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Magazine - Year 1981 - Version 2

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शांतिकुंज गायत्री नगर बनाम गायत्री तीर्थ

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First 28 30 Last
मानवी सत्ता के दो पक्ष हैं एक परोक्ष चेतना, दूसरा प्रत्यक्ष शरीर। चेतना का गुण है चिन्तन। शरीर का कर्तृत्व। इन दोनों को समुन्नत बनाते-बनाते पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचना यही है प्रगति का वास्तविक क्रम। इसकी पूर्ति के लिए तत्वदर्शियों ने दो महत्वपूर्ण विज्ञानों का निर्धारण किया है। चिन्तन की उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने के लिए अध्यात्म दर्शन और आचरण में शालीनता भर देने के लिए धर्म विधान। एक शब्द में इन्हीं दोनों का समन्वय ही आत्म-विद्या एवं ब्रह्म विद्या है। शास्त्रों की समग्र संरचना इसी एक प्रयोजन को विभिन्न तर्कों, तथ्यों एवं उदाहरणों के सहारे प्रस्तुत करते हुए हर वर्ग के हर पक्ष की उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ाने धकेलने के लिए हुई है।

चिन्तन के लिए धारणा और कर्तृत्व के लिए प्रेरणा आवश्यक है। धारण के लिए स्वाध्याय, सत्संग, मनन, मंथन की आवश्यकता पड़ती है। प्रेरणा के लिए जप, तप, भजन, पूजन, दान, पुण्य आदि अनेकों कर्मकांडों का आश्रय लेना पड़ता है। इन्हीं दोनों प्रयोजनों के लिए अध्यात्म का एक चिन्तनपरक और धर्म का क्रियापरक विशालकाय ढाँचा खड़ा किया गया है। ऋषियों के इसी अनुदान ने नर-पशु को नर-नारायण स्तर तक विकसित कर सकने वाले अध्यात्म विज्ञान की संरचना की है। यह इतना महत्वपूर्ण है कि उसे सुविधा सम्वर्धन वाले पदार्थ विज्ञान की तुलना में कुछ अधिक ही वजनदार कहा जा सकता है। वैभव की तुलना में आत्मबल की गरिमा भी तो स्पष्टतः अधिक है। दो कदम बढ़ाते हुए ही लम्बी मंजिल पूरी की जाती है। जीवन के प्रत्यक्ष और परोक्ष स्तरों को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाते हुए चरम लक्ष्य तक पहुँचने का उद्देश्य भी अध्यात्म और धर्म का अवलम्बन करने से ही पूर्ण होता है। महा मनीषियों ने इसी का पथ प्रशस्त करने के लिए अपनी बहुमूल्य संरचनाएँ प्रस्तुत की हैं और मनुष्य को सच्चे अर्थे में कृत-कृत होने का अवसर प्रदान किया है।

उत्कृष्ट चिन्तन और कर्तृत्व के प्रथम उद्देश्य अनेकानेक विधि-विधानों के सहारे सम्पन्न होते हैं, किन्तु ऋषि प्रणीत निर्धारणों में एक ऐसा भी है जिससे दोनों ही प्रयोजनों की पूर्ति एक साथ होती है और उसका लाभ हर स्तर का व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप ले सकता है। उस निर्धारण का नाम है- तीर्थ सेवन। उसका वास्तविक स्वरूप उपयुक्त वातावरण में रहकर परिष्कार और अभ्युदय के लिए महत्वपूर्ण आधार उपचार का आश्रय लेना है।

तीर्थ सेवन के ध्वंसावशेष अभी भी कहीं-कहीं देखने को मिल जाते हैं। माघ महीने में त्रिवेणी संगम पर कुछ लोग कल्पवास करते हैं। उन दिनों वे वहाँ अपनी एक पर्ण कुटी बनाकर रहते- हाथ से भोजन पकाते- संकल्प पूर्वक साधनारत रहते हैं। उस क्षेत्र में निकलकर कहीं बहार न जाने की मर्यादा को पालते और तपस्वी जीवन व्यतीत करते हैं। इसमें यदि क्रमबद्ध मार्गदर्शन भी जुड़ गया होता कार्यक्रम एक छत्र-छात्रा में नियंत्रण पूर्वक चलता तो प्राचीन काल के तीर्थ सेवन की एक झाँकी देखने का अवसर अभी भी मिल सकता था। मथुरा में वृज चौरासी कोस की यात्रा निकलती है। उसमें प्रायः ढाई महीने लगते हैं। इस बीच कई-कई पड़ावों पर कई-कई दिन यात्री लोग ठहरते हैं और उनके सामूहिक धर्मकृत्य चलते हैं। इस अवधि में उन सभी को संकल्पपूर्वक व्रतशील जीवनचर्या का परिपालन करना होता है। इस भ्रमणशील तीर्थ यात्रा की प्राचीन पद्धति को प्रमाण परिचय माना जा सकता है। यों उसमें भी उस उद्देश्य का समावेश होना चाहिए जो मात्र भक्ति ही नहीं ज्ञान और कर्म का आधार जोड़कर वर्तमान के परिष्कार और भविष्य के निर्धारण में सहायता कर सके।

तीर्थ प्रक्रिया का निर्धारण जिन दूरदर्शी महामानवों दारा किया गया उसकी भूरि-भूरि सराहना करते हुए भी उस पद्धति की अतीव उपयोगी एवं प्रेरणाप्रद मानते हुए भी- वह उत्तरदायित्व युग मनीषियों को ही वहन करना होगा की मूल प्रयोजन की अन्तरात्मा को जीवित रखा जा सके। मात्र लकीर पीटने की भेड़िया घसान में उलझ कर लोग परम्परा के नाम पर कुछ भी ऊट-पटांग करते अपनी शक्ति सामर्थ्यं का अपव्यय करते भटकते न रहें। आज की तीर्थ यात्रा कुछ ऐसी विडम्बनापूर्ण बन गई है कि उसमें दर्शन, स्नान एवं दान का उद्देश्य रहित सड़ा गला कलेवर ही शेष है।

तीर्थों का आधारभूत प्राचीन स्वरूप विलुप्त हो जाना- उनके स्थान पर अंधविश्वासों और निहित स्वार्थों का गठ बन्धन चल पड़ना, एक प्रकार से दुर्घटना जैसा दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। जो सामर्थ्य व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण की सत्प्रवृत्तियों में लगानी चाहिए थी यदि ऐसा ही भ्रम जंजालों में भटकती रहे तो उस व्यापक अपव्यय को अवांछनियता का परिपोषक ही माना जायेगा। पुण्यफल की वह उपलब्धि किस प्रकार हो सकेगी जिसके लिए उतना दूरदर्शी निर्धारण किया और उसको प्रचलित करने में अपनी प्रतिभा को एक प्रकार से दांव पर लगाया था।

कोसते रहने से कभी किसी प्रयोजन की पूर्ति नहीं हो सकती। मन की भड़ास निकाल लेना एक बात है और उलटा को उलट कर सीधी कर देना दूसरी।पर्यवेक्षण- समीक्षण की आवश्यकता उतनी ही है जिसमें अवांछनियता के प्रति आक्रोश उभरे और उसे हटाकर उपयोगी स्थानापन्न करने का उत्साह उछले। बात तो काम करने से बनती है। युग निर्माण हो या देव संस्कृति का पुनर्जीवन सभी के लिए रचनात्मक कार्यों का शुभारम्भ और सम्वर्धन आवश्यक है। तीर्थ प्रक्रिया का जीर्णोद्धार भी इससे कम में सम्भव नहीं कि उसके लिए परिस्थितियों के अनुरूप उपाय सोचा जाय। कुछ ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जाय जिसके सहारे उपयुक्तता का स्वरूप समझने एवं प्रभावी प्रतिफल देखने का जन-साधारण को अवसर मिल सके।

समस्या व्यापक है और उसका समाधान भी व्यापक ही होना चाहिए। पर व्यापकता का भी एक केन्द्र बिन्दु होता है। शिक्षा, चिकित्सा, पुलिस, संचार आदि को प्रक्रियाएं व्यापक रूप से फैली हुई हैं, पर उनको स्वस्थ एवं कार्यक्रम बनाने का काम तो किसी न किसी केन्द्र से होता है। महान परिवर्तन का विश्वव्यापी युगान्तरीय चेतना का सूत्र संचालन एवं विस्तार किसी एक केन्द्र में ही हो रहा है। तीर्थ प्रक्रिया का परिष्कार परिवर्तन करना हो तो उसके लिए भी कुछ योजनाबद्ध प्रयास करने होंगे।

कुछ समय पूर्व एक कदम देवालयों की जन-जागृति के केन्द्र बनाने के रूप में उठाया गया था। उनकी दुर्दशा पर आँसू बहाने या आक्रोश प्रस्तुत करने की तुलना में यह अधिक कारगर समझा गया कि एक आदर्श देवालय बनाकर जन-साधारण को यह सोचने, समझने का अवसर दिया गया कि जीवन्त और मृतक मन्दिरों के स्वरूप और परिणाम में क्या अन्तर होता है। इसके लिए मथुरा के गायत्री तपोभूमि देवालय की स्थापना की गई उसमें पूजा-अर्चा तो अन्यान्यों का तरह ही हुई, पर विशेषता उन कार्यक्रमों के जुड़े रहने से हुई जिनने समूचे वातावरण को ही उलट-पुलट कर रख दिया। लोगों को बहुत कुछ देखने समझने का अवसर मिला और वह मन्दिरों को कोसने की तुलना में हजारों गुना अधिक कारगर सिद्ध हुआ। देवालय परम्परा की सर्वत्र उपयोगिता समझी गई और दिन-दिन तिरोहित होती जाने वाली विचारशीलों की भी श्रद्धा वापस लौट आई।

दो वर्ष जैसी स्वल्प अवधि में 2400 प्रज्ञा मंदिरों का बन जाना, उसी एक स्थापना का प्रतिफल है जिसे गायत्री तपोभूमि के रूप में देखने परखने का असंख्यों को अवसर दिया गया था। अब यह प्रज्ञा देवालयों की संस्थापनाएं चौबीस सौ न रहकर चौबीस हजार बन पड़े तो श्रद्धा के प्रस्तुत उभार को देखते हुए किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। इन देवालयों की भूमिका कुछ ही समय में जन जागृति केन्द्र के रूप में दृष्टिगोचर होने लगेगी तो पुराने मन्दिरों को भी अपने को बदल लेने पर उपेक्षित तिरस्कृत होने के दो रास्तों में से एक को चुनना पड़ेगा। परिवर्तन की दूरदर्शितापूर्ण पद्धति यही हो सकती थी। उसी को अपनाया और सफल बनाकर दिखाया गया है।

अब दूसरा प्रयोग तीर्थ स्थापना के रूप में किया जा रहा है। पद्धति वही अपनाई जा रही है जो देवालयों के पुनर्जीवन का लक्ष्य समान रखकर अपनाई गई। अच्छा होता पुराने तीर्थ ही अपने आपको बदल लेते। उनमें से न्यूनतम ऐसे हैं जिनकी साधन सम्पदा और प्रतिष्ठा एक आत्म विज्ञान का स्वतन्त्र विश्व विद्यालय चला सकने के लिए सर्वथा उपयुक्त एवं पर्याप्त है। धर्म के नाम पर आजीविका उपार्जित करने वाले 60 लाख तथाकथित साधु संन्यासी यदि आडम्बरों का लवादा उतारकर प्राचीन काल के संत ऋषियों की रीति-नीति अपना सके होते तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती। सात लाख गाँव और साठ लाख ‘महात्मा’। हर गाँव पीछे साढ़े आठ महात्मा आते और अपने देश को प्राचीनकाल की तरह ‘देव समाज’ बना देने में कब के सफल हो गये होते। यदि नगर देवालयों की तीर्थों के साथ जुड़ी हुई लोक श्रद्धा एवं प्रचुर सम्पदा के सम्बन्ध में भी है। यदि वह सच्चे अर्थों में अध्यात्म एवं धर्म की सेवा में प्रयुक्त हो सकी होती तो भारतीय धर्म संस्कृति अपनी दार्शनिक सम्पदा के कारण कब की विश्व संस्कृति बन गई होती। ईसाई धर्म को जन्मे दो हजार वर्ष भी नहीं हुए कि उसने विश्व को एक तिहाई जनता एक सौ पचहत्तर करोड़ लोगों को अपने धर्म में दीक्षित कर लिये। इस्लाम की चौदहवीं सदी चल रही है इसमें वे 100 करोड़ से ऊपर हैं। एक हिन्दू धर्म है जो घटते-घटते मात्र 35 करोड़ जितना रह गया है उसमें भी सिख जैसे कुछ सम्प्रदाय अपने में हिन्दू धर्म से प्रथम मान रहे हैं। संख्या और स्तर की दृष्टि से भारतीय धर्म की ऐसी दुर्गति के अनेक कारणों में एक यह भी है कि यहाँ के तीर्थ देवालय और साधु ब्राह्मण एक प्रकार निष्प्राण ही नहीं हो गये वरन् सड़न से विषाक्तता भी उत्पन्न करते बढ़ते चले जा रहे हैं।

देर तक सोचते और ताने-बाने बुनते रहने के उपरान्त अब वह समय आ गया जबकि देवालयों की तरह ही तीर्थों का काया-कल्प करने के लिए उसके परिष्कृत स्वरूप की एक केन्द्रीय स्थापना की जाय। इस उद्देश्य के लिए सन् 51 की गायत्री जयन्ती के दिन यह पंक्तियां लिखी और घोषणा की जा रही हैं कि शान्ति-कुँज गायत्री नगर की इमारत में ही गायत्री तीर्थ का शुभारम्भ किया जा रहा है। गायत्री जयन्ती के दिन गायत्री तीर्थ की स्थापना मुहूर्त की दृष्टि से भी सर्वथा उपयुक्त पड़ती है। गायत्री नगर के स्थान पर गायत्री तीर्थ नाम भी अधिक भारी भरकम पड़ता है। एक संयोग और भी इस अवसर पर जुड़ गया है कि शान्ति-कुज की दशाब्दी भी ठीक इसी दिन आ पड़ती है। अब से ठीक दस वर्ष पूर्व इसी दिन मथुरा छोड़कर हरिद्वार के लिए मिशन के सूत्र संचालकों का स्थानान्तरण हुआ था। शान्तिकुँज की गतिविधियाँ विगत दस वर्षों में प्रशिक्षण परक रही हैं। यहां विभिन्न स्तर के सत्र चलते रहे हैं। अब उसमें वे सभी साधनाएं प्रक्रियाएं नये सिरे से जोड़ी जा रही हैं जो तीर्थ के प्राचीन स्वरूप के जीवन्त दर्शन करा सकने में समर्थ हो सके। इस स्थापना को अगले दिनों युगान्तरकारी महाप्रयत्नों में प्रज्ञा पीठ निर्माणों की तरह ही मूर्धन्य एव ऐतिहासिक माना जायेगा।

प्राचीनकाल में न केवल स्थानों, आश्रमों को ही तीर्थ कहते थे, पर साधु वर्ग के लोकसेवियों का एक दल भी ऐसा था जो परिभ्रमण करते हुए जहाँ-तहाँ रुक-रुककर वही कार्य सम्पन्न करता था जो तीर्थों का लक्ष्य एवं प्रयास है। ऐसे लोग अपनी योजना एवं कार्य विधि का परिचय देने के लिए नाम साथ गोत्र उपनाम की तरह ‘तीर्थ’ शब्द का उपयोग भी करते थे। साधु सम्प्रदाय में एक वर्ग तीर्थ कहलाता है उसे सभी जानते हैं। स्वामी रामतीर्थ का नाम इस संदर्भ में हर किसी की जवान पर है। अगले दिनों इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे परिव्राजकों की एक सेना खड़ी की जायेगी, जो भगवान बुद्ध के धर्म प्रवर्तन में संलग्न परिव्राजकों के समतुल्य आंकी जा सके। ‘तीर्थ’ उपनाम दिये बिना ही कुछ प्राणवान ऐसे विनिर्मित किये जायेंगे जो विनिर्मित प्रज्ञा संस्थानों में से जहाँ कहीं सम्भव हो वहाँ उन्हें प्रज्ञा तीर्थों में विकसित कर सकें। गायत्री तीर्थ अभी तो एक ध्रुव केंद्र की तरह शान्तिकुँज गायत्री नगर में ही विकसित किया जा रहा है, भविष्य में उसका वैभव विस्तार उसी आधार पर उसी द्रुतगति से होगा जैसा कि प्रचलित तीर्थ की स्थापना किसी महती चेतना के तत्वावधान में बनी और व्यापक बनती बढ़ती चली आई।

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