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Magazine - Year 1981 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रत्यक्ष ही सब कुछ नहीं है।

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इन्द्रियों से मात्र स्थूल जगत का परिचय मिलता है। आँखों से दृश्य पदार्थ ही दिखाई पड़ते हैं। कान भी सीमित ध्वनियों को ही सुन पाते हैं। नाक की गंध-क्षमता सीमित है। जिह्वा भी समस्त रसों का आस्वादन करने में असमर्थ है। त्वचा हर चीज छू नहीं सकती। अनेकों पदार्थ वायु में उड़ते रहते हैं उनकी सत्ता विद्यमान है, किन्तु इन्द्रियों से उनकी जानकारी नहीं मिलती। इन्द्रियातीत पदार्थों की जानकारी सूक्ष्मदर्शी एवं दूरदर्शी यन्त्रों से होती है। छोटे जीवाणुओं की माइक्रोस्कोप की और दूरवर्ती दृश्यों को टैलिस्कोप की सहायता से जानकारी मिलती है। स्पष्ट है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान ही जब कुछ नहीं है उससे बाहर की परिधि और भी बड़ी है। वैज्ञानिकों ने इस अविज्ञान को ज्ञान की सीमा में लाकर आश्चर्यजनक आविष्कारों में सफलता पाई है।

स्थूल जगत की भाँति ही एक सूक्ष्म जगत भी है और स्थूल शरीर की तरह की एक सूक्ष्म शरीर की सत्ता भी इसी संसार में विद्यमान रहती है। उसे इन्द्रियों से तो नहीं देखा जा सकता, पर बुद्धि के सहारे उसके अस्तित्व का परिचय भली-भांति मिल जाता है। मरणोत्तर जीवन इस सूक्ष्म जगत में ही अपना गुजारा करता है। कर्म ही परिणित इसी हाँडी में पकती रहती है और समयानुसार खिचड़ी बनकर थाली में आती है। भविष्य वक्ता इस अदृश्य को देखकर ही भूत और भविष्य की जानकारी प्राप्त करते हैं। देव सत्ता का साम्राज्य इसी क्षेत्र पर है। प्रेत-पितरों का निवास एवं क्रीड़ा कलोल की लीला भूमि यही है।

अदृश्य वातावरण का दृश्य जगत पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका बहुत कुछ पता ऋतु विज्ञानी एवं अन्तरिक्ष के जानकार लगाते रहते हैं और वर्षा, तूफान आदि की सम्भावनाओं से सर्व साधारण को अवगत कराते रहते हैं।

व्यक्ति की सत्ता के साथ जुड़ा हुआ एक प्रति व्यक्ति रहता है इसका परिचय ‘तेजोवलय’ के रूप में देखा और ‘छाया पुरुष’ की चमत्कारी सामर्थ्य को देखकर लगाया जा सकता है।

स्थूल और सूक्ष्म के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध सूत्र को अधिक प्रत्यक्ष करने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने की चेष्टा योगी, तपस्वी करते रहते हैं। साधना द्वारा मनुष्य भीतरी और बाहरी जगत में विद्यमान सूक्ष्म शक्तियों के साथ संपर्क स्थापित करता है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ सभी में विद्यमान रहती हैं, पर उनकी सूक्ष्म सत्ता को अनुभव में लगाने था अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त करने की स्थिति साधना प्रयासों द्वारा ही सम्भव होती है। उसी प्रकार ब्रह्माण्डव्यापी देव शक्तियों के साथ सम्बन्ध जोड़ना और उन्हें अनुग्रह बरसाने के लिए सहायता करना इन साधन प्रयत्नों के सहारे सुलभ बनता है।

प्रकृति स्थूल है और ब्रह्म सूक्ष्म। एक इन्द्रियगम्य है, दूसरा इन्द्रियातीत। शरीर और जीव के सम्बन्ध में भी यही बात की जा सकती है। ज्ञान सूक्ष्म है और कम स्थूल। इस समस्त विस्तार पर दृष्टिपात करने से अदृश्य का अस्तित्व भी स्पष्ट हो जाता है। बुद्धि का भौंड़ापन ही अदृश्य की सत्ता को अस्वीकार करता है। प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानना, बालकों जैसा दुराग्रह है।

अदृश्य भी हमारे लिए दृश्य की तरह ही उपयोगी है। व्यक्ति की निर्भरता मात्र पदार्थ सम्पदा पर ही नहीं है। वरन् पारस्परिक स्नेह सहयोग भी उसकी महत्ती आवश्यकता है। प्रचुर संपत्ति होते हुए भी सद्भाव सम्पादन किये बिना जीवन नीरस और कर्कश ही बना रहता है। पदार्थ सम्पदा की दृष्टि से धनवान व्यक्तियों की तुलना में मनस्वी, ओजस्वी, और तेजस्वी अधिक सामर्थ्यवान माने जाते हैं। श्रमिक की तुलना में विद्वान की गरिमा अधिक भरी होती है। यह दृश्य की तुलना में अदृश्य की गरिमा का ही प्रमाण है। विज्ञ व्यक्ति अदृश्य को न तो अस्वीकार करते हैं और न उसके प्रति उपेक्षा बरतते हैं। उनकी मान्यता इससे भी आगे की होती है। उन्हें सूक्ष्म के साथ श्रम करने से भी अधिक लाभदायक सूक्ष्म के साथ सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयास लगता है। वैज्ञानिकों से लेकर योगियों तक की प्रयत्न परायणता अपने-अपने ढंग से अदृश्य क्षेत्र के अवगाहन में ही नियोजित रहती है।

अदृश्य की एक नई सत्ता का रहस्योद्घाटन अभी-अभी हुआ है। पता चला है कि पदार्थ की सबसे छोटी इकाई प्रतिद्वन्दिता में प्रति परमाणु की सत्ता भी विद्यमान है। प्रति पदार्थ- प्रति विश्व- का अस्तित्व अब न तो काल्पनिक रह गया है, न उपहासास्पद, न अप्रामाणिक। भौतिक विज्ञानी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार कने लगे हैं कि दृश्य जगत का प्रतिद्वन्द्वी एवं पूरक एक अदृश्य जगत इसी विराट् के भीतर अपनी सत्ता जमाये बैठा है और अविज्ञात रूप से इस दुनिया को प्रभावित एवं नियंत्रण करता है। प्रकारान्तर से उन अध्यात्म मान्यता की स्वीकृति है जिससे स्थूल ही तुलना में सूक्ष्म को अधिक बलिष्ठ एवं सम्पन्न बताया गया है और उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले साधना प्रयासों पर बल दिया गया है।

यहाँ प्रति पदार्थ एवं प्रति विश्व के सम्बन्ध में उपलब्ध नवीनतम जानकारियों पर थोड़ा प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। ताकि अदृश्य को उपहासास्पद कहने वाले लोग यह समझ सकें कि प्रत्यक्ष तो कलेवर भर है। समस्त विश्व वैभव का प्राण, अदृश्य जगत में सन्निहित है। इसी प्राण सत्ता को ‘प्रति पदार्थ’ एवं ‘प्रति विश्व’ समझा जा सकता है।

नवीन तथ्यों के अनुसार यह ज्ञात हुआ है कि प्रत्येक पदार्थ के साथ जुड़ा उससे कहीं अधिक सामर्थ्यवान छाया पुरुष-प्रति पदार्थ-अदृश्य जगत में क्रियाशील है। इसकी कल्पना बहुत समय पूर्व प्रसिद्ध गणितज्ञ पाल.ए. एम. डिरॉक ने की, जो कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय में गणित शास्त्र के प्रोफेसर थे। आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धान्त का स्पष्ट स्वरूप वैज्ञानिक किस्नोडिंगर ने दिया। पदार्थ के ऊर्जा में रूपांतरित होने के सिद्धान्त से वैज्ञानिक डिरॉक को विशेष सहयोग मिला। इलेक्ट्रान के ऊर्जा दर्शाने वाले सूत्र से ‘डिरॉक’ की कल्पना को बल मिला। उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋण आवेशयुक्त इलेक्ट्रान के साथ ही धन आवेशयुक्त इलेक्ट्रानों का अस्तित्व परमाणु में विद्यमान होता है। उन्होंने इसका नाम प्रति इलेक्ट्रान (एण्टी इलेक्ट्रान) दिया। अपने प्रयासों द्वारा श्री डिरॉक की इस परिकल्पना की पुष्टि अमेरिका के प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री डा.कार्ल डी. एण्डरसन ने भी की। उन्होंने घोषणा की कि इलेक्ट्रान के साथ ही विपरीत आवेशयुक्त इलेक्ट्रानों का अस्तित्व भी परमाणु के भीतर ही विद्यमान है। उन्होंने इस नये कण का नाम ‘पाजीट्रान’ रखा। इस नवीन शोध के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। तब से लेकर अब तक परमाणु में ही विद्यमान अनेकों प्रति कणों का अस्तित्व उभरकर सामने आया है। अमेरिका के वैज्ञानिक एमेलियो जी. सेगरे, ‘ओवेन चेम्बर लेन’ सी. वीगेन्द्र तथा पी. वाइपसीलेन्टिस के सामूहिक प्रयास से ऐण्टी प्रोटान एवं अटी न्यूट्रान कणों का पता लगा है। इन मूलभूत कणों के अतिरिक्त ऐण्टीन्यूट्रिनोस, ऐण्टीमेसान्स, एण्टी हाइपेरान्स जैसे कणों की भी खोज हुई है। पाकिस्तान के श्री अबदुस्लाम को पोजीट्रान के डिके न होने पर ही 1979 का नोबेल पुरस्कार मिला था।

भौतिकविद् के जानकार इस तथ्य से अवगत हैं कि प्रोटान्स, न्यूट्रान्स, न्यूट्रिनोस एवं मेसान्स से नाभिक बनता है। इलेक्ट्रान नाभिक के बाहर चक्कर लगाते हैं। इन सभी कणों के संयुक्त होने से परमाणु बनता तथा सुव्यवस्थित एवं टिकाऊ बना रहता है। प्रति कणों की खोज से, ऐण्टी प्रोटान्स, ऐण्टी न्यूट्रान्स एवं ऐण्टी मेसान्स, एण्टीके-मेसान्स के संयुक्त होने से ऐण्टी न्यूक्लियस की कल्पना की गई। इस कल्पना को साकार किया कोलम्बिया के भौतिक शास्त्र के डा. लियोन लेडरमेन ने। सन् 1935 में ऐण्टी न्यूक्लियस की संरचना करके ऐण्टीएटम का स्वरूप प्रदान किया गया। पदार्थ के साथ ‘प्रति पदार्थ’ के अस्तित्व को अब वैज्ञानिक जगत में निर्विवाद रूप से स्वीकारा जा रहा है।

प्रति पदार्थ के अस्तित्व में आने से वैज्ञानिकों ने नये सिरे से सोचना आरम्भ किया है। अब सोया यह जा रहा है कि ने केवल पदार्थ वरन् प्रत्येक संरचना का एक स्वतंत्र प्रतिरूप स्थूल सृष्टि में विद्यमान होना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार- ‘प्रति जगत’, ‘प्रति मानव’, ‘प्रीति जीव’, ‘प्रति वनस्पति’ भी जगत, मनुष्य जीव एवं वनस्पति के साथ संलग्न होना चाहिए। प्रो. डिरॉक के अनुसार सृष्टि में विद्यमान सभी कणों के साथ अदृश्य रूप में उनके प्रतिकण मौजूद हैं।

पदार्थों की प्रतिच्छाया के सामान प्रति पदार्थ भी पदार्थ के साथ ही बनते हैं। ऊर्जा रूपांतरित होकर प्रति पदार्थ एवं पदार्थ को जन्म देती है। यहां एक प्रश्न सहज ही उठता है कि पदार्थ तो दिखता है किंतु क्या कारण है कि प्रति पदार्थ दिखायी नहीं पड़ता। तथ्यों एवं प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि पदार्थ प्रति पदार्थ का विकर्षण करता है। इस विकर्षण के फलस्वरूप सभी प्रति पदार्थ एक ऐसे लोक में पहुँच जाते हैं, जिसे ‘प्रति विश्व’ के नाम से पुकार जा सकता है। सम्भव है कि वह एक विशेष स्थिति हो। जिसे आइंस्टीन ने दिक्-काल से परे ‘चतुर्थ आयाम’ के नाम से सम्बोधित किया है। जिसमें पहुँचकर पदार्थ का स्थूल स्वरूप लुप्त हो जाता हो। तथ्य चाहे जो भी हो यह तो स्पष्ट हो चुका है कि पदार्थ कि विश्व, मनुष्य तथा अन्यान्य प्रकृति की संरचनाओं के साथ उनके प्रति स्वरूप भी यहाँ विद्यमान हैं।

परस्पर विरोधी प्रकृति के कारण पदार्थ एवं प्रति पदार्थ के मिलने से भयंकर विस्फोट की सम्भावना की जाती है। कुछ वर्षों पूर्व रूस के साइबेरिया क्षेत्र में एक भयंकर विस्फोट हुआ। यह स्थान आर्कटिक क्षेत्र से 400 मी दूर ‘टान्गसेयूकी’ में स्थित है। एक अनुमान के अनुसार यह विस्फोट 30 मेगाटन हाइड्रोजन बम की सामर्थ्य के बराबर था। इसकी विध्वंसक शक्ति का अनुमान इसी से लगता है कि यह हिरोशिमा पर छोड़े गये परमाणु बम से 1500 गुना शक्तिशाली था। रसायन शास्त्र के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं नोबेल पुरस्कार विजेता डा. विलिमर्ट एफ. लिर्ब्वा का कहना है कि उक्त विस्फोट पदार्थ के टकराने से हुआ। इन दोनों के विकर्षण से ही सन्तुलन बना रह सकता है। असन्तुलन के कारण किसी प्रकार यदि यह दोनों मिल जाते हैं तो ऐसी स्थिति में ही यह विस्फोट होता है। अंतरिक्ष में प्रवेश करते समय अब इस संकट की भी सम्भावना की जा सकती है कि कहीं हमारी स्पेस शटल एवं अन्तरिक्ष यात्रा प्रति विश्व में न प्रवेश कर जायें। यदि ऐसा हुआ और प्रति-विश्व पर नियंत्रण नहीं किया जा सका तो महा विनाश का, महा प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जायेगा। प्रति जगत एवं जगत के बीच भयंकर युद्ध छिड़ जायेगा और देखते ही देखते सम्पूर्ण विश्व नष्ट हो जायेगा।

प्रति पदार्थ एवं प्रति विश्व का अस्तित्व स्पष्ट होने के उपरान्त एक बड़ी समस्या यह सामने आ गई है कि इस अदृश्य एवं अविज्ञात सत्ता के साथ छेड़खानी करने पर कहीं उलटी प्रतिक्रिया उपस्थित न होने लगे। पदार्थ और प्रति पदार्थ के असहयोग एवं विग्रह से असंख्यों समस्याएँ खड़ी हो सकतीं और विश्व के वर्तमान ढाँचे को पूर्णरूपेण बदल जाने से महाप्रलय जैसा संकट खड़ा हो सकता है। इसी आशंका, असमंजस में इस दिशा में शोध प्रयत्न की दिशा में कदम फूँक-फूँक कर धीरे-धी बढ़ाये जो रहे हैं।

अध्यात्म विज्ञान द्वारा अदृश्य जगत एवं अदृश्य सत्ता के साथ सम्बन्ध बनाने के बारे में भी यही बात है। उसमें दैवी सृजन और दानवी विध्वंस की दोनों सत्ताएँ विद्यमान हैं। अदृश्य पर-सूक्ष्म पर-अविश्वास कने के जो कारण पिछले दिनों उछाले जाते थे, वे अब धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। प्रति पदार्थ एक प्रति विश्व के अस्तित्व ने भौतिक विज्ञानियों को सूक्ष्म की सत्ता की पदार्थ तक ही नहीं चेतना तक में विद्यमान होने की बात स्वीकार करने के लिए विवश किया है। यह आध्यात्मिकी आत्मिकी की-भौतिकी की विजय यात्रा का श्रीगणेश मात्र है।

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