
मानवी काया कितनी अद्भुत कितनी सशक्त
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सामान्यतया यह समझा जाता है कि मानव शरीर जिस क्रम से चल रहा है ठीक वैसा ही है। भोजन, श्रम, शयन जैसे ढर्रे के कार्य प्रत्येक मनुष्य द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। किन्तु इसकी सीमा इतनी ही नहीं है। यह शरीर जितना विलक्षण है उतनी ही इसकी संभावनाएं असीम हैं। इन विशेषताओं को पहले दैवी अनुग्रह समझा जाता रहा है किन्तु मानवी शरीर के कण-कण में विशेषताएँ भरी पड़ी हैं। ये विशेषताएं मनुष्य के अन्तराल में दबी हुई प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं जिनका उपयोग मनुष्य सामान्य जीवन क्रम के लिए न तो कर पाता है न ही इनसे अवगत होता है। कभी-कभी किन्हीं व्यक्तियों में अनायास कुछ ऐसी विलक्षणताएं परिलक्षित होने लगती हैं तो उन पर आश्चर्य किया जाता है। पर वस्तुतः वह होता इतना है कि प्रसुप्त कारणवश जागृत होने का अवसर मिल गया। विशिष्टता उभर कर ऊपर आ गई।
कुछ वर्षों पूर्व समाचार पत्रों में पश्चिम जर्मनी की एक घटना प्रकाशित हुई थी। एक अधेड़ महिला ने विष खाकर आत्म-हत्या करने का प्रयास किया। डाक्टरों ने उसके शरीर के परीक्षण करने पर पाया कि उस महिला के यकृत ने कार्य करना बन्द कर दिया है तथा गुर्दे खराब हो गये हैं। हृदय की धड़कन में मात्र जीवन के कुछ चिन्ह दिखायी पड़ रहे थे। डा. लैम्फैल ने अनेकों उपचारों के बाद भी देखा कि रोगी की मूर्छा में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ रहा है। उन्होंने नया प्रयोग आरम्भ किया।
मरीज के प्रायः मृत शरीर को काँच के बर्तन में रखकर बर्फ से जमा दिया। बयालीस दिनों तक इस अवस्था में रखने के पश्चात् डा. लैम्फैल ने लाश को बाहर निकाला। धीरे-धीरे उसको गर्मी देने पर उन्होंने देखा कि मृत शरीर में हलचल हो रही है। इस प्रकार गर्मी देने का क्रम तीन दिनों तक चलता रहा। परिणाम स्वरूप वह महिला जीवित हो उठी। वैज्ञानिकों को सबसे आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने देखा कि कुछ दिनों के बाद वह महिला पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, युवती एवं सुन्दर दिखायी दे रही है। उसने एक युवक से दुबारा विवाह किया तथा वे अभी भी जीवित हैं।
मनुष्य शरीर के अन्दर जो थकावट पैदा होती है, उसे दूर करने के लिए विश्राम की आवश्यकता होती है। नींद के उपरान्त शरीर में स्फूर्ति, नवशक्ति का संचार होने लगता है। दिन भर की थकान दूर हो जाती है। इसका आभास सहज रूप में प्रत्येक व्यक्ति को होता है। उपवास में पाचन तंत्र को विश्राम दिए जाने पर वह अधिक शक्तिशाली बनता है। कोष्ठबद्धता, मलावरोध आदि विकृतियां दूर हो जाती हैं। शारीरिक कोशिकाओं को बाह्य विकृतियों से लड़ने की शक्ति विश्राम अवधि में मिलती है। चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार मस्तिष्क की कोशिकाओं का पूर्ण विकास गहरी निद्रावस्था में ही होता है। हृदय रोग जैसी भयंकर बीमारी में दवाएँ उतनी प्रभावशाली सिद्ध नहीं होतीं जितनी कि विश्राम में। कुशल चिकित्सक हृदय रोग के मरीज को पूर्णतया विश्राम करने का सुझाव देते हैं। बाह्य बीमारियों की सुरक्षा दवाओं द्वारा सम्भव नहीं है। जीवनी शक्ति ही बीमारियों से रक्षा करती है। विश्राम अवधि में जीवनी शक्ति अधिक सशक्त बनती है।
लम्बे शीत विश्राम के फलस्वरूप शारीरिक कोशिकाएँ, जीवनी शक्ति का अपव्यय रुक जाने के कारण, अधिक सशक्त, समर्थ बनती हैं। पहाड़ों आदि बर्फ के क्षेत्र में रहने वाले रीछ, साँप, गिलहरियाँ जैसे प्राणी शीत के दिनों में गहरी नींद में सो जाते हैं था ठंड समाप्त होने के पश्चात पुनः सक्रिय हो उठते हैं। देखा यह गया है कि रीछ एवं सर्प दीर्घजीवी होते हैं।
यह सभी जानते हैं कि ठण्ड के दिनों में गर्मियों की अपेक्षा गहरी नींद आती है। स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। साधना की दृष्टि से भी ठण्डा वातावरण अनुकूल पड़ा है। हिमालय के वातावरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन शास्त्रों में अनेकों स्थान पर मिलता है। स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं साधनों में सफलता का दोहरा प्रयोजन इस दिव्य वातावरण में मिलता है। अनेक लोग, विशिष्ट साधनाओं के लिए इस कारण से ही हिमालय में जाते हैं। इस वातावरण में शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का अपव्यय रुक जाता है। मानसिक समाधि का प्रयोजन भी यही है। ऐसी अवस्था में भोजन आदि की आवश्यकता भी कम पड़ती है। आज भी हिमालय पर ऐसे संत महात्मा हैं जो बिना भोजन किये रहते हैं अथवा बहुत कम खाद्य-सामग्री पर अपना काम चलाते हैं। शीत समाधि द्वारा शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के व्यय को रोककर अनेकों संत ऋषि कई सौ वर्षों से जीवित हैं। जिनका साक्षात्कार कभी-कभी किन्हीं को ही हिमालय क्षेत्र में हो पाता है। पूर्ववर्णित महिला के शरीर में विष का प्रभाव व्याप्त था। शीत-समाधि प्रक्रिया द्वारा बाह्य शारीरिक गतिविधियों को रोक दिया गया। शक्ति का व्यय होना रुक जाने से, इस शक्ति ने विष से लोहा लिया तथा विष को बाहर निकाल दिया। फलस्वरूप संचित जीवनी शक्ति के प्रभाव से उपरोक्त महिला का स्वास्थ्य पहले की तुलना में और भी अच्छा हो गया।
वैज्ञानिक इस तथ्य को अब स्वीकार करने लगे हैं कि शीत समाधि द्वारा शारीरिक कायाकल्प एवं दीर्घ-जीवन प्राप्त कर सकना पूर्णतया सम्भव है। नोबेल पुरस्कार विजेता “डा. ऐलेक्सिस कैरेल” ने पिछले दिनों यह घोषणा की कि ‘शीत’ की सहायता से मनुष्य की आयु में वृद्धि की जा सकती है। डा. कैरेल ने अपने प्रयोगों की सफलता के बाद कहा कि- ‘‘मनुष्य शरीर को यदि बर्फ में जमा दिया जाय तथा कुछ दिनों के बाद निकाला जाय तो उसके शारीरिक कोशिकाओं में उतनी ही शक्ति होगी जितनी एक स्वस्थ ‘बालक’ में।’’ इस प्रकार यदि 50 वर्ष के बाद मनुष्य की शीत विश्राम दिया जाय और प्रत्येक 50 वर्ष बाद यह क्रम चलता रहे तो मनुष्य हजारों वर्ष तक जीवित रह सकता है। डा. ‘लैंफैल’ कहते हैं कि “सृष्टि के सारे जीव युवा होने में जितना समय लगाते हैं, उससे पन्द्रह गुना समय प्रायः प्राणी की पूर्ण आयु मानी जाती है।” एक उदाहरण देते हुए वे कहते हैं “कि गाय 2 वर्ष में जवान होती है तथा लगभग 30 वर्ष तक जीवित रहती है। मनुष्य को 25 वर्ष युवा होने में लगते हैं, इस प्रकार उसे लगभग 400 वर्ष से अधिक जीवित रहना चाहिए। इससे कम आयु में यदि मृत्यु होती है तो निश्चित ही जीवन क्रम में कोई भारी त्रुटि ही रही समझना चाहिये। इसका कारण उन्होंने स्पष्ट किया- शरीर को विश्राम न मिलना।
‘शीत समाधि’ के प्रयोग एवं सफलता से विज्ञान जगत को एक नया सूत्र हाथ लगा है। अन्य ग्रह-नक्षत्रों की खोज करने की होड़ वैज्ञानिक क्षेत्र में आज तेजी से चल रही है। किन्तु समस्या यह थी कि लाखों, करोड़ों ‘प्रकाश वर्ष’ की दूरी पर स्थित ग्रह उपग्रहों पर कैसे पहुँचा जाय। ज्ञातव्य है कि 1 लाख 86 हजार मील प्रति सेकेंड की गति से चलने वाला प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूरी तय करता है, उसे एक ‘प्रकाश वर्ष’ कहते हैं। प्रकाश की गति से चलने वाला यान यदि निरन्तर चलता रहे और यदि उस ग्रह की दूरी 1 लाख प्रकाश वर्ष है तो मनुष्य को वहाँ पहुँचने में एक लाख वर्ष लगेंगे। मनुष्य की अधिकतम आयु अब 100 वर्ष होती है। इस प्रकार यान में बैठा एक सौ बीस वर्षीय व्यक्ति प्रकाश दूरी तय करने के पूर्व ही रास्ते में मर जायेगा। किन्तु शीत समाधि द्वारा इस समस्या का भी अब समाधान निकल आया है।
सोचा यह गया है कि अन्य ग्रहों में भेजने के पूर्व ही अंतरिक्ष यान में मनुष्य शरीर को बर्फ में जमा दिया जायेगा था लाखों ‘प्रकाश वर्ष’ दूरी तय करने के बाद उसे पुनः गर्मी दिये जाने पर वह जीवित हो उठेगा। निःसन्देह यह मनुष्य जीवन की विशेषताओं का ही रहस्य है स्थूल ‘शीत समाधि’ में जब इतना चमत्कार है कि मनुष्य के शरीर को हजारों वर्षों क जीवित रखा जा सकता है, तो मन की समाधि से प्राप्त शक्ति एवं चमत्कारों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसकी शक्ति तो असीम है।
मानव शरीर जितना विलक्षण है उतनी ही अद्भुत हैं इसकी अचेतन मन की परतें। जिसका परिचय कभी-कभी विलक्षण, घटनाओं के रूप में जन-सामान्य की मिलता है। पश्चिम जर्मनी ‘के ब्रुन्सविक’ अस्पताल में एक बच्ची सात वर्षों से निरन्तर सो रही है। 12 वर्षीय ‘ओलिवर’ अगस्त 1974 की एक शाम को स्कूल से घर वापस आयी। उस दिन वह अपने को अधिक थका अनुभव कर रही थी। माँ से कहकर कि ‘‘उसे थकान लग रही है वह सोना चाहती है” सो गयी। दो वर्षों तक डाक्टरों ने उसे चेतन अवस्था में लाने के लिए अनेकों प्रयास किये, किन्तु वे सफल न हो सके। ओलीवर के माता-पिता नित्य अस्पताल पहुँचते हैं, उसे जगाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु निराशा ही हाथ लगती है। डाक्टरों का कहना है कि बच्ची गहरी नींद की स्थिति में है। उसके हृदय की धड़कन वैसे ही चल रही है जैसे एक स्वस्थ व्यक्ति का हृदय कार्य करता है। उनका विश्वास है कि बच्ची एक न एक दिन चेतन अवस्था में अवश्य वापस लौटेगी।
चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में यह एक आश्चर्यजनक घटना है। एक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता होती है बिना कोई आहार ग्रहण किये चार वर्षों तक जीवित रहना, वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य बना है। मनुष्य का शरीर आवश्यक पोषक तत्वों के अभाव में भी जीवित एवं स्वस्थ बना रह सकता है, इसका कारण क्या हो सकता है, जैसे विभिन्न प्रश्नों का समाधान दे पाने में वैज्ञानिक अपने को असमर्थ पा रहे हैं।
मानव शरीर की इन विशेषताओं को देखकर सहज ही श्रद्धा से उस सृजेता, कलाकार के प्रति नतमस्तक होना पड़ता है। चेतन मन की सामर्थ्य के फलस्वरूप जीवन की गतिविधियाँ संचालित होती रहती हैं। अचेतन तो इसकी तुलना में कई गुना अधिक समर्थ एवं विलक्षण है। बहिर्मुखी चेष्टायें यदि बन्द हों तो भी अचेतन प्रक्रिया सूक्ष्म जगत से वे सारे सरंजाम जुटा सकने में समर्थ है जो शरीर के पोषण के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार ‘अचेतन’ सोने, जगने, चलने, श्वास लेने आदि गतिविधियों पर सहज रूप में नियन्त्रण किए रहता है उसी प्रकार शरीर की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सकता है। अचेतन की सामर्थ्य को ‘साधना’ द्वारा जगाया जा सके तो वह इतना समर्थ है कि बिना किसी बाह्य साधनों के भी कार्य कर सकता है।
मानव शरीर की विलक्षणताएं इतनी अधिक हैं कि उसे देखकर भी वाणी उस सृजेता परमात्मा के गुणानुवाद करने में अपने को असमर्थ पाती है जिसने अद्भुत विशेषताओं से युक्त मानव शरीर का सृजन किया। एक ओर जहाँ उपरोक्त तरह की घटनाएँ देखने को मिली हैं, वही दूसरी ओर ऐसी विशेषताएँ भी किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में परिलक्षित होती हैं। जिन्होंने सारा जीवन बिना सोये व्यतीत किया और स्वस्थ बने रहे। एक साथ दो विरोधात्मक प्रवृत्तियों को केन्द्रीभूत होते तो मनुष्य के शरीर में ही देखा जा सकता है। इन्हें देखकर कहना पड़ा है कि मनुष्य शरीर प्राकृतिक नियमों से बंधा नहीं है।
शरीर शास्त्र के अनुसार ये सारी घटनाएं आश्चर्यजनक प्रतीत होती हैं किन्तु मनुष्य शरीर विलक्षणताओं का भण्डार है। पौराणिक घटनाओं एवं कथानकों को कभी सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था। ‘अर्जुन’ को गुडाकेश- “निद्रा को जीतने वाला” कहा जाता है। ‘रामायण’ में भी प्रसंग आता है कि ‘रावण’ के पुत्र ‘मेघनाथ’ को वही मार सकता था जो ‘ब्रह्मचारी’ एवं निद्रा विजयी हो। लक्ष्मण जी ने भगवान राम के साथ वनवास की 14 वर्ष की अवधि जागते हुए व्यतीत की थीं। ‘मेघनाथ’ को मार सकने में ‘लक्ष्मण’ जी ही सफल हो सके थे।
इन घटनाओं को देखकर आश्चर्यचकित हुआ जा सकता है किन्तु मानवी क्षमता को देखते हुए यह घटनाएं सामान्य हैं। असाधारण हैं सूक्ष्म चेतना की परतें। यदि इनको साधना द्वारा उभारा, उछाला जा सके तो मनुष्य सिद्ध पुरुष चमत्कारी अलौकिक बन सकता है।