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Magazine - Year 1981 - Version 2

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पक्षी जिन्हें पुरुषार्थ के बिना चैन नहीं

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आराम से रहना और मजे की जिन्दगी जीना ही आदमी का लक्ष्य बना हुआ है। बड़ा भी उसे ही समझा जाता है जिसे अपने शरीर से कम से कम श्रम करना पड़े। न जाने किन कारणों स यह धारणा बन गई है कि बिना श्रम किये, बिना कष्ट उठाये सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करना ही बड़प्पन की निशानी है। इसी धारणा या मान्यता के परिणाम स्वरूप लोग अधिक से अधिक शौक मौज से भरे दिन काटना चाहते हैं तथा विलासिता में निमग्न रहने के साधन ढूंढ़ते हैं। तथाकथित बड़े लोगों की आजकल यही प्रवृत्ति है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए वे अधिक से अधिक धन और सुविधा साधन इकट्ठे करते रहते हैं। साधारणजन भी इन्हीं को अपना आदर्श मान कर अधिक से अधिक निष्क्रियता भरा जीवन जीने के लिए लालायित रहते हैं।

यह निष्क्रियता गरीब को और गरीब तथा सम्पन्न को और विलासी बनाती जाती है। जीवन स्फूर्ति के चिह्न उनमें से विलुप्त होते चले जाते हैं। छोटा और दरिद्र कहा जाने वाला वर्ग कुछ तो समाज व्यवस्था में आई विसंगतियों के कारण अपनी स्थिति से ऊपर नहीं उठ पाता और कुछ उत्साह तथा उमंगों की दरिद्रता के कारण दिन-दिन गिरना चला जाता है। इनमें भी आलस्य और प्रमाद प्रमुख कारण हैं, जो व्यक्ति को अकर्मण्य और निष्क्रिय बनाते हैं तथा इन कारणों से वह न अधिक कुछ कमाने की चेष्टा करता है न अधिक कुछ पाने का पुरुषार्थ। जब भूख विवश करती है, आवश्यकता अपरिहार्य बन जाती है तब वह कुछ करने को खड़ा होता है और उतना ही करता है जितना करने से केवल पेट का गड्ढा भर जाता है। इसके बाद उसे भी आलस्य, प्रमाद, व्यसन आदि की, गपशप, आरामतलबी और आवारागर्दी की सूझती है।

अपने आपके सम्बन्ध में बेखबर इस तरह के लोग जैसा गन्दा गलीज जीवन व्यतीत करते हैं उसे देख कर तरस ही आता है। इस समय को कदाचित वे किसी उपयोगी कार्य में ही लगा दें तो उससे जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में कुछ सहायता मिल सकती है। पिछड़ेपन का मुख्य कारण निर्धनता और अशिक्षा ही है पर सब से बड़ा करण है मानसिक बौनापन, जिसके रहते व्यक्ति विशेष कुछ करने के लिए उत्साहित नहीं होना। कहना नहीं होगा कि इसी व्यापक छूत की बीमारी के कारण हमारा देश पिछड़ेपन के घोर घने अन्धकार में डूबा पड़ा है।

प्रकृति ने मनुष्य को ही नहीं प्राणीमात्र को अनवरत सक्रिय रहने की प्रेरणा देते हुए सृजा है। आरामतलबी या आलसीपन ये दोनों ही वृत्तियां चेतन प्राणी की मूल प्रकृति के विपरीत हैं। यदि अंतःकरण को दुर्बुद्धि ने मूर्छित न कर दिया हो तो उससे सदैव सक्रिय पुरुषार्थ करने, साहसिकता का परिचय देने की शौर्य प्रवृत्ति उमड़ती रहेगी। पराक्रम और पुरुषार्थ से ही सच्चा आनन्द तथा सन्तोष मिलता है, इसे पक्षी भी अच्छी तरह जानते हैं तथा इस जानकारी को अपने जीवन क्रम में उतार कर तदनुकूल आचरण करते रहते हैं। उदाहरण के लिये पक्षियों में से कई ऐसे होते हैं जो बदलती ऋतुओं का आनन्द लेने के लिए लम्बी यात्राएँ करते हैं। इसके लिए उन्हें भारी श्रम करना पड़ता है और बड़ा जोखिम उठाना पड़ता है। इसके लिए मनोयोग भी कम नहीं जुटाना पड़ता है। यदि वे सोचने लगें कि बेकार झंझट में क्यों पड़ा जाए? चैन की जिन्दगी क्यों न गुजारी जाए? तो वे इस प्रकार की साहसिकता का परिचय देने से मिलने वाले आनन्द और अतिरिक्त प्रसन्नता का अनुभव कहाँ कर पाते?

इस तरह का आनन्द प्राप्त करने के लिए उनके भीतर से ऐसी उमंग उठती है कि वे उस उमंग को पूरा किये बिना नहीं रहते। पेट तो कहीं भी भरा जा सकता है और दिन भी काटे जा सकते हैं। किन्तु ऐसा जीना तो मृत जैसा जीना होता है। यह मरी हुई जिन्दगी है जिसे मनुष्य भले ही पसन्द करे, पशु-पक्षी से लेकर कीट-पतंग तक, जो प्रकृति प्रेरणा के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं कदापि इस तरह का जीवन पसंद नहीं करते।

कुछ पक्षी तो ऐसे होते हैं जो अपनी साहसिक यात्राओं से मनुष्य को भी मात कर देते हैं। संभवतः वे इस तरह की यात्राओं द्वारा मनुष्य को भी उत्साही परिश्रमी तथा साहसी और महत्वाकांक्षी बनने की प्रेरणाएँ देते हैं। उदाहरण के लिए सितम्बर के सप्ताह में भारत में ऐसे अनेक रंग बिरंगे पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो गर्मी और बरसात में यहाँ नहीं होते, ये पक्षी जर्मनी, साइबेरिया, चीन, तिब्बत तथा मध्य एशियाई देशों से हजारों मील दूर की यात्रा करके यहाँ आते हैं। इन पक्षियों में तिघाटी चैती, हंस, सुरखाव, लालसर, मुर्गावी, खंजन आदि प्रमुख हैं। विशेषज्ञों का कथन है कि इस तरह के करीब दो हजार प्रकार के पक्षी इन यात्राओं पर निकलते हैं। इसमें पैर के अँगूठे के बराबर ‘स्वेटपेनिकल’ जैसे पक्षी भी होते हैं तथा पच्चीस पौंड भारी आदम कद के सारस जैसे बड़े पक्षी भी होते हैं। इनमें से अधिकांश पक्षी उत्तरी ध्रुव के आसपास वाले इलाकों में रहने वाले होते हैं, आहार की सुविधा, ऋतु प्रभाव से बचाव और सैर सपाटे का आनन्द इन पक्षियों की यात्रा का उद्देश्य रहता है, आश्चर्य की बात तो यह है कि ये पक्षी अपनी यात्रा अवधि पूरी होने के बाद अपने स्थानों पर वापस लौट जाते हैं तथा जिन पेड़ों पर घोंसले बनाकर रह रहे होते हैं, वापस उन्हीं में जा बसते हैं। भारत में भी यहाँ वहाँ मारे-मारे नहीं फिरते, बल्कि यहाँ भी वे अपने नियत स्थानों पर आकर डेरा बनाते तथा रहते हैं और जब तक जीवित रहते हैं, उन्हीं क्षेत्रों में नियत स्थान पर निवास करते हैं।

इन पक्षियों की ऊँची उड़ानों और लम्बी यात्राओं का जो अध्ययन किया गया है, उनसे प्राप्त निष्कर्ष विस्मय विमुग्ध कर देते हैं। ‘ ‘बागटेल’ पक्षी 200 मील की यात्रा कर बम्बई के निकट एक मैदान में उतरता है और फिर वहाँ से विभिन्न स्थानों के लिए बिखर जाते हैं। ‘गोल्डन फ्लावर’ नामक पक्षी का मूल निवास अमेरिका है। पतझड़ आरम्भ होते ही वे भारत की ओर प्रयाण कर देते हैं तथा यहाँ विश्राम करते हैं। पतझड़ समाप्त होते ही वे वापस अपनी मातृभूमि की ओर उड़ चलते हैं आते समय वे समुद्री क्षेत्रों के ऊपर उड़ते हैं तथा वापस लौटते समय थल मार्ग अपनाते हैं, उनके घोंसले प्रायः अलास्का में होते हैं, वहीं वे अण्डे देते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में वे करीब ढाई हजार मील की यात्रा कर लेते हैं। पृथ्वी की परिक्रमा लगभग 3000 मील है। वे इतनी लम्बी यात्रा कर करीब पृथ्वी की परिक्रमा ही लगा जाते हैं।

आर्कटिक टिटहरी इन सब घूमन्त पक्षियों में आगे है। वह उतरी ध्रुव के समीपवर्ती क्षेत्रों में रहती है तथा पतझड़ ऋतु में दक्षिणी ध्रुव पहुँच जाती है। बसन्त आते ही वह वापस उतरी ध्रुव लौट आती है। जर्मनी के बगुले चार महीने की अवधि में 4000 मील की यात्रा पूरी करते हैं। रूसी बतखें भी करीब 5000 मील का सफर कर लेते हैं। ये पक्षी औसतन 200 मील प्रतिदिन उड़ते हैं। सबसे अधिक उड़ान भरने वाला पक्षी हैटर्नस्टार जो प्रतिदिन लगभग 500 मील उड़ते हैं और वह भी 17 हजार फीट की ऊंचाई पर उसकी ऊँची उड़ान केवल समुद्री क्षेत्र पर ही कम होती है किन्तु फिर भी तीन हजार फुट ऊँचे तो तब भी वह उड़ते हैं।

इतनी खतरनाक जोखिम भरी और कष्ट साध्य उड़ान भरने के पीछे क्या कारण है? क्या इनके लिए ये उड़ानें भरना अनिवार्य है? सचमुच इनके बिना पक्षियों का कोई गुजारा नहीं? आदि प्रश्नों का उतर प्राप्त करने के लिए विशेषज्ञों ने कई तरह से अध्ययन किये हैं। यह एक विचारणीय पहलू है भी सही कि आखिर ऐसा क्या कारण है, जिसके लिए उन्हें जान जोखिम में डालने वाला यह अभियान चलाना पड़ता है? इस सम्बन्ध में अध्ययन करने पर विज्ञानियों ने पाया है कि बाह्य दृष्टि से उनके सामने ऐसी कोई बड़ी कठिनाई नहीं होती, जिसके करण उन्हें इतना बड़ा जोखिम उठाने के लिए विवश होना पड़े। आहार की, ऋतु प्रभाव की घट-बढ़ होती रह सकती है, पर दूसरे अन्य पक्षी भी तो इन्हीं परिस्थितियों में किसी प्रकार निर्वाह करते हैं। फिर इन सैलानी पक्षियों के लिए ही ऐसी कौन-सी मुसीबत पैदा हो जाती है कि उन्हें यात्रा का सरंजाम जुटाना पड़ता है?

इस प्रश्न का उतर देते हुए वैज्ञानिक बताते हैं कि उस समय, जब पक्षियों के यात्रा पर निकलने का समय आता है तब उनके भीतर कुछ विशेष रसों का स्राव होता है। यात्रा आरम्भ होने के पूर्व इन पक्षियों की वृक्क ग्रन्थियों में कुछ रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं। जिस प्रकार कुछ बढ़े हुए हारमोन अपने समय पर काम वासना के लिए बेचैनी उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार की बेचैनी उत्पन्न करने वाले रस उन दिनों स्रवित होने लगते हैं। इन बढ़े हुए रसों के कारण पक्षी लंबी यात्राओं के लिए बेचैन होने लगते हैं। इन निष्कर्षों को प्राप्त करने के लिए किये गए प्रयोगों के दौरान कुछ पक्षियों को पिंजड़े में बन्द रखकर भी देखा गया। जब यात्रा का समय आया तो पाया गया कि पिंजरे के भीतर रहते हुए भी पक्षी छट-पटाने लगते हैं। यात्रा के लिए उमंग उत्पन्न करने वाले हारमोन्स न केवल यात्रा की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं बल्कि उसके लिए शरीर में आवश्यक साधन व्यवस्था भी जुटाते हैं। पंखों में अतिरिक्त शक्ति, खुराक का समुचित साधन न जुट सकने की क्षति पूर्ति करने के लिए बढ़ी हुई चर्बी, साथ उड़ने की प्रवृत्ति, समय और दिशा का ज्ञान तथा नियत स्थान की पहचान जैसी अनेक अद्भुत विशेषताएं इन पक्षियों की होती हैं।

‘वाइल्ड लाइफ रिसर्च इन्स्टीट्यूट’ के निर्देशक डा. जियाफ्रे मैथ्यूस के अनुसार इन पक्षियों के पास एक विशेष प्रकार की जैविक घड़ी होती है, जो समय आने पर अपना अलार्म बजा देती है। कनाडा के अल्वर्ट विश्व विद्यालय में किये गए प्रयोगों में भी इस जैविक घड़ी की बात पुष्ट होती है। इन पक्षियों में समय सम्बन्धी भ्रम उत्पन्न करने लिए कुछ पक्षियों को पिंजरे में बन्द रखा। उन्होंने पिंजरे के सामने मोमबत्तियां जलाकर दिन लम्बे होने का भ्रम पैदा करने की चेष्टा की। शुरू में तो पक्षी कुछ क्षणों के लिए बहकावे में आ गए परन्तु कुछ ही क्षणों बाद वे शान्त हो गए। वस्तुस्थिति उनकी समझ में आ गई।

ऐसी ही जैविक घड़ी प्रकृति ने मनुष्य में भी स्थापित कर रखी है। इस घड़ी से जीव चेतना अपने आप ही समय-ज्ञान प्राप्त करती रहती है और नियत समय पर सोने, जागने, भोजन करने, अभ्यस्त नित्यकर्म निबटाने तथा सोचने-समझने की प्रेरणा देती रहती है। पक्षियों की काया में प्रकृति द्वारा की गई व्यवस्था के परिणाम स्वरूप ही उनके शरीर, मन और अंतर्मन इस प्रकार के समस्त साधन जुटाते रहते हैं, जिससे उनकी यात्रा प्रवृत्ति तथा प्रक्रिया पूरी होती रहती है और वे हजारों मील की यात्रा कर वापस अपने मूल-स्थान पर वापस लौट आते हैं। दिशा ज्ञान सम्बन्धी विशेषता का अध्ययन करने के लिए एक कृत्रिम अन्तरिक्ष ग्रह से इन पक्षियों का निरीक्षण किया गया तो पता चला कि तारों को स्थान बदलते रहने पर भी पक्षियों ने उसी दिशा में उड़ना जारी रखा, जिसमें वे उड़ते थे। इससे सिद्ध होता है कि लम्बी उड़ानें भरने तथा आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए पक्षी आत्म-निर्भर हैं, इसके लिए उन्हें किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।

कुल मिला कर प्रकृति ने इन पक्षियों को उड़ने तथा सक्रिय जीवन व्यतीत करने की भरपूर सुविधा तथा व्यवस्था दे रखी है। ऐसा नहीं होता कि कोई प्राणी आलसी और विलासी बन कर अपनी प्रतिभा को नष्ट करे। प्रकृति इन यात्रा प्रेमी पक्षियों को यही प्रेरणा देती है कि वे विभिन्न स्थानों के सुन्दर दृश्य देखें और वहाँ के ऋतु प्रभाव एवं आहार-बिहार और हर्षोल्लास का आनन्द उठाते हुए अपनी क्षमता तथा योग्यता को परिपुष्ट करें, मनुष्य के लिए भी उसका यही सन्देश है। किन्तु श्रेष्ठ होने का अहंकार पालकर उसने आरामतलबी की घातक प्रवृत्ति को पाल लिया है, जो हर दृष्टि से उसका अहित ही करती है।

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