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Magazine - Year 1983 - Version 2

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मेध यज्ञों का दर्शन एवं स्वरूप

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यज्ञ प्रकरण में बहुधा मेधों की चर्चा की जाती है। एवं उनकी अलग-अलग ढंग से व्याख्या भी की जाती है। मध्यकाल में मेघ की संगति बलि से जोड़कर अधर्मियों ने अपना स्वार्थ ही सिद्ध नहीं किया, वरन् यज्ञों पर भी कलंक की छाप डाली। विवेक प्रधान इस युग में मेघों के शास्त्रीय पक्ष की विज्ञान सम्मत व्याख्या अभीष्ट हो गयी है। वस्तुतः मेघ उनके साथ जुड़ी संज्ञा से सन्दर्भित हैं। चार प्रकार के मेध यज्ञ बहुप्रचलित हैं। ये हैं सर्वमेध, नरमेध, अश्वमेध, गोमेध।

सर्वमेध का तात्पर्य है- निजी सम्पदा, प्रतिभा एवं आयुष्य को समष्टिगत सत् प्रयोजनों के लिए अपना वैभव समर्पित कर देना। निजी सम्पत्ति के रूप में कुछ संग्रह परिग्रह पास न रखना। वाजिश्रवा, हरिश्चन्द्र आदि के द्वारा ऐसे ही सर्वमेध समय-समय पर होते रहे हैं।

नरमेध का तात्पर्य है - तपस्वी जीवन। अभ्यस्त लोभ, मोह, अहंता के कुसंस्कारों का परित्याग-पुत्रेषणा, वित्तैषणा, लोकेषणा की कामना अभिलाषाओं से विमुख होना गतिविधियाँ तपश्चर्या युक्त बनाना चिन्तन में आत्मीयता, उदारता का अधिकाधिक समावेश करना अन्तराल में सदाशयता के प्रति श्रद्धा को प्रगाढ़ परिपक्व करना।

अश्वमेध का अर्थ है- सामर्थ्यों को सत्प्रयोजनों के लिए हठपूर्वक नियोजित करना। संचित कुसंस्कारिता क्षुद्र प्रयोजनों में निरत रहने के लिए ललचाती रहती है। कुत्साओं से घिरा हुआ लोक प्रवाह तथा स्वजनों का आग्रह भी ऐसे ही दबाव डालता रहता है। इन समस्त अवरोधों को चीरते हुए उपलब्ध सामर्थ्य में से निर्वाह के लिए न्यूनतम रखने के उपरान्त शेष को वैयक्तिक एवं सामूहिक सत्प्रवृत्तियों में लगा देने की व्रतशीलता अश्व मेध है।

गौमेध का अर्थ - है प्रसुप्त सत्प्रवृत्तियों के जागरण में स्वाध्याय, शिक्षण, कौशल, आदि का विस्तार। दैवी सम्पदाओं से व्यक्ति और समाज को सुसम्पन्न बनाना। समग्र यज्ञ प्रक्रिया इन दर्शन सिद्धान्तों पर ही अवलंबित रही है। यजन प्रक्रिया तो उसका स्थूल दृश्यमान पक्ष भर है।

उपरोक्त प्रयोजन के लिए कई बार व्यक्ति विशेष द्वारा इन चार में से जिसका निश्चय किया हो उसकी सार्वजनिक घोषणा के लिए यह आयोजन सम्पन्न किया जाता था कई बार मूर्धन्य पुरोहितों द्वारा परिव्राजकों की वानप्रस्थ संन्यासियों की दीक्षा के सार्वजनिक समारोह बुलाते थे और उनमें सामूहिक संस्कार होते थे।

अश्वमेध की एक विशेष प्रक्रिया राजसूय स्तर की भी सम्पन्न होती रही है। सामन्तवादी उच्छृंखलता के कारण शासकों के अनाचार प्रजापीड़क न बनने पाये इसलिये उन्हें सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं रहने दिया जाता था। उन्हें किसी केन्द्रीय नियन्त्रण के अंतर्गत रखने के लिए समय-समय पर ऐसे आयोजन होते रहते थे। जो स्वेच्छाचारिता का आग्रह करते थे, उन्हें बलपूर्वक वैसा करने से रोका जाता था। इसी प्रकार वाजपेय यज्ञों के अंतर्गत भी दिग्विजय अभियान चलते थे। विचारों, सम्प्रदायों को स्वेच्छाचारिता की आदर्शवादी दिशाधारा के अंतर्गत रखने के लिए समर्थ आत्मवेत्ता ‘दिग्विजय’ के लिए निकलते थे। शास्त्रार्थ जैसे विचार युद्ध ऐसे ही प्रयोजनों के लिए होते थे। जो हारता था उसे पृथकतावादी आग्रह छोड़कर संयुक्त प्रवाह में बहने के केन्द्रीय अनुशासन में रहने के लिए विवश किया जाता था। आज शंकराचार्य जैसे अनेकों समय-समय पर ऐसे ही दिग्विजय अभियानों के लिए निकले हैं। ऐसे सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये गये धर्म सम्मेलन अश्वमेधों की गणना में गिने जाते रहे हैं। आत्मशोधन एवं परमार्थ समर्पण की प्रक्रिया नरमेध सर्वमेधों के रूप में जानी जाती रही है।

उपरोक्त चार मेध यज्ञों के सम्बन्ध में शास्त्रकारों के कितने ही प्रतिपादन स्थान-थान पर मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण 12।1।2।6।3 में अश्वमेध के सम्बन्ध में कहा गया है -

“श्री वै राष्ट्र वै अश्वमेधः। तस्मात् राष्ट्री अश्वमेधेन यर्जत्। सर्षाः वै देवताः अश्वमेधे अवयताः तस्माद् अश्वमेध याजी सर्व दिशो अभिजयन्ति।”

अर्थात्- वर्चस्व ही राष्ट्र है। राष्ट्र ही अश्वमेध है। अर्थात्- शासन अश्वमेध करे, देवगण यज्ञ में सम्मिलित होते हैं। अश्वमेध का संयोजन सर्वविजयी होता है।

यहाँ अश्वमेध का प्रयोजन राष्ट्र को समर्थ, संगठित एवं अनुशासित बनाना है। साथ ही उच्छृंखलता का नियमन करना भी।

इतिहासकारों का कथन है कि पुरोहित पद ग्रहण करने के अवसर पर वाजपेय और राज्याभिषेक के समय अश्वमेध समारोह किये जाते थे। उस समारोह में इन पदाधिकारियों की प्रस्तुत उत्तरदायित्वों की गरिमा और निर्वाह की विधि व्यवस्था समझाई जाती थी। पदासीन व्यक्ति देव साक्षी में उस गरिमा के निर्वाह की सार्वजनिक घोषणा करते थे।

मेध यज्ञों के प्रसंग में एक बड़ी विडम्बना न जाने कहाँ से आई और सरल सौम्य प्रक्रिया में एक अवाँछनीय झंझट खड़ा कर दिया। यजन कृत्य के हविष्य का निर्धारण करने वाले प्रसंग में कुछ शब्द ऐसे आ गये जिन्हें साहित्य कला की दृष्टि से जान-बूझकर अथवा संयोगवश ऐसे ही प्रयुक्त कर लिया गया जिसके दो अर्थ होते थे ऐसे प्रसंगों में कौतूहल, उपहास तो होता है पर कोई भ्रमित नहीं होता। पहेली बुझोअल में शब्द तो अटपटे होते हैं पर समझदार लोग उसका सही अर्थ बिना किसी कठिनाई के सामान्य बुद्धि से ही जान लेते हैं। शब्दों के अटपटेपन के कारण कोई अर्थ का अनर्थ नहीं करता। किन्तु यज्ञ प्रसंग के अवसर पर ठीक ऐसा अर्थ लगा दिया गया जो मूल तथ्यों के साथ किसी भी प्रकार संगति नहीं खाता।

यज्ञ विवेचना में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, यज्ञों की चर्चा हुई है। इनमें प्रयुक्त हुए दोनों शब्दों का अर्थ अनर्थ किया गया है। मेध का अर्थ समर्पण या संगठन होता है। साथ ही एक अर्थ है ‘बोध’ भी होता है। औचित्य कहाँ है, संगति कहाँ बैठती है उस पर विचार करते ही तात्पर्य समझने वालों का समर्पण, आदि अर्थ ही करने चाहिए न कि हत्याकाण्ड।

इस पहेली बुझौअल में अश्व, गेड, नर नामक प्राणियों को मार-काटकर होम देने की व्याख्या की गई। जबकि अश्व वैभव को, गौ इन्द्रियों को और नर व्यक्तित्व को पवित्र बनाने ईश्वरार्पण करने-इन शब्दों में यहाँ वास्तविक तात्पर्य है।

इसी प्रसंग में कहीं कहीं एक और शब्द आ धमका। ‘आलंभन जिसका एक अर्थ होता है-स्पर्श । दूसरा होता है- मार डालना। देखना यह चाहिए कि जब यज्ञ का नाम ही अध्वर है। अध्वर अर्थात् हिंसा रहित। उस प्रक्रिया में रक्तपात को कहीं भी गुंजाइश नहीं है ऐसी दशा में पशुओं या मनुष्यों को मारकर अग्नि में होम देने की बात किस प्रकार बुद्धि संगत ठहराई जा सकती है।

किन्तु मध्यकाल में अनहोनी को होनी कर दिखाने में कुछ विदूषकों ने उपहासास्पद प्रयत्न किया और ‘उलटा मसी’ का शब्दार्थ कुछ का कुछ करके यज्ञ के मत्थे प्राणि वध का कलंक बाँध देने का प्रयत्न किया गया। मध्यकाल में कुछ ऐसी घटनाएँ हुई थीं। उन्हें पनपते देखकर उन्हीं दिनों भगवान बुद्ध और भगवान महावीर जैसी आत्माएँ सामने आई और विकृति को अंकुरित होते होते ही उनके पैरों तले कुचलकर फेंक दिया। फलतः यज्ञ विद्या पर जिस ग्रहण की काली छाया पड़नी आरम्भ हुई थी वह समय रहते अपने थोड़ी सी करतूत दिखाकर ही पलायन कर गई।

यज्ञ में प्राणियों की हिंसा किये जाने वाली बात तो किसी भी प्रकार शास्त्रानुमोदित नहीं हो सकती। यज्ञ का एक नाम है - ‘अध्वर’ जिसका अर्थ होता है हिंसा रहित कृत्य। उसमें अग्नि का उपयोग तो होता है पर साथ ही पुरोहितों और याजकों में से प्रत्येक को यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं समिधाओं या शाकल्प में कृमि कीटक तो नहीं है और उस गर्मी से किन्हीं चींटी जैसे प्राणियों की जीवन हानि तो नहीं हो रही है। जहाँ इतनी सतर्कता का निर्देश हो वहाँ प्राणि वध की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती।

दो अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग जहाँ होता हो वहाँ बुद्धिमत्ता यह कहती है कि प्रसंग की पूर्वापरि संगति भी बिठाई जाय और यह ध्यान भी रखा जाय कि प्रस्तुत करने वालों का गन्तव्य या उद्देश्य क्या रहा है ? औचित्य का ध्यान रखे बिना दो अर्थ वाले शब्दों का अर्थ कुछ-कूल मान्यता से सर्वथा विपरीत कर देना-अनर्थ कहा जाता है। ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना किसी किसी उद्धत अर्थकर्ता ने मेध शब्द का तात्पर्य एवं स्वरूप प्रस्तुत करने में की है। इतने पर भी मूल मन्तव्य को समझने समझाने वाले शास्त्रकारों की कभी नहीं रही। वे वेदोक्त मेध शब्द का सही अर्थ ही प्रस्तुत करते रहे हैं।

मेध शब्द का अर्थ है - एकता स्थापित करना, जैसा कि धातु पाठ में ‘मेधृ’ धातु का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है।

‘मेध - मेधासंगमनयोहिं सायाँ च।’

अर्थात् - मेधृ’ धातु से निष्पन्न ‘मेध’ शब्द के मेधा (शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना) लोगों में एकता व प्रेम बढ़ाना तथा हिंसा - ये तीन अर्थ होते हैं। व ‘मेध’ शब्द के अन्य अर्थ होते हैं, तो उसको हिंसा वाले अर्थ के प्रति इतना दुराग्रह क्यों किया जाय, जबकि उन-उन स्थलों में उसका हिंसा से भिन्न तात्पर्य ही अभीष्ट है। यहाँ कुछ दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं -

पुरुष मेध, पुरुष यज्ञ और नृयज्ञ- ये तीनों शब्द प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते रहे हैं। इन में से नृयज्ञ’ का तात्पर्य बोध कराते हुए मनुस्मृतिकार ने लिखा है -

‘नयज्ञोऽतिथि पूजनम्। (मनु. 3। 70)

अर्थात् - ‘अतिथियों का स्वागत सत्कार ही ‘नृयज्ञ’ है।’

जैसाकि ‘अश्वमेध यज्ञ’ से ‘अश्व’ की बलि देने वाला यज्ञ-तात्पर्य लगाया जाता है जबकि शतपथ ब्राह्मण’ में एक दम विपरीत ही प्रतिपादन है, वहाँ पर उल्लेख है -

‘राष्ट्रं वा अश्वमेधः । वीर्य वा अश्वः।’ - शतपथ. 13।1।6

अर्थात् - ‘पराक्रम ही अश्व है, राष्ट्र का अच्छी प्रकार संचालन ही अश्वमेध है।’

‘अज-मेध’ को बकरे की बलि वाले यज्ञ से अर्थ लगाने वाले को ‘महाभारत’ में कड़ी चेतावनी दी गयी। -

‘अजैर्यज्ञेष यष्टव्यम्’ इति वै वैविकी श्रुतिः। अज संज्ञानि बीजानी, छागान्नों हन्तुमर्हथ। नैष धर्मः सताँ देवाः, यत्र बध्यते वै पशुः॥ - शान्तिपर्व अ. 337

अर्थात् - ‘वेद’ में- ‘अज से यज्ञ करना चाहिए—ऐसा उल्लेख है। ‘अज’ शब्द वहाँ बीज विशेष से है, न कि बकरी से’। अतः उसका तात्पर्य बकरे के वध से नहीं लगाना चाहिए। पशुओं की हिंसा करना अच्छे मनुष्यों का धर्म नहीं है। इसी तथ्य को पंचतन्त्रकार ने भी स्वीकार किया है -

‘एतेऽपि ये याज्ञिका यर्ज्ञकर्मणि पशून् व्यापादयन्ति ते मूर्खाः परमार्थं श्रुतेर्न जानन्ति। तत्र किलैतयुक्तम् अजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति अजास्तावाद् ब्रीहयः साप्तवार्षिकाः कथ्यन्ते न पुनः पशु विशेषाः। उक्तं च— ‘वृक्षान् छित्वा पशून् हत्वा कृत्वारुधिर कर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरकं केन गम्यते॥”

अर्थात् - ‘जो याज्ञिक यज्ञ में पशुओं की हत्या करते हैं, वे मूर्ख हैं, वे वस्तुतः श्रुति (वेद) के तात्पर्य को नहीं जानते हैं। वहाँ जो अजों से यज्ञ करना चाहिए कहा गया है, उसमें ‘अज’ से तात्पर्य व्रीहि या पुराने अनाज विशेष से है, न कि बकरों से। ‘आप्त कथन भी है कि - ‘यदि पशुओं की हिंसा करके उनकी रुधिर की धारा बहा कर स्वर्ग में जाया जा सकता है तो नकर में जाने का मार्ग कौनसा है ?

‘मेध’ शब्द का दूसरा अर्थ संगमन एकत्रीकरण भी होता है। अतः गोमेध, अश्वमेधादि यज्ञों में उन-उन पशुओं की प्रदर्शनियां मेले लगाये जाने का भी विधान हो सकता है। महाभारत द्वारा इसका प्रबल समर्थन भी प्राप्त होता है।

यजुर्वेद में आलभते शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ निकाला गया ‘वध करना चाहिए।” जबकि यह अर्थ यहाँ किसी भी प्रकार युक्ति संगत नहीं। ‘आं’ पूर्वक, लभ धातु, से निष्पन्न इस शब्द का अर्थ ‘स्पर्श करना’ होता है। इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हो जाते हैं। दो एक उद्धरण द्रष्टव्य हैं -

‘वरो वध्वा दक्षिणाँसम् अधिहृदयम् आलीते।” - परस्करगृह्य सूत्र 1। 8।8

अर्थात् -‘वर, वधू के दक्षिण कंधे पर हाथ ले जाकर उसके हृदय का स्पर्श करता है।’

जातकर्म-प्रकरण में उल्लेख है -

‘कुकारं जातं पुरान्यैरालम्भात् सर्पिभधुनी हिरण्ययेन प्राशयेत्।’

अर्थात्- ‘बालक के उत्पन्न होने पर और किसी के स्पर्श से पूर्व, उसे स्वर्ण-शलाका से धृत और मधु चटावे।’

भीमाँसा दर्शन के 2।3।17 सूत्र की सुबोधिनी टीका में स्पष्टतः लिखा है -

‘वत्सस्य समीप अनायनार्थम् आलम्भः स्पर्शो भवतीति।’

अर्थात् - उपर्युक्त तीनों उद्धरणों में ‘आलम्भ’ धातु का अर्थ ‘स्पर्श करना’ ही किया गया है। अतएव यज्ञों में ‘आलम्भ’ के प्रयोग से हिंसा का अर्थ लेना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है।

‘नारदीय पुराण’ (पूर्वार्ध, 24।13।16)। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3।4।1-19) ने नरमेध की विधि का वर्णन किया है। (ब्राह्मणेब्राह्मणमालभते क्षत्राय राजन्यम्। यरुद्म्यो वैश्यम्। तपसे शूद्रम्) प्राचीनतम उक्तियाँ यह नहीं व्यक्त करतीं कि कोई मानव मारा जाता था, सारी विधियाँ प्रतीकात्मक मात्र हैं। बाजसनेयी संहिता के बहुत से वचन तैत्तिरीय ब्राह्मण के समान है। तै. ब्रा. (3।4।1 = वाज. सं. 30।5) में आया है - “ब्राह्मणत्व ब्राह्मण को दिया जाना चाहिए (अध्यात्मिक शक्ति), क्षत्रियत्व क्षेत्र को (सैनिक शक्ति) वैश्य मरुतों को” आदि। आप. श्रौ. सू. (20।24) के मत में ब्राह्मण या इस यज्ञ को सम्पादित करता है जिसके द्वारा वह शक्ति एवं शौर्य की विभूतियाँ उपलब्ध करता था।

वैदिक यज्ञों में अश्वमेध का महत्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं। शतपथ ब्राह्मण (13.1-5) में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3, 8, 9) कात्यायनीय श्रौतसूत्र (20), आपस्तम्ब (20) आश्व लायन (10, 6) शाँखायन (16) तथा दूसरे सामन ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत (10, 71-15) में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् पापमोचनार्थ किए गए अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है। अश्वमेध मुख्यतः राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका आधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे।

‘अश्व’ का तात्पर्य अश्वगन्धा’ औषधि से होता है, जिसके हवन करने से कफ, श्वेत-कुष्ठ, क्षय आदि रोग दूर होते हैं और वीर्य की वृद्धि होती है। इस विषय में भाव प्रकाश का स्पष्ट उल्लेख है -

अश्वगन्धानिलश्लेष्मश्वि. शोधक्षयापहा। बल्या रसायनी तिक्ता, कषायोष्णाति शुक्रला॥ -भावप्रकाश

अर्थात् - यह अश्वगन्धा औषधि, कफ, श्वेत-कुष्ठ, सूजन, क्षय आदि को दूर करने वाली और वीर्य वर्धक, रसायन है। इसीलिए इसके हवन करने का विधान है।

सर्वमेध, गोमेध आदि अन्य मेध यज्ञों के सम्बन्ध में भी यही बात है इनमें विभिन्न प्रकार के त्याग बलिदान करने-सत्प्रयोजनों के लिए उच्चस्तरीय आदर्शवाद प्रस्तुत करने का ही प्रकरण है। इसी भावना से छोटे-बड़े समस्त यज्ञ सम्पन्न किये जाते थे, किये जाने चाहिए।

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