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अन्तरिक्ष में अन्यत्र भी जीवन होने की संभावना अब असंदिग्ध होती जा रही है । उन प्रमाणों का बाहुल्य बढ़ रहा है जो यह सिद्ध करते हैं कि हम इस ब्रह्माण्ड में अकेले ही बुद्धिमान प्राणी नहीं है, हमारे समतुल्य और भी अधिक समर्थ शक्तिवान अन्यत्र हो सकते हैं । ऐसे प्रमाणों ने अब उस अन्धविश्वास को दूर कर दिया है जिसके अनुसार यह दावा किया जाता है कि मात्र पृथ्वी का ही वातावरण ऐसा है जिसमें जीवन स्थिति रहे और प्रगति कर सके । वैसी परिस्थितियां अन्य लोकों में होने के सम्बन्ध में ऐसे प्रमाण मिलते चले जा रहे है। जिन्हें प्रमाणिक एक महत्वपूर्ण कहा जा सके ।
अन्य ग्रहों पर जीवन होने न होने का अनुमान इस आधार पर लगाया जाता है कि वहाँ उसके निर्वाह के लिये खाने को वनस्पति, पीने को पानी एवं साँस लेने के लिये आक्सीजन है या नहीं । यह अनुमान धरती धरती के प्राणियों की आवश्यकता को देखते हुए लगाया गया है । किन्तु यह आवश्यक नहीं कि धरती जैसी बनावट वाले प्राणी ही अन्य लोकों में भी हों । जीवन के असंख्य स्वरूप हो सकते हैं । उनमें से एक वह भी है जो पृथ्वी पर पाया जाता है ।
कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के प्रोफेसर हेज होवेर ने ऐसे जीवों का अस्तित्व भी सिद्ध किया है जो उपरोक्त तीन प्रकार के साधनों के अभाव में भी दूसरे माध्यमों से अपना निर्वाह क्रम चलाते हैं । वे कहते हैं शुक्र जैसे आवासीय वातावरण में भी उसी प्रकार का जीवन हो सकता है जैसाकि धरती पर उन्हीं परिस्थितियों में आरम्भ वाले दिनों में वाष्पीय समुद्रों के बीच पनपा। यह परिस्थितियाँ जैसे जैसे बदलती गई वैसे-वैसे प्राणियों के आकार प्रकार ही नहीं आहार विहार भी बदलते गये ।
प्रोफेसर होवेर कहते हैं कि अन्य ग्रहों से भी वहाँ की परिस्थितियों में निर्वाह कर सकने योग्य शरीरों वाले तथा उन्हीं साधनों पर निर्वाह कर सकने वाले प्राणी हो सकते हैं । अपने सौर मण्डल में मंगल और शुक्र की परिस्थितियां ऐसी मानी जा सकती है । जहाँ धरातल पर न सही भूमिगत या उड़नशील जीवन हो सकता है । संभव है कि वहाँ हवा में तैरते हुए नगर हो तथा उनमें उसी प्रकृति के जीवधारी निर्वाह कर रहे हों । धरती पर उड़नतश्तरियों का आधार खोजने वाले एक कारण यह भी यह भी सोचते हैं कि किसी ग्रह के उड़नशील नगरों के नभचर प्राणी किसी प्रयोजन के लिये धरती पर आवागमन की सुविधा बनाने का प्रयत्न कर रहे हों ।
अपने सौर मण्डल में अधिक तापमान और आक्सीजन का अभाव होते हुए भी यह माना जा रहा है कि वहाँ की परिस्थितियों में फलने फूलने वाला जीवन जीवन पाया जा सकता है । बृहस्पति पर भी ऐसी संभावना प्रतीत होती है । शनि के चन्द्रमा टाइटन पर भी ऐसी परिस्थितियां पाई गई हैं जिनमें मनुष्य लोक से भिन्न प्रकार के जीवन की संभावना हो सकती है ।
कार्लसाँगों की विश्व विख्यात और बहुचर्चित पुस्तकों में खगोल विद्या के अति महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालते हुए प्रतिपादित किया है कि इस ब्रह्माण्ड में निश्चय ही ऐसे ग्रह नक्षत्र होंगे जिनमें मनुष्यलोक जैसा या अन्य प्रकार का जीवन विद्यमान हो । उनकी ‘दि ड्रेगन्स ऑफ ईडन और ‘ब्रोकाज ब्रेन’ में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और ‘कास्मोस’ ग्रन्थ में भी ऐसे ही कारण एवं प्रमाण प्रस्तुत किये है ।
खगोल विद्या के विश्वविख्यात विज्ञानी कास्टेन्टिन राइडिन ने अन्तरिक्ष में भ्रमणशील महा उद्घोषों को टेप किया है । इन शब्द धाराओं की अपनी अपनी फ्रीक्वेंसी है । जो समाप्त नहीं होती, वरन् चक्कर काटती और अपने परिभ्रमण क्षेत्र की जानकारियां समेट-समेट कर घसीटती फिरती है । राइडिन ने प्रायः 72000 ऐसे अन्तरिक्ष ध्वनि प्रवाह पकड़े और टेप किये हैं । संसार भर के भौतिकविदों, इलेक्ट्रिक इंजीनियरों, खगोलवेत्ताओं तथा परामनोवैज्ञानिकों ने इसके अर्थ अपने अपने ढंग से लगाये है । पर उनका अस्तित्व सभी ने स्वीकारा है। भ्रमजन्य नहीं ठहराया । कई बार तो यह शब्द किन्हीं जीवधारियों की चीख पुकार से मिलते-जुलते और भावनाओं का प्रतिनिधित्व तक करते प्रतीत होते हैं ।
सुने गये अन्तरिक्षीय ध्वनि प्रवाहों में क्रमबद्ध संकेत-बीप-बीप-बीप के रूप में उपलब्ध होते हैं । आश्चर्य यह है कि इनके मध्य ठीक 316 सेकेंड का अन्तर होता है । यदि वे किसी प्राकृतिक घटना कारण होता तो यह अन्तर यथावत न बना रहता उसमें अन्तर पड़ता । अनुमान लगाया गया है कि यह किसी तारक पर निवास करने वाले बुद्धिमान प्राणियों का प्रयास है जो हम तक साँकेतिक भाषा में कुछ संदेश पहुँचाने-संबंध साधने के लिये इस संकेत आधार का उपयोग कर रहे है।
अन्तरिक्ष वासी पृथ्वी पर आते रहें है और यहाँ की परिस्थितियों को जीवन विकास के लिये उपयुक्त बनाने का प्रयास करते रहें है । इसके कितने ही प्रमाण पुरातत्त्ववेत्ताओं को मिले है । उनमें से बहुतों का विश्वास है कि पृथ्वी को वर्तमान स्तर तक पहुंचाने में अन्तरिक्षवासियों का योगदान चिरकाल तक चलता रहा है । उन्होंने अपने हाथ तब खींचे जबकि यह विश्वास कर लिया कि विकसित मनुष्य के हाथों इस भूमण्डल का भाग्य सुरक्षित है ।
स्विट्जरलैंड के जीव विज्ञानी डा. डैनिकेन का प्रतिपादन है कि धरती पर जीवन किसी विकसित ध्रुव तारे से उतरा है । कोई अंतरिक्ष से यहाँ आये और जीवन का बीज बिखेर गये उन्हीं की धरती पर विभिन्न जीवधारियों की फसल उगी और फैली है । वे अपने कथन की पुष्टि से केवल ब्रह्माण्ड विद्या का वरन् पौराणिक आख्यानों का भी सहारा लेते हैं ।
श्रीलंका के खगोलशास्त्री प्रो0 विक्रम सिन्धे ने भी तथा कार्डिफ विश्वविद्यालय के सर फ्रेड मोले के संयुक्त अन्वेषण ने भी इसी संभावना की पुष्टि की है कि पृथ्वी को जीवन किसी अन्य विकसित सौर मण्डल के अनुदान से मिला है। इतना ही नहीं उसे विकसित करने से अन्य लोक निवासियों ने बहुत समय तक बहुत कुछ करने रहने का उत्तरदायित्व वहन किया है ।
बर्लिन की स्टेट लाइब्रेरी में एक ऐसा मानचित्र रखा हुआ है जिस पर संसार के अनेकानेक मूर्धन्य मस्तिष्कों ने ने भारी माथा पच्ची की है और उन्हें प्रामाणिक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना है । यह मानचित्र अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में तुर्की नौसेना के एडीमरल पीटी के केईस में प्राप्त हुआ था । इसके साथ दो एटलस भी प्राप्त हुए थे । इसमें ‘डैड सी’ तथा ‘मेड्रीट्रेनियम’ क्षेत्रों का सारगर्भित चित्रण है।
अमेरिका मानचित्र विशेषज्ञ अलिन्यटन एच मैलरी ने इसमें धरती की सही परिस्थितियों की अधिक अच्छी जानकारी प्राप्त की । नौ-सेना के नक्शा नवीस वाल्टर्स की इस कार्य में सहायता ली गई और पाया कि न केवल समुद्री भाग का वरन् अमेरिका के बाहरी और भीतरी भागों की भी उसमें सही जानकारी विद्यमान है। वेधशाला निर्देशक फादर लिनहेम ने पाया कि इनमें दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र की उन पहाड़ियों के भी चित्र है जो अब से कुछ समय पूर्व तक बर्फ से ढकी थी और अभी ही वे प्रकट हुई है । सन 1952 तक इनकी किसी को कोई जानकारी नहीं नहीं थी ।
अन्वेषक चार्ल्स होपगुड़ और रिसर्च स्ट्राचन का कथन है कि ऐसे सही चित्र आये आकाश से ही लिये जा सकते हैं । धरती से नहीं । यह ऊंचाई भी किसी ग्रह उपग्रह के स्तर की होनी चाहिये । वर्तमान अन्तरिक्ष यानों में लगे शक्तिशाली कैमरे भी मात्र 5000 मील की परिधि के चित्र सही खींच पाते हैं । इसमें भागों की सीमा के चित्र कैमरे की पकड़ एवं पृथ्वी की गोलाई के कारण बिगड़ जाता है । ऐसी दशा में इतनी लम्बी परिधि के इतने सही चित्र खींचने के लिये किसी बहुत ऊंचे ग्रह पर बैठकर ही सही जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अठारहवीं शताब्दी में तो कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।
पेरू के कुचक्री क्षेत्र में अति पुरातन ‘तिआहुन’ को सभ्यता के प्रमाण मिले है । वह 13000 फुट ऊँचाई का क्षेत्र है। समुद्र की सतह से वातावरण का दबाव प्रायः आधा है। आक्सीजन की मात्रा बहुत कम है। ऐसी दशा में वहाँ पहुँचकर कोई बड़ा शारीरिक परि म कर सकना सम्भव नहीं। फिर भी वहाँ के अवशेष बताते हैं कि वहाँ कभी बुद्धिमान शिल्पियों को निवास और पुरुषार्थ भली प्रकार सक्रिय रहा है।
इतिहास की वर्तमान साक्षियां मात्र 6 हजार वर्ष पूर्व तक ही कुछ प्रमाणित कर सकने में समर्थ है। प्रस्तुत इतिहास इतना ही पुराना है। पर ‘तिआहुन की’ सभ्यता के चिन्ह अवशेष इससे कहीं अधिक पुराने हैं। कभी के इस सुविकसित रहे नगर की चहार दीवारी 100 टन भारी पत्थरों पर 60 टन के पत्थर रख कर बनाई गई है। इनका धरातल इतना चिकना है मानो किसी सुविकसित स्तर के यन्त्र द्वारा घिसा गया हो। पत्थरों के जोड़ और खाँचे इतने सही हैं कि उनमें राई रत्ती भी अन्तर नहीं दीखता। यह काम पाषाण युग का मनुष्य नहीं कर सकता था। इतना कर सकने में तो आज के विकसित साधन में हिम्मत नहीं कर सकते। इस खण्डहर में एक 24 फुट ऊँची और 20 टन भारी ऐसी मूर्ति भी है जो एक ही पत्थर की बनी है। उसकी कलाकृति इतनी सुन्दर है कि आज के मूर्तिकारों को भी चुनौती दे सके।
इन निमार्णों पर प्रकाश डालने वाली पुस्तक एच. वेलसी और पी. एलन के संयुक्त प्रयास से लिखी गई थी। इसका नाम है- ‘दि ग्रेट आइडल ऑफ तिआहुनकी’ यह सन् 1656 में प्रकाशित हुई उसमें प्रमाणों सहित यह सिद्ध किया गया है कि इन अवशेषों में खगोलीय जानकारियाँ रहस्यमय ढंग से अंकित हैं। इससे पता चलता है कि चित अतीत में पृथ्वी ने किसी अन्तरिक्षीय उपग्रह को अपनी पकड़ में जकड़ लिया था। इस उपग्रह पर 282 दिन का वर्ष होता था और साल में पृथ्वी की 425 परिक्रमा करता था। अन्त में वह छितरा गया और उसका मलबा वर्तमान चन्द्रमा के रूप में विद्यमान है। यह घटना 28 हजार हर्ष पुरानी बताई गई है।
चिली से प्रायः 2500 मील दूर ईस्टर द्वीप में सैकड़ों की संख्या में ऐसी पाषाण प्रतिमाएँ पाई गई हैं जो 33 से लेकर 66 फुट तक ऊँची और 50 टन तक भारी हैं। वह किसने बनाई? किन साधनों से बनाई? क्यों बनाई? जैसे प्रश्न इसलिए और भी अधिक रहस्यमय हो जाते हैं कि यह टापू भूमि से 2000 मील दूर निपट जशराशि के बीच घिरा पड़ा है। साधनों का सर्वथा अभाव। वहाँ मुश्किल से 2000 आदिवासी रहते हैं। इससे अधिक के लिए उस क्षेत्र में वनस्पति भी नहीं है। ज्वालामुखियों का कठोर लावा ही वहाँ पत्थर के रूप में पड़ा है। उसे कौन काटे? कैसे काटे? इतनी भारी मूर्तियाँ कैसे बने? फिर एक चट्टान से इतनी बारीक कलाकृतियाँ किस प्रकार विनिर्मित हों? इन प्रश्नों का सही उत्तर तो नहीं मिलता, पर उसकी विवेचना में कुछ प्रामाणिक पुस्तकें छपी हैं। इनसे तत्कालीन स्थिति पर थोड़ा प्रकाश पड़ता है और अनुमान लगता है। “आकू वाकू” - “चरियट्स ऑफ गाइड” - गाइड फ्राम दी आउटर स्पेस” ग्रन्थों में अन्यान्य अनुमान के साथ-साथ यह सम्भावना भी व्यक्त की गयी है कि किसी अन्य लोकवासियों ने धरती पर आकर इस प्रकार अपने कौशल का परिचय दिया हो।
सन् 1638 में चीन तिब्बत सीमा पर पहाड़ी की गुफाओं में एक सीधी कतार में आश्चर्य जनक कब्रें पाई गई। खुदाई करने पर गढ़े मनुष्यों के शिर बहुत बड़े और शरीर छोटे थे। समीपवर्ती चट्टानों पर कुछ अभिलेख एवं चित्र हैं। जिनका रहस्योद्घाटन करते हुए एकेदमी ऑफ फ्री हिस्टोरिक रिसर्च पीकिंग के प्रो. तस्नुम उनतुई ने किसी अन्य लोकवासियों के साथ इनकी संगति बिठाई थी। उनका प्रतिपादन चीन में तो नहीं छपा पर सोवियत यूनियन की पत्रिका ‘स्पूर्तिनिक’ में वह प्रकाशित हुआ है कि तुई की मान्यता थी कि 12 हजार वर्ष पूर्व कोई अन्तरिक्षवासी धरती पर आये थे। यह उन्हीं के अवशेष हैं। उनके यान धरती पर आकर खराब हो गये। जिनकी वे मरम्मत नहीं करा सके। इनने धरती वासियों के साथ मित्रता करने और तालमेल बिठाने का भी प्रयत्न किया पर वे सफल न हो सके।
अभी कुछ समय पूर्व अमेरिका में एक विशेष प्रकार की उड़न तश्तरी का प्रसंग चर्चा का विषय बना रहा है जिसके बारे में कहा जाता है कि अन्तरिक्ष यात्रियों की लाशें तथा उनके एक विशेष यानों का मलबा मनुष्य के हाथ लग गया है।
उड़न तश्तरियों का लम्बा इतिहास है। वे पृथ्वी के अनेक भागों में परिभ्रमण करती देखी हैं। उनका आभास भर मिला है और दृश्यों के आकाश में विलीन होते रहने के कारण यह पता नहीं चला कि वे कोई ऊर्जा भ्रमर अथवा दृष्टि भ्रम तो नहीं है। ऐसी घटनाएँ बहुत कम हुई हैं जिनमें इनसे सीधे टकराने प्रभावित होने का प्रत्यक्ष अवसर किसी को मिला हो। जिन्हें मिला है उन्हें भी उन घटनाओं को किन्हीं अन्य कारणों से सम्बद्ध होने का भी तारतम्य बिठाया गया है।
इन दृश्यों और घटनाओं में एक घटना ऐसी है जिसे असाधारण रूप से विस्मयकारी और अब तक के घटनाक्रमों में अद्भुत कहा जा सकता है। उसमें अन्तरिक्ष यान का मलबा और प्राणियों के शव हाथ लगने की बात कही जाती है। यों इस घटना को अनेक कारणों से गोपनीय रखा गया होने की बात जनश्रुति के रूप में प्रख्यात है। वस्तुस्थिति क्या है। इसका सही रहस्योद्घाटन तो तथ्यों के स्पष्टतया सामने आने पर ही हो सकेगा पर अभी तक उस सम्बन्ध में जो अटकलें है उन्हें देखते हुए किसी नई उपलब्धि की आशा अवश्य की जाती है।
चार्ल्स वर्लिट्स और विलियम भूर ने इस सम्बन्ध में जो तथ्य एकत्रित किये है उन्हें उन दोनों ने संयुक्त रूप से एक पुस्तक में लिखकर प्रकाशित किया है। इस पुस्तक घटनाक्रमों के अनुसार न्यू मैक्सिको के निकटवर्ती क्षेत्र में 7 जुलाई 1640 की शाम के 4 बजे एक अन्तरिक्ष यान का मलबा टूटकर जमीन पर गिरा उनमें कुछ ऐसे मृतकों के शरीर भी मिले जो धरती निवासियों से सर्वथा भिन्न प्रकार के थे।
रुजवेल प्रक्षेयणास्त्रों और अणुबमों की शोध तथा निर्माण का गुप्त नगर था। सुरक्षा के लिए उस क्षेत्र पर वायु सेना का 506 वाँ जत्था सदा मंडराता रहता था।
अन्तरिक्ष यान का मलबा देखने वाले प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार वह ऐसी बहुत पतली चमकीली धातु का बना था जो कपड़े जैसी मोटाई के होने पर हथौड़ों से नहीं मोड़ी जा सकती थी। मलबा एक सवा मील के घेरे में बिखरा पड़ा था। उसका मध्य भाग तीस फुट घेरे की तश्तरी जैसा था। उससे निकलकर जो शव बाहर गिरे मनुष्यों से मिलते-जुलते तो थे पर मनुष्य नहीं थे। उनके सिर गेंद जैसे गोल, आँखें छोटी, बाल बिल्कुल नहीं। एक ही सिलेटी रंग का कपड़ा वे ओढ़े हुए थे। औसत मनुष्य से उनके सिर बड़े और दोनों आँखों के मध्यवर्ती दायरे अधिक फैले हुए थे।
भयभीत, आश्चर्यचकित और कौतूहलग्रस्त लोगों में से कुछ ने हिम्मत करके उस क्षेत्र तक पहुँचने का प्रयत्न किया और सूचना बड़े अफसरों तक पहुँचाई। वे साज-सामान के साथ आये और सारे मलबे को समेट कर गुप्त स्थान को ले गये। उसमें क्या था, इस सम्बन्ध में अधिक जानने के उत्सुक कितने ही पत्रकार तथा वैज्ञानिक वहाँ पहुंचे पर सेना विभाग ने उस रहस्य को बताया नहीं। ऐसे ही गुब्बारा गिरने जैसा कुछ बहाना बताकर उन्हें टरका देने की कोशिश की। सभी जानते थे कि गुब्बारा होने की बात गलत है। इन दिनों दूर-दूर तक कोई गुब्बारा छोड़ा भी नहीं गया था। वाशिंगटन ‘पोस्ट’ जैसे जिम्मेदार पत्र ने इस आशंका की पुष्टि की कि वस्तु कोई रहस्यमय थी और उसका विवरण छिपाया गया है।
कहा जाता है कि अन्तरिक्ष रहस्यों के सम्बन्ध में इस मलबे के आधार पर ऐसी जानकारियाँ मिल सकती हैं जिन्हें अमेरिका अन्य देशों के हाथ न लगने देकर उस क्षेत्र पर अपना एकाधिकार करने का उत्सुक है।
कारण जो भी हो, यह रहस्य अभी भी अपने स्थान पर यथावत् है कि 6 जुलाई को जो मलबा आकाश से गिरा वह रहस्यपूर्ण था और उसे गहरे अनुसन्धान के लिए अभी तक छिपाकर रखा गया है और उस आधार पर अन्तरिक्ष के रहस्य जानने तथा उस पर एकाधिकार रखने का प्रयत्न चल रहा है। पूछताछ करने के लिए गये मूर्धन्य लोगों को जिस प्रकार निराशाजनक ढंग से टरका दिया गया उससे उनने भी ऐसे ही किसी रहस्य के होने की संभावना व्यक्त की है।
जो हो, वह घड़ी दिन-दिन निकट आती जा रही है जिसमें मनुष्य के लिए अन्तरिक्षवासी सुविकसित मनुष्यों देवताओं के साथ संपर्क साधने - आदान - प्रदान का द्वार खोलने और सामान्य से असामान्य बनने का अवसर मिलेगा।