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Magazine - Year 1983 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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तुलसी आरोपण इस वर्ष का विशिष्ट प्रयास

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कारखानों की चिमनियाँ, रेल गाड़ियाँ तथा घरेलू प्रयोग में निकलने वाले धुएँ की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाने से वायु मण्डल में विषाक्तता बढ़ती है। मनुष्यों की संख्या अत्यधिक बढ़ जाने, वृक्ष कटने, जंगल घटते जाने से भी वायु प्रदूषण बढ़ता है। कोलाहल, तथा अणु विस्फोटों से उत्पन्न विकिरण भी आकाश में घातक तत्वों की भरमार करते हैं। इस अभिवृद्धि का परिणाम मनुष्यों के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत बुरा पड़ता है। घुटन से धीमी आत्महत्या जैसी स्थिति बनती हैं। अणु विकिरण से पीढ़ियों के अपंग होते जाने का खतरा है इसके अतिरिक्त एक बहुत ही भयानक बात है- तापमान बढ़ते जाने से ध्रुवीय बर्फ पिघल पड़ने और समुद्र जल में उफान आने का खतरा। इससे निचले धरातल के पानी में समा जाने का भय रहता है। जलीय भार सन्तुलन बिगड़ जाने से धरती डगमगाती है और जल स्थानों में थल उभरता है और थल स्थानों पर अगाध जल भर जाने जैसा खतरा रहता है। धरती के इतिहास में विभिन्न कारणों से ऐसी उथल-पुथल अनेक बार हुई है। प्रकृति सन्तुलन बिगड़ जाने से मौसम में भारी उलट-पुलट हुई है। लम्बे हिमि युग आये हैं और अधिकाँश प्राणी उसी में मर गये हैं। समय बदलने पर बचे खुचे प्राणियों से नया प्रजनन क्रम चला है पुरानी प्रजातियों के कितने ही जीवधारी अपना अस्तित्व गँवा बैठे हैं। इसी प्रकार अग्नि वर्षा के युग भी आये हैं। जिससे जल और वनस्पतियों का ही नहीं प्राणियों का भी सफाया हुआ है। ऐसे-ऐसे अनेकों विग्रह संकट हैं जो अन्तरिक्ष में विषाक्तता बढ़ाने वाले असन्तुलन के कारण उत्पन्न होते हैं। भूत काल के ऐसे घटनाक्रमों को देखते हुए आशंका एवं सम्भावना समाने आती है कि इन दिनों वायु मण्डल से बढ़ती हुई विषाक्तता कहीं ऐसे ही पुरातन खण्ड प्रलयों की पुनरावृत्ति न करने लगे।

समय रहते प्रस्तुत विभीषिका से निपटने के लिए विश्व के शासकों, अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को मिल कर ऐसे उपाय सोचने चाहिए। ऐसे कदम उठाने चाहिए कि संव्याप्त विषाक्तता का परिशोधन हो सके और नई अभिवृद्धि पर कारगर अंकुश लग सके। बड़े कारखानों के स्थान पर छोटी विद्युत संचालित मशीनों का उपयोग हो वे एक स्थान पर न लगें छोटे-छोटे देहातों में बिखरें। बड़े शहरों में बढ़ने से रोका जाय और कस्बों में विकेन्द्रीकरण हो। अणु विस्फोट एवं विकिरण पर रोक लगे। कोलाहल पर रोक लगे। कोलाहल पर अंकुश लगे धुएँ रहित ईंधन प्रयुक्त हो, ऐसे ऐसे अनेक उपचार इस संदर्भ में अपनाये जा सकते हैं। वृक्षों की कटन रोको और हरीतिमा संवर्धन की बात नये सिरे से सोची जा सकती है। इस प्रकार जन संख्यावृद्धि पर आज जैसा स्वेच्छाचार अगले दिनों न चलने दिया जना चाहिए।

यह भौतिक उपाय उपचारों की चर्चा हुई तो बढ़ते वायु प्रदूषण पर अंकुश लगा सकते हैं। प्रश्न तब भी अड़ा रह जाता है कि जितना प्रदूषण अब तक आकाश में भर गया वह भी कम भयानक नहीं है। इसके परिशोधन का भी कोई कारगर उपाय निकलना चाहिए। इस संदर्भ में दो उपचार ऐसे हैं जिन्हें प्रज्ञा अभियान द्वारा अपनाया जा सकता है और प्रज्ञा परिजन उसकी पूर्ति को अपनी कार्य पद्धति में सम्मिलित करने के लिए तत्पर हो सकते हैं।

हरीतिमा सम्वर्धन इस प्रयोजन के लिए सर्वमान्य सिद्धान्त है। वृक्ष है जो विषाक्तता को सोखते और प्राण प्रद वायु का उत्पादन करते हैं। पिछले दिनों वन सम्पदा बेतरह कटी है। नये उत्पादन के लिए प्रयत्न अपेक्षाकृत कम हुए फलतः भूमि क्षरण, रेगिस्तान, बाढ़, सूखा जैसे अनेक संकट उत्पन्न हुए। उस भूल को अब सुधारा जाना चाहिए और वृक्षारोपण के लिए वनस्पति उत्पादन के प्रयत्न नये उत्साह के साथ आरम्भ करने चाहिए।

यह कार्य ऐसा है जिसे सरकार अपने ढंग से जन समुदाय अपने ढंग से -सम्पन्न करते रहते हैं। प्रज्ञा अभियान इस प्रक्रिया को अपने ढंग से कार्यान्वित करने के लिए अग्रसर हो सकता है।

इसके अतिरिक्त एक अध्यात्म उपचार और भी है अग्निहोत्र की प्रक्रिया का अभिनव पुनरुत्थान प्रचलन। विषाणुओं को मारने के लिए जिस प्रकार ‘एन्टी वायोटिक्स’ रसायनों का प्रयोग होता है उसी प्रकार वायु प्रदूषण के निराकरण में अग्निहोत्र प्रक्रिया की अपनी विशिष्ट भूमिका है। जिस प्रकार बड़े कारखानों की छोटे कुटीर उद्योगों में विकेन्द्रीकरण करने की बात सोची जा रही है, उसी प्रकार बड़े यज्ञ आयोजनों के स्थान पर छोटे घर-घर में चलने वाले बलि वैश्व जैसे प्रचलनों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। प्रज्ञा पुरश्चरण के अंतर्गत प्रज्ञा यज्ञों की प्रक्रिया को अतीव सरल एवं सस्ता बना दिया गया है। पाँच धृत दीपक, पाँच-पाँच अगरबत्तियों के पाँच गुच्छक जलाने एवं 24 बार गायत्री मंत्र का सामूहिक पाठ करने भर से ही इस महान प्रयोजन की संक्षिप्त प्रतीक पूजा हो जाती है। जहाँ जिस प्रकार जिस स्तर का यज्ञोपचार सम्भव हो वहाँ उसके लिए तद्नुरूप प्रयत्न चलने चाहिए।

इन पंक्तियों में विशेष महत्व हरीतिमा सम्वर्धन दिया जा रहा है। वृक्षारोपण पर इन दिनों विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। जिनकी अपनी भूमि है वे उस पर निजी पेड़ लगायें। जिनके पास नहीं है वे सरकारी या अन्य किसी की खाली भूमि पर अपनी ओर से पेड़ लगाने का परिश्रम करें और उसका स्वामित्व उन्हीं का माने जिनकी भूमि है। सड़कों के किनारे सरकारी भूमि होती है। अधिकारियों को सूचना देकर उन्हीं के लिए उन्हीं के परामर्श से अपनी ओर से पेड़ लगाने का प्रयास करने में कहीं कोई अड़चन न पड़ेगी। ऐसी भूमि अन्यत्र भी मिल सकती है जहाँ हरीतिमा लगाने के लिए परिश्रम करने में अड़चन अवरोध आड़े न आये।

अपने-अपने पूर्वजों की स्मृति में किसी खुशी या सफलता के उपलक्ष्य में स्मारक बनाने पुण्य परमार्थ कमाने की दृष्टि से भी वृक्षारोपण उपयोगी, महत्वपूर्ण एवं सर्व सुलभ उपक्रम है। इसके लिए जन-जन से उत्साह उत्पन्न करने वाला लोक शिक्षण प्रचार आन्दोलन चलना चाहिए।

एक छोटा किन्तु अति महत्वपूर्ण कार्य प्रज्ञा परिजनों को विशिष्ट रूप से अपने हाथ में लेने चाहिए। घर-घर में हर आँगन में तुलसी का विरबा स्थापित करने का। इस में घर की सीमा में वायु शोधन का क्रम चल पड़ेगा। कृमि-कीटकों का मक्खी मच्छरों से लेकर सर्प बिच्छुओं तक को भगाने का लाभ मिलेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस थावले के वृक्ष भगवान का खुला देवालय बिना किसी खर्च के थोड़े से परिश्रम भर से सहज ही विनिर्मित किया जा सकेगा। भगवान की प्रतिमाएँ मात्र धातु पाषाण की ही नहीं होतीं वे वृक्ष रूप में भी हो सकती हैं। प्रयाग का अक्षय वट-बुद्ध का वेधि वृक्ष साक्षात भगवान के प्रतीत माने जाते हैं। घरों में तुलसी का थावला उसी प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। सूर्यार्घ के रूप में जल चढ़ाने, अगरबत्ती दीपक जलाने, परिक्रमा करने, मानसिक जप ध्यान करने भर से उसकी पूजा आरती हो जाती है। यह उपक्रम ऐसा है जिसे कोई भी शिक्षित अशिक्षित भली प्रकार कर सकता है। बाल वृद्ध नर-नारी सभी उसमें समान रूप से भाग ले सकते हैं। घर में आस्तिकता का धार्मिकता का वातावरण बने तो उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। भाव श्रद्धा और धर्मनिष्ठा का व्यक्तित्व को पवित्र, प्रखर बनाने में असाधारण योगदान रहता है। तुलसी आरोपण को एक सर्वोपयोगी देवालय के रूप में स्थापित करके प्रकारान्तर से सद्भाव सम्वर्धन की आधारशिला रखी और नींव गहरी की जाती है। इसका युग परिवर्तन के साथ सीधा सम्बन्ध है। इस आन्दोलन को अग्रगामी बनाने के लिए प्रज्ञा परिजनों को बीज एकत्रित करने चाहिए। पौध उगानी चाहिए और स्थापना के लिए घर-घर टोली बनाकर पहुँचने की योजना बनानी चाहिए।

तुलसी की रोग निवारक शक्ति से सभी परिचित हैं। अनुपानभेद से उसे सभी रोगों में घरेलू चिकित्सा की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है। तुलसी पत्र की काली मिर्च के साथ गंगाजल में पीस कर गोलियाँ बना ली जाय और उन्हें गायत्री मंत्र से अभिमन्त्रित करके देते रहा जाय तो इस एक ही औषधि से अनेक रोगों के निवारण करने वाली चिकित्सा पद्धति हाथ लग सकती है। वैसे विभिन्न रोगों में विभिन्न उपचारों के साथ तुलसी का प्रयोग करने की विधि व्यवस्था पुस्तक में अलग से छपी है। उसे दो चार बार मनोयोग पूर्वक उलट -पुलट लेने भर से शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों के निवारण में भी आश्चर्यजनक सहायता, सफलता मिल सकती है।

हर व्यक्ति, प्राणी हर पदार्थ के तीन स्तर होते हैं।, स्थूल सूक्ष्म और कारण। स्थूल में गतिविधियाँ, सूक्ष्म में प्रेरणाएँ और कारण में भावनाओं का समावेश रहता है। यह सिद्धान्त वृक्ष, वनस्पतियों पर भी लागू होता है। पशुओं में गाय की जो दिव्यता है वही नदियों। में गंगा, पर्वतों में हिमालय, वृक्षों में पीपल तथा वनस्पतियों में तुलसी विद्यमान है। फलतः इस कारण शक्ति के साथ जहाँ भी संपर्क सधता है वहीं उत्कृष्टता का प्रवाह उमड़ता है। श्रेष्ठता का दिव्य वातावरण बनता है जो उस प्रभाव क्षेत्र में आते हैं वरिष्ठता विशिष्टता की ओर बढ़ते जाते हैं। तुलसी आरोपण आन्दोलन के पीछे इस विशेष रहस्य का समावेश समझा जाना चाहिए।

प्रज्ञा युग में सम्पदा की, समर्थता की चतुरता की, उतनी आवश्यकता नहीं पड़ेगी जितनी आध्यात्मिक दिव्यता की। इसे प्रसुप्त स्थिति से उवार कर जागृत प्रखर ज्योतिर्मय बनाने की दृष्टि से ही प्रज्ञा अभियान की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष गतिविधियों का निर्धारण, संचालन एवं क्रियान्वयन किया जा रहा है। इसी प्रसंग परिकर में तुलसी आरोपण को भी सम्मिलित समझा जाना है। हरीतिमा के प्रति जन-जन का आकर्षण, स्नेह, एवं संवर्धन को मन मचले इस दृष्टि से उसे धर्मक्षेत्र की एक महत्व पूर्ण प्रक्रिया समझा और समझाया जा रहा है।

भारतीय संस्कृति को आरण्यक संस्कृति कह सकते हैं। उसमें गौधन के निर्वाह का सान्निध्य का अविच्छिन्न अंग रखे रहने का निर्धारण है। साथ ही यह मान्यता भी हैं कि वृक्ष वनस्पति को कुटुम्ब परिवार की तरह साथ लेकर चला जाय। हमारे घर भले ही घास फूँस, मिट्टी खपरैल के बने हैं, पर उनके चारों और हरीतिमा अवश्य लहलहाती दृष्टिगोचर हो। वनस्पति उगाने बढ़ाने में भी प्रायः उसी भावना की तत्परता का परिचय देना पड़ता है। जिसके आधार पर परिवारों को समुन्नत सुसंस्कृत बनाया जाता है। उसी सद्भाव सम्पन्न दृष्टिकोण का क्रमिक विकास करते हुए “वसुधैव कुटुंबकम्” के लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव हो सकता है। तुलसी आन्दोलन उसी का ध्वजारोहण है।

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