
सत्य को खोजना हो तो दुराग्रह छोड़ें
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प्रख्यात वैज्ञानिक “आइन्स्टीन” से किसी ने पूछा कि सत्य के स्वरूप के विषय में आपके क्या विचार हैं? आइन्स्टीन ने उत्तर दिया- ‘‘सत्य स्वरूपों से परे है-उसका कोई स्थायी रूप नहीं हो सकता-वह परिवर्तनशील तथा सापेक्ष है। अतएव जिन्हें सत्य की खोज करनी हो उन्हें सदा अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए। पूर्व मान्यताओं एवं विश्वासों से बंधे रहने का अर्थ होगा- उसी अनुपात में सत्य से दूर हटा जना।’’
सामान्यतया बुद्धि का यह स्वभाव है कि वह एक बार किसी तथ्य को स्वीकार कर लेने के बाद उसे शाश्वत मान बैठती है। परिवर्तन की उन संभावनाओं को मानने से इन्कार करती है जो आज कल्पित होते लगते हैं पर उनके साकार होने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। इस दुराग्रहपूर्ण नीति के कारण ही कितनी ही महत्वपूर्ण जानकारियों से वंचित रहना पड़ता है। परिवर्तनों को स्वीकार न करने एवं तद्नुरूप सामंजस्य के अभाव के कारण अनेकों प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
परिवर्तन क्रम एक तथ्य है, जिसे स्वीकार करने से ही सत्य के अत्यधिक निकट पहुँच सकता सम्भव है। इसका एक प्रमाण है- पृथ्वी पर होते रहने वाले सतत् परिवर्तन। पृथ्वी अपने साथ परिवर्तनों की एक लम्बी एवं अविराम श्रृंखला जोड़े हुए है। जहां आज स्थल है वहाँ कभी अथाह समुद्र था। दिखाई पड़ने वाली विशालकाय पर्वत श्रृंखलाओं के स्थान पर कभी समतल भूमि थी। कनाडा के मानिटोवा प्रान्त में दो अरब तीस करोड़ वर्ष पूर्व की बनी चट्टानें प्राप्त हुई हैं। उस काल के नक्शे की कल्पना भी नहीं हो पाती। खोजियों का कहना है कि उस समय उधर एक महा खण्ड था जिसके अवशेष भारत के गोड़सान स्थान में भी मिले हैं। दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका भारत का दक्षिण खण्ड और आस्ट्रेलिया परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए थे। अर्थात् इन द्वीपों का परस्पर अलग करने वाले एटलांटिक एवं हिन्द महासागरों का अस्तित्व उन दिनों नहीं था। एशिया का अधिकाँश भाग समुद्र में डूबा हुआ था। कालान्तर में समुद्र हट गया और भू-भाग उभरकर सामने आया।
प्राप्त शिला लेखों एवं पुस्तकों के आधार पर इतिहास वेत्ताओं ने गवेषणा की है कि पृथ्वी पर सामाजिक एवं राजनैतिक इतिहास का प्रारंभ 5 से 10 हजार वर्ष पूर्व हुआ था। जबकि पृथ्वी की परतों के नीचे प्राणियों एवं वनस्पतियों के भस्मीभूत अवशेषों (फॉसिल्स) से प्राप्त जानकारी के अनुसार पृथ्वी का इतिहास 52 करोड़ वर्ष पूर्व से प्रारंभ हुआ। हिमालय से प्राप्त वनस्पतियों एवं प्राणियों के अवशेष यह बताते हैं कि यह सारा प्रदेश पहले समुद्र में डूबा हुआ था अर्थात् आज जहाँ हिमालय के विशालकाय शिखर एवं चोटियाँ दिखाई पड़ रहे हैं, सम्भवतः वहाँ समुद्र रहा होगा। भू-गर्भ विशेषज्ञों का कहना है कि दो टापुओं को छोड़कर सम्पूर्ण यूरोप खंड समुद्र से आच्छादित था। एशिया का रूसी भू-भाग, इण्डोनेशिया, दक्षिण अरब, दक्षिण भरत का कुछ हिस्सा, आस्ट्रेलिया के पश्चिमी एवं पूर्वी किनारे को छोड़कर सम्पूर्ण यूरोप एशिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड समुद्र के तल में समाये थे। चीन का कुछ हिस्सा पूर्व साइबेरिया से होकर अमेरिका के पश्चिम भाग से जुड़ा था।
विशेषज्ञ पृथ्वी के भू-भाग पर होते रहने वाले परिवर्तनों के अनेक कारण बताते हैं। जैसे भूकम्पों, ज्वालामुखियों का आतंक, समुद्री उथल-पुथल आदि जल की जगह थल और थल के स्थान पर जल का नृत्य सतत् चलता रहा है। इस परिवर्तन क्रम में हिमयुगों की भी असाधारण भूमिका रही है। वैज्ञानिक का कहना है कि इस पृथ्वी पर चार बार हिमयुग आ चुका है। मानव जाति इस समय चौथे हिमयुग की निकटवर्ती अवधि में रह रही है। पिछले हिमयुगों में पृथ्वी के विभिन्न खण्ड बर्फ से ढके थे। बर्फ के पिघलने के उपरान्त जल के स्थान पर स्थल और स्थल के स्थान पर जल हो गया।
जल की जगह थल एवं थल की जगह जल की यह परिवर्तन श्रृंखला आगे भी चलती रहे तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। भू-गर्भ वेत्ताओं का कहना है कि चौथे हिमयुग को आरम्भ हुए दस लाख वर्ष बीते हैं, इस अवधि में अनेकों परिवर्तन हुए हैं। भू-भाग पर बर्फ के जमाव के कारण वर्षा का जो पानी बहकर समुद्रों में जाता है, उसमें गतिरोध होने के कारण समुद्र सूखते गये। ब्रिटेन यूरोप से अलग था किन्तु पिछले हिमयुग के कारण यूरोप से जुड़ गया। दो लाख वर्ष पूर्व भारत अरे लंका भी जमीन से इसी प्रकार परस्पर जुड़े थे। उन दिनों भारतवासी पैदल ही लंका की या करते थे। एशिया के साइबेरिया तथा अमेरिका के अलास्का के बीच समुद्र के सूख जाने के करण एशिया निवासी पशुओं को साथ लेकर अमेरिका में जा बसे। आज के अमेरिकी दो लाख वर्ष पूर्व के एशियावासियों के ही वंशज हैं, हिमयुग की अवधि में समुद्र सूखी धरती के रूप में थे। एशिया, चीन एवं कोरिया के मध्यम विद्यमान पीले समुद्र का अस्तित्व उन दिनों नहीं था। ईरान की खाड़ी नहीं थी। इण्डोनेशिया तथा फिलीपाइन्स के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। यूगोस्वालिया और एड्रियाटिक के बीच का समुद्र सूख गया था। जिब्राल्टर का जल डभरु मध्य सूख जाने के कारण स्पेन जो यूरोप में स्थित है, से अफ्रीका के ‘मोरोको’ तक की पैदल यात्रा करना सुगम था। हिमयुग के अन्त में भू-भाग पर जमी बर्फ पिघल कर समुद्र की ओर बहने लगी। फलतः अनेकों द्वीप जो परस्पर एक दूसरे से जुड़े थे। कटकर अलग-अलग हो गये।
परिवर्तन का यह चक्र अब भी जारी है। पृथ्वी की ऊपरी सतह अभी भी अस्थिर है। पिछली सदी में कच्छ के रेगिस्तान क्षेत्र की कुछ जमीन उठकर ऊपर आ गई। उस स्थान पर पहले सिंधु की धारा का प्रवाह था। इन दिनों “अल्लाह का बाँध” नाम से वह स्थान प्रख्यात है। गुजरात का उससे लगा समुद्री किनारा भी अब समुद्र में डूबता जा रहा है।
भू-भाग पर होते रहने वाले ये परिवर्तन इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि यह सृष्टि की चलने वाली शाश्वत एवं अविराम प्रक्रिया है। हर घटक परिवर्तनशील है। जड़ ही नहीं चेतन प्राणियों के स्वरूप, क्रिया-कलाप एवं स्वभाव में सतत् अन्तर आता रहता है। जड़वादी विकास वादियों का कहना है कि मनुष्य का विकास ‘अमीबा’ नामक एक कोशीय जीव से हुआ। इस विकास क्रम में लाखों वर्ष लगे। तथ्य चाहे जो हो पर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य को अब तक परिवर्तनों की एक लम्बी श्रृंखला से होकर गुजरना पड़ा है। लम्बी अवधि में आदिमानव के न केवल स्वरूप में परिवर्तन आया वरन् दृष्टिकोण, विश्वास, स्वभाव एवं क्रिया-कलाप में भी भारी अन्तर देखा गया। जो कभी नर-पशु था वह सभ्य मान के रूप में सामने आया। संभव है अगले दिनों उसका देव मानव स्वरूप प्रस्तुत हो।
व्यक्तियों, वस्तुओं अथवा सृष्टि के सम्बन्ध में कोई भी बनायी गई मान्यता अपने में परिपूर्ण नहीं है। उनमें परिवर्तन की पूरी-पूरी गुंजाइश है। जड़-सृष्टि की तरह मनुष्य की विचारणा एवं क्रिया-कलापों में भी अन्तर आता रहता है जो व्यक्ति आज बुरा है, आवश्यक नहीं कि वह सदा वैसा ही बना रहे। जो जानकारियाँ प्राप्त हैं उनमें हेर-फेर की पूरी गुंजाइश है। विज्ञान का इतिहास भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। अतएव सत्य तक पहुंचने के लिए सदा दृष्टि खुली रखनी चाहिए और परिवर्तनों को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार कने के लिए अपने को तैयार रखना चाहिए अन्यथा सत्य से हम दूर ही बने रहेंगे और पूर्वाग्रहों एवं मान्यताओं से इसी अनुपात में और भी अधिक जकड़ते चले जायेंगे।