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Magazine - Year 1981 - Version 2

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तीर्थ चेतना को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता

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First 27 29 Last
लोगों की मोटी बुद्धि और मोटी दृष्टि से मात्र साधनों का महत्व है, वे सुविधा चाहते और सज्जा-सम्पदा के आकर्षणों पर भागे-भागे फिरते हैं। जीवन इसी तृष्णा में- कस्तूरी हिरन की तरह अतृप्त रहते, निराशा में खीजते, दुःख दुर्भाग्य का रोना रोते, कोल्हू के बैल की जैसी उपेक्षा, अवज्ञा एवं थकान सहते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं। इतने पर भी लोभ और मोह के निविड़ भव-बंधन न छूटते हैं और न टूटते, अपने बुने मकड़ी के जाले में ही लोग उलझते-सुलझते, रोते-कलपते किसी प्रकार समय गुजारते हैं। न वासना पूरी होती है न तृष्णा की आग बुझती है। पेट-प्रजनन की दुहाई देते-देते दम तोड़ने वाले- अपनी ललक लिप्सा में असंख्यों को पतन पराभव के गर्त में धकेलते रहे हैं।

आज की चतुरता और सफलता इसी कुचक्र में डूबती उबरती अपनी क्षुद्रता एवं अदूरदर्शिता का भर्त्सना भरा इतिहास ही पीछे वालों के लिए छोड़ जाती है किन्तु प्राचीनकाल में ऐसा न था। उस सतयुगी माहौल में सभी का ध्यान इस धारणा पर केन्द्रित था कि व्यक्तित्व में देवत्व का अनुपात बढ़ाने वाली प्रेरणा कहाँ पाई और वह प्रक्रिया किस प्रकार अपनाई जाय। इस आवश्यकता की पूर्ति में तीर्थों के अतिरिक्त और कोई प्रभावशाली माध्यम था नहीं। अतएव विचारशील वर्ग का हर व्यक्ति इस प्रयत्न में रहता था की उसे तीर्थों का सान्निध्य किस प्रकार कितने अधिक समय तक उपलब्ध हो सके। बालकों को शिक्षा से भी अधिक दीक्षा की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षण ही नहीं वातावरण भी, वातावरण भी नहीं अभ्यास भी मनुष्य की सुसंस्कारिता बढ़ाने में आवश्यक होता है। तीर्थों में बने हुए गुरुकुल उस आवश्यकता को पूर्ण करते थे। फलतः छात्रों के उन आश्रमों का भरपूर लाभ मिलता रहता था। ढलती आयु का हर व्यक्ति वानप्रस्थ में प्रवेश करते हुए जीवन की सार्थकता अनुभव करता था और नये ढंग का- नये स्तर का- नया जीवन जीने के लिए आवश्यक प्रकाश प्राप्त करने के लिए तीर्थों में पहुँचता था। यह आरण्यक ही विश्व भर के लिए मुनि, मनीषी, ऋषि, तपस्वी स्तर की समस्याओं के समाधान की उच्चस्तरीय व्यवस्था बनाते थे। वानप्रस्थ अनुभव करते थे कि उनसे ढलती आयु में ही जीवन का सच्चा आनन्द लिया है। आरण्यक ऐसे ही नर-रत्नों की खदान थे।

तीर्थों में गुरुकुल आरण्यक ही नहीं गृहस्थों की उस आवश्यकता को भी पूर्ण करने वाले उन्हें पारिवारिकता विकसित करके तथा प्रयोगशाला में परिणत कर सकने में सक्षम भी बनाते थे। घर परिवार को यदि सुव्यवस्थित सुसंस्कृत बनाया जा सके तो निश्चित ही पूर्वकाल की तरह धरती पर बसे हुए छोटे-छोटे स्वर्ग बन सकते हैं।

गुरुकुल के छात्र और आरण्यकों के वानप्रस्थ लम्बे समय तक निवास करने आते थे और परिपक्व बनने के उपरान्त कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए विदाई लेते थे। किन्तु गृहस्थों की स्थिति इन दोनों में सर्वथा भिन्न होती है, वे आजीविका उपार्जन एवं परिवार व्यवस्था के अनेकानेक उत्तरदायित्वों को निभाते हुए लम्बे समय तक बाहर रहने की स्थित में नहीं होते। वे ऐसी तीर्थ प्रक्रिया का ही लाभ ले सकते हैं जो स्वल्प-कालीन हो।

प्राचीन काल में तीर्थ सेवन की प्रक्रिया इसी स्तर की थी। उसमें एक साथ कई उद्देश्यों का समावेश रहता था। बहुत समय तक एक ही स्थान पर रहते-रहते एक ही ढर्रे का जीवन जीते-जीते जो ऊब आती है उसे दूर करने के लिए कभी-कभी कुछ समय का पर्यटन भी मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक होता है। इसके लिए इन दिनों भी समीपवर्ती ‘पिकनिक’ और दूरवर्ती पर्यटन की व्यवस्था लोग अपने-अपने ढंग से करते रहते हैं। इस मनोरंजन के साथ ही यदि समाधान एवं अनुदान की उच्चस्तरीय व्यवस्था भी जुड़ सके तो समझना चाहिए कि स्वर्ण सुगन्ध जैसा सुयोग बन गया। तीर्थ स्थान इस आवश्यकता को पूर्ण करते थे।

खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः सम्पादित करने के लिए इन दिनों आम जलवायु के स्थान पर निवास करने- पूर्ण विश्राम लेने तथा सेने टोरियमों का उपचार पाने का खर्चीला प्रबन्ध बड़े लोग करते रहते हैं। सो भी वह प्रबन्ध शारीरिक स्वास्थ्य लाभ भर का हो पाता है। इससे भी वस्तु है- मानसिक स्वास्थ। वह इतना महत्वपूर्ण है जिस पर बलिष्ठता को भी निछावर किया जा सकता है, सेने टोरियमों में कहीं भी मानसिक स्वास्थ संवर्धन का प्रबन्ध नहीं है। बहुत हुआ तो कश्मीर जैसे स्थानों पर उथले मनोरंजनों में कुछ दिन मन बहलाया जा सकता है। लौटने पर वह विनोद नये किस्म की ललक उत्पन्न करता और आदतें बिगाड़ता है। तीर्थों की यह विशेषता थी कि जहाँ मानसिक तनाव दूर करने वातावरण बदलने एवं विश्रान्ति देने में समर्थ होते थे, वहाँ उनका दूसरा पूरक पक्ष यह होता था कि न केवल छिद्रों को भरे वरन् ऐसी स्थापनाएँ भी करे जो निकट भविष्य में चन्दन के वृक्ष बनकर स्वयं को धन्य बनाने और समीपवर्ती वातावरण को सुगन्ध से भर दें। मनोरोगों, मनोविकारों का उपचार करना एक बात है और मनःक्षेत्र में सुसंस्कारिता, उगाना और चन्दन वन की तरह सुरम्य बना देना दूसरी। तीर्थ सेवन के लिए आने वाले गृहस्थ इन दोनों ही प्रकार के मानसिक लाभ प्राप्त करते थे।

संसार में तीसरे स्तर का श्रद्धा संवर्धन अन्तराल का काया कल्प, संचित कुसंस्कारिता का निराकरण- दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश- अनगढ़ वर्तमान का सुखद भविष्य के साथ संयोजन। यह सभी प्रक्रियाएं शारीरिक मानसिक न होकर विशुद्ध आध्यात्मिक हैं। उस क्षेत्र को ‘कारण शरीर’ भी कहते हैं। चमत्कारी अतीन्द्रिय क्षमताएं इसी क्षेत्र में प्रसुप्त पड़ी रहती हैं। उन्हें साधन उपचारों से कुरेदा उभारा जा सके तो ऐसे प्रतिफल दृष्टिगोचर होते हैं, जिन्हें मनुष्य में देवत्व के उदय की संज्ञा दी जा सके। कहना न होगा कि इस दिशा में प्रगति का मार्ग रोकने वाले वे पाप कर्म होते हैं जो पतन पराभव और संकट बनकर फलित होने वाले हैं। वे आध्यात्मिक आकाँक्षाओं को निरुत्साहित करते रहते हैं और साधना मार्ग को अवरुद्ध करने वाले तरह-तरह के विघ्न उपस्थित करते रहते हैं।

आध्यात्मिक साधनाओं में प्राथमिकता ‘प्रायश्चित्त तप’ की दी गई है। पूजा उपचार पर प्रारब्ध कर्मों का निराकरण नहीं होता, मात्र उनका नया निर्माण रुकता है। क्रियामाण कर्मों की लम्बी दण्ड श्रृंखला से बचने का एक मात्र उपाय उपचार है- ‘प्रायश्चित’। प्राचीन काल में लोग पापों का प्रायश्चित करने के लिए तीर्थों में जाते थे। आज तो इतना भर समझा जाता है कि देव-दर्शन, जल-स्नान भर से पाप छूट जाते हैं, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। उसके लिए ऐसी तप साधनाएं करनी पड़ती हैं जो दुष्कर्मों की खाई को उसी स्तर के तप पुण्य से पूरी कर सकने में समर्थ हो सके। पापों के प्रतिफल इससे कम में नहीं छूटते। प्राचीनकाल में इस तथ्य को भली प्रकार समझा जाता था और क्रियामाण का निराकरण करने के लिए तीर्थों के उपयुक्त वातावरण में रोग के अनुरूप उपचार की नीति अपना कर प्रायश्चित्त तप का निर्धारण किया जाता था।

इन पंक्तियों में गुरुकुलों और आरण्यकों की उस व्यवस्था की चर्चा नहीं की जा रही है जिसमें लम्बे समय तक निवास तथा अभ्यास करने की आवश्यकता पड़ती है। चर्चा का विषय सामान्यजनों की ‘तीर्थ सेवन’ प्रक्रिया है जिसमें कम समय में अधिक प्रयोजनों की पूर्ति होती है। ‘तीर्थ सेवन’ के लाभों में एक रसता की ऊब से छुटकारा पाने और नवीनता का आनन्द लेने के मानवी स्वभाव की पूर्ति होती है। तीर्थ-क्षेत्र में फैले हुए अनेकानेक ऐतिहासिक पौराणिक स्थानों को देखकर उनकी प्रेरणाओं से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है। यदि तीर्थ जीवन्त है। वहां की गतिविधियाँ तथा प्रेरणाएं प्राणवान हैं तो उस वातावरण का प्रभाव भी पड़ता है। यदि तीर्थ संचालक मनीषी, मुनि और तपस्वी ऋषि हैं तो उनके परामर्श, मार्गदर्शन एवं अनुदान वरदान का लाभ भी मिलता है। साथ ही इस अवधि में ऐसी साधनाएँ, तपश्चर्याएं करने का भी सुयोग बैठता है जो प्रायश्चित्त का तीर्थ उद्देश्य पूरा कर सके और आत्म-विकास की दृष्टि से फलप्रद सिद्ध हो सके। ऐसे-ऐसे और भी अनेकों प्रत्यक्ष परोक्ष लाभ हैं जो तीर्थ यात्री के लिए उस प्रकरण में लगाये गये श्रम, समय एवं धन की तुलना में असंख्य गुने लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। यह तथ्य प्राचीन काल में सर्वविदित थे। फलस्वरूप तीर्थयात्रा पर जाने वालों को, लौटकर आने वालों का भावभरा स्वागत होता था उस प्रयास को दूरदर्शितापूर्ण समझा और भूरि-भूरि सराहा जाता था।

यही हैं वे तथ्य जिन्हें ध्यान में रखते हुए तत्त्वदर्शी महा मनीषियों ने तीर्थ प्रक्रिया को जन्म दिया। उनके निर्माण में साधन संपन्नों को दबाया। धर्म क्षेत्र के मूर्धन्यों को तीर्थयात्रा करके लोक शिक्षण की उपयोगी मुहीम सम्भालने के लिए सहमत किया। साथ ही जन-साधारण को वहाँ पहुँचने को पुण्य फलदायक बताकर उकसाया। उनका जो विशाल विस्तार जो दिखता है वह उसी ऋषि चेतना का निर्धारण एवं प्रयास है। इनके पीछे काम करने वाली दृष्टि एवं योजना को जितना सराहा जाय उतना ही कम है।

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मूल निर्धारण और वर्तमान स्वरूप में क्या अन्तर है। स्थिति को देखते हुए उसे जमीन आसमान जितना भिन्न विपरीत कहा जा सकता है। कलेवर तो लगभग मिलते-जुलते हैं, पर अन्तर थोड़ा-सा ही है जितना जीवित और मृतक में होता है। प्राणान्त हो जाने पर भी काय-कलेवर की आकृति प्रायः पूर्ववत ही बनी रहती है, पर अन्तर यह बन जाता है कि जीवन के अभाव में वह काया से उस व्यक्ति की सत्ता का भान होता है। इतने पर भी उस लाश से किसी हलचल या उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।

सच तो यह है कि जीवन विहीन शरीर सड़ने, गलने लगता है। कृमि कीटकों से लेकर चील, कौए उसे कुतरने लगते हैं। साथ ही दुर्गंध भरा वीभत्स दृश्य उभारता चला जाता है। इस दयनीय दुर्दशा से उसे बचाने के लिए अग्नि, जल या भूमि को समर्पित करते हुए अन्त्येष्टि का उपक्रम बनाना पड़ता है। जो बात मृत शरीर के सम्बन्ध में लागू होती है वही संस्थानों के संबंध में भी कही जा सकती है। देवालय कभी जन जागृति के केन्द्र थे। अब उनकी प्राण चेतना समाप्त हो जाने से प्रतिमा पूजन भर शेष रह गया है। खंडहरों में जिस प्रकार चमगादड़ अठावील, उलूक, मकड़े, साँप, बिच्छू ही नहीं भूत-पलीत तक घर बनाने लगते हैं, ठीक उसी प्रकार उद्देश्यों का परित्याग करने वाले संस्थान भी दुर्दशा ग्रस्त होते चले जाते हैं। भले ही वे कोई संगठन हों, परिवार हों, देवालय हों अथवा तीर्थ हों।

यदि तीर्थों में ऋषि प्रणीत चेतना बनी रहती, योजना क्रियान्वित होती रहती तो निश्चय ही उनका वह स्वरूप भी कायम रहा होता जिसके सम्मुख सभी का मस्तक श्रद्धावनत होकर शत-शत नमन करता है। उस उपयोगिता से लाभान्वित होने वाले अपना प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करके उस प्रक्रिया को अपनाने का उत्साह भरते थे। फलतः तीर्थयात्रियों की न केवल संख्या बढ़ती थी वरन् उनको प्रतिष्ठा भी होती थी। जहाँ तीर्थयात्री ठहरते वहाँ लोग निवास की धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, जलाशय, उद्यान एवं सेवा सुश्रूषा का प्रबन्ध करके सुविधा बढ़ाने का भरपूर प्रयत्न करते थे। तीर्थ संचालकों उस व्यवस्था के चलाने में किसी प्रकार की कठिनाई न पड़ने पाये इसलिए उदारमना कुछ न कुछ दान-दक्षिणा प्रस्तुत करके अपनी भाव श्रद्धा को प्रकट पल्लवित भी करते थे।

पुरातन को मृतक समझ कर उसकी आत्मा का श्राद्ध तर्पण करने से काम नहीं चलेगा। अभी उसमें जीवन बाकी है और इतनी गुंजाइश मौजूद है कि पुनर्जीवन का जीर्णोद्धार का प्रयत्न किया जा सके। राख से ढका अंगार काला और ठंडा दिखता है पर, उसे कुरेदने तथा ईंधन जुटाने से लपटें उठते भी देर नहीं लगती। तीर्थ चेतना का निर्धारण एवं इतिहास इतना महान है कि थोड़े से प्रयास से उसका जीर्णोद्धार हो सकता है। युग मनीषियों का कर्तव्य है कि वे इस महान परम्परा को दलदल में फंसी दुर्दशा से उबारें और उसे प्राचीन काल के स्तर तक पहुँचाने का नये सिरे से प्रयास करें।

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