति समाज से जुड़ा है, समाज राष्ट्र से और राष्ट्र विश्व से। पारस्परिक सहयोग के बिना सबका अस्तित्व खतरे में है। भाव क्षेत्र के विस्तार एवं परस्पर स्नेह, सहयोग, भावना के उदय से ही विश्व राष्ट्र की कल्पना साकार हो सकती है।
मनुष्य की वर्तमान दुर्दशा का मूल कारण आर्थिक, राजनीतिक या भौतिक ही नहीं वरन् हृदयगत संकीर्णता है। कोई व्यक्ति या राष्ट्र मात्र भौतिक साधनों के सहारे ऊंचा नहीं उठ सकता। उसके साथ ही उन मानवीय मूल्यों को भी महत्व देना एवं अवलम्बन लेना होगा जिसके द्वारा स्थायी प्रगति एवं शान्ति का पथ-प्रशस्त होता है।
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन में एकरूपता लाने के लिए नैतिकता का अवलम्बन लेना आवश्यक है। नैतिकता का अभाव ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विषमता को जन्म देना है। विश्व में बढ़ती हुई महारक शक्ति का अन्त भी नैतिकता के जागरण से ही सम्भव है। आज के संकट का वास्तविक कारण मानव अन्तःकरण में नैतिकता का अभाव ही है। लोग कहते कुछ और करते कुछ हैं। फलतः विग्रह उपजते और संकट खड़े होते हैं।
आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के साथ नैतिक उत्थान भी अनिवार्य है। यदि इन दोनों में से किसी को प्राथमिकता देनी हो तो मानवीय अन्तःकरण में नैतिकता के उदय को अधिक महत्व देना होगा।
महान विचारक रिचर्ड बी. ग्रेग ने एक पत्र में गाँधी जी को लिखा था- “इतिहास साक्षी है कि युद्ध द्वारा मानवता पर विजय नहीं पायी जा सकती। क्रूरता पूर्ण प्रयास हर बार असफल ही रहे। यहाँ तक कि प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ और विश्व के प्रसिद्ध विचारक भी शुद्ध विभीषिका के भयंकर परिणामों पर अधिकार नहीं कर सकते।” अब तक अनेक बार सुरक्षा परिषदों का संगठन हुआ किन्तु शुद्ध विभीषिका का रूप और भी विकराल होता गया। यह असंदिग्ध है कि कूटनीतिक दाव-पेंचों से शान्ति सम्भव नहीं। जब तक मानवीय अन्तःकरण में सद्भावों का अभाव रहेगा, व्यक्तिगत जीवन से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के क्रिया-कलापों में सदाशयता एवं सुस्मिरता का दर्शन न हो सकेगा एवं नैतिक निर्धारणों- उपाय उपचारों का ही अवलम्बन लेना होगा।