
अहिंसा वीरों का आभूषण
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भारतीय धर्म शास्त्रों में अहिंसा का बड़ा महत्व बताया गया है। इसका सामान्य-सा अर्थ है किसी की हिंसा न करना, निरपराध प्राणियों को न सताना और न ही किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाना। इस अर्थ के कारण बहुत से लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि जब किसी को किसी भी प्रकार न सताना और कष्ट न देना अहिंसा है तो अपराधियों और हिंसक प्राणियों के लिए निर्द्वन्द्व होने की सम्भावना खुल जाती है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। किसी को कष्ट न पहुँचाने की रीति-नीति का अर्थ यह नहीं है कि अपराधियों और दूसरों को हानि पहुँचाने वालों को भी दण्डित नहीं किया जाय, उनके कृत्यों का प्रतिकार नहीं किया जाये। ऐसे कृत्यों का दमन करने के लिए बरती गई, दण्ड-नीति को मनीषियों ने वैदिकी हिंसा कहा है और घोषित किया है, “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।” वैदिकी हिंसा से तात्पर्य है विचार और विवेकपूर्वक अवांछनीय तत्वों का दमन।
इस युग के विश्वबन्धु राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अहिंसा का उपयोग कर ही विदेशियों के शासन से भारत को मुक्ति दिलाई थी। अहिंसा का अर्थ बताते हुए उन्होंने लिखा है, “अहिंसा वह स्थूल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना तो दूर कुविचार मात्र हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा हैं। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर अनाधिकारपूर्वक, स्वार्थवश कब्जा रखना भी हिंसा है।’’
अहिंसा का सूक्ष्म अर्थ करते हुए भारतीय मनीषियों ने प्राणी मात्र में आत्मभाव रखना, उनमें अपनी ही आत्मा के दर्शन करना अहिंसा बताया है, परन्तु यह कहीं भी नहीं लिखा है कि आततायी, अनाचारी के अत्याचारों को भी सहन किया जाना भी अहिंसा है। महात्मा गाँधी ने स्वयं कई अवसरों पर अवांछनीय तत्वों का कड़ाई से सामना करने को अहिंसा बताया है। घटना उन दिनों की है जब गाँधीजी ने अहिंसक आन्दोलन के कई कार्यक्रम दिये गये थे और बताया था कि विदेशी शासन को अहिंसात्मक उपायों से किस प्रकार हटाया जाय? उन्हीं दिनों गुजरात विद्यापीठ की कुछ लड़कियां गाँधीजी के पास पहुंची। वहाँ उन्होंने किशोरीलाल भाई से कहा, ‘देखिये कुछ लड़के कभी-कभी छेड़खानी किया करते हैं। बताइये क्या करें? कैसे उनका प्रतिकार करें?’
निश्चय ही वे लड़कियां अहिंसात्मक प्रतिकार का उपाय पूछ रही थीं। किशोरीलाल भाई ने कहाँ, ‘तुम्हारे पैरों में चप्पलें हो होती ही हैं। क्यों न उन्हें निकाल कर लड़कों की उनसे पिटाई कर देती हो।’
यह उत्तर सुनकर लड़कियां आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने कहा, ‘यह तो हिंसा है। हम तो अहिंसात्मक उपाय जानने के लिए आई हैं।’ किशोरीलाल भाई बोले- ‘यदि तुम्हें इसमें शक हो तो या तुम्हारा समाधान न हुआ हो तो तुम खुद ही बापू से जाकर पूछ लो न।’
लड़कियां गाँधीजी के पास गईं और उन्होंने वही बातें दोहरा दी जो किशोरी भाई से हुई थीं। गाँधी जी ने इस पर कहा, बस! किशोरीलाल ने इतना ही कहा। मैं तो कहूँगा तुम सब लड़कियाँ एक जुट होकर उन लड़कों को रस्सी से बाँधकर वह पिटाई करो कि वे जीवन भर याद रखें। बताओ तो बलात्कारी के सामने क्या अहिंसात्मक उपाय हो सकता है? उनके अत्याचारों को सहन कर लेना अहिंसा नहीं कायरता है। उस समय तो यही उचित होगा कि जो ऐसा अत्याचार करना चाहे और जिसके प्रति अत्याचार किया जाए, उसके पास यदि छुरी हो तो वह छुरी भौंक दे। उस समय उस परिस्थिति में यही अहिंसा है।
गाँधीजी अहिंसा को कायरों का नहीं, वीरों का भूषण कहा करते थे। इसे उन्होंने वीरों का मार्ग बताया था। अहिंसात्मक प्रतिकार से उनका आशय था बिना किसी को कष्ट दिए ऐसा नैतिक दबाव उत्पन्न करना कि अत्याचारी को हार कर सही रास्ते पर आना पड़े। निश्चित ही इसके लिए बड़े साहस, सन्तुलन और धैर्य की आवश्यकता है। अहिंसा के शस्त्र से लड़े गए स्वाधीनता संग्राम में हजारों स्वतंत्रता सेनानी अपनी पीट पर लाठी, कोड़ों और बन्दूक के कुन्दों का वार सहते थे परन्तु आन्दोलनों से विरत नहीं होते थे।
घटना सन् 1923 की है। तब गुजरात के पंचमहाल एवं गोधरा जिले जिले में भीषण साम्प्रदायिक उपद्रव हुए। वहाँ के बहुसंख्यक वर्ग द्वारा पीड़ित हिंदू भागकर महात्मा गाँधी के पास पहुँचे और उन्होंने मुसलमानों के अत्याचारों की शिकायत उनसे की। बापू ने सारी बातें सहानुभूतिपूर्वक सुनी और पूछा- ‘‘तुम लोगों ने इसके मुकाबले में क्या किया?” आगन्तुकों में एक नेता जैसा व्यक्ति था। उसने कहा, ‘करते क्या? आपकी अहिंसा हमारे हाथ-पाँव सब बाँध रखे थे।’ अहिंसा का यह अर्थ सुनकर बापू क्षुब्ध मन से बोले, ‘सो तो ठीक है। लेकिन मेरी अहिंसा ने यह थोड़े ही कहा था कि तुम वहाँ से कायरों की तरह भाग कर अपनी बुज़दिली की रिपोर्ट देने के लिये मेरे पास आते। मेरी अहिंसा तो साहसपूर्वक मर-मिटने का सन्देश देती है। तममें यदि मर-मिटने का साहस नहीं था तो अपने मन के अनुसार उस स्थित का मुकाबला करना चाहिए था। तुमने मेरे मत को समझा नहीं और अपने मत पर चलने की हिम्मत नहीं की। अहिंसा कायरों की नहीं वीरों की है। जहाँ किसी तरह जान बचा लेने की भावना है या जहाँ खतरे से मुंह मोड़ने या भाग जाने की सम्भावना है वहाँ अहिंसा नहीं हो सकती। इससे तो मैं हिंसा को श्रेष्ठ मानता हूँ, जिसमें भय, संकट या हमले का सीधा सामना किया जाता है।
दुष्टता या अवाँछनीय का दमन, प्रतिरोध, किसी भी प्रकार किया जाय, ऐसा ‘मन्यु’ अहिंसा के अंतर्गत ही आता है। शास्त्र से हो या शस्त्र से, दुष्टता का अवांछनियता का प्रतिकार कदापि हिंसा से नहीं हो सकता। उसकी गणना भी अहिंसा में ही होगी क्योंकि अवाँछनीय तत्वों का दमन करने से उनके कारण पीड़ित होने वाले लोगों को निश्चित ही इससे त्राण मिलेगा और अपेक्षाकृत अधिक लोगों को सुख चैन से हरने का अवसर मिलेगा, निरापद प्राणियों को अनावश्यक कष्ट न सहना पड़ेगा।
किसी भी प्रकार आततायी एवं अत्याचारी का दमन मनुष्यता के हित में ही है। और अहिंसा का का अर्थ ही है मनुष्य जाति का हित-अधिक से अधिक लोगों का कल्याण। इसके लिए अहिंसक स्वभाव के व्यक्ति दृढ़तापूर्वक उनके विषयों में दृढ़ रहते हैं जिनसे कि मनुष्य का हित सधता हो। प्रसिद्ध अणु वैज्ञानिक ‘नील्स बोहर’ ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वे अपनी बौद्धिक सामर्थ्य का उपयोग केवल मानव जाति के कल्याण के लिए ही करेंगे उल्लेखनीय है कि नील्स बोहर ने ही सर्वप्रथम अणु की संरचना पर प्रकाश डाला और उसकी व्याख्या की थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर के नाजी सैनिक उन्हें पड़कर कर ले गये और अणुबम बनाने के लिए दबाव डालने लगे। बोहर अणु की विनाशकारी क्षमता से परिचित थे। वे जानते थे कि यदि अणुबम बना दिया गया तो उसके द्वारा भयंकर विनाश ही होगा। इसलिए उन्होंने नाजी अधिकारियों के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पहले तो उन्हें कई प्रलोभन दिये गए, पर मनुष्य कल्याण के लिए समर्पित यह मनीषी इन प्रलोभनों के आगे क्या झुक सकता था? प्रलोभनों को ठुकरा दिये जाने के बाद उन्हें तोड़ने के लिए यंत्रणाएं दी गईं। इससे भी वे विचलित नहीं हुए। एक उनकी जान ही नहीं ली और सब कुछ कर लिया गया। अनेकों बार उन्हें मृत्यु के द्वार पर ले जाया गया और वापस पीछे खींच लिया गया ताकि वे डरकर तैयार हो जायें। दृढ़व्रती नील्स बोहर न तो डरे और न ही अपनी प्रतिज्ञा से डिगे। किसी प्रकार भाग कर वे अमेरिका जा पहुँचे, जहाँ आजीवन मानवता की सेवा करते रहे। अहिंसा सही अर्थों में साहस का पर्याय है, शूरवीरों का भूषण है। आतंक एवं दमन का प्रतिकार भी अहिंसा में ही आता है। इस शब्द का दुरुपयोग न हो, न उसकी ओट में कोई अपनी कायरता छिपायें। इस आध्यात्मिक गुण की व्याख्या का आज की परिस्थितियों में सही रूप में, प्रस्तुतीकरण किया जाना जरूरी है।