
आदिम युग की और लौटता विश्व समुदाय
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आइन्स्टीन ने एक बार कहा था कि “प्रकृति प्रकोपों विक्षोभों से संसार का उतना विनाश नहीं होगा, जितना कि आगामी तृतीय विश्वयुद्ध से सम्भव है पुनः मनुष्य को आदिम युग से नये जीवन की शुरुआत, पाषाणीय उपकरणों से करना पड़े और उस आरम्भ के लिए आदम और हब्बा जैसे मानव ही सन्तति निर्माण हेतु शेष बचें।”
बात कुछ अटपटी तथा अतिरंजित-सी लगती है, पर आइन्स्टीन जैसे कितने ही मनीषी संसार की सतत् बिगड़ती विस्फोटक परिस्थितियों को देखकर यह निष्कर्ष निकालते रहे हैं कि महाविनाश को साथ लिये तृतीय विश्वयुद्ध की काली घटाएँ संसार के ऊपर सतत् उमड़, घुमड़ रही हैं। वे किसी भी क्षण बरस कर पृथ्वी पर महामरण का हृदय विदारक दृश्य प्रस्तुत कर सकती हैं। सभ्यता के इतिहास में पहली बार मनुष्य अपने ही आविष्कारों से इतना अधिक भयभीत हुआ है। हिरोशिमा नागासाकी पर गिराये गये परमाणु बमों ने जो तबाही मचायी थी उसकी स्मृति अभी ताजी बनी हुई है। उससे सबक लेने के बजाय संसार के मूर्धन्य देशों ने शक्ति संचय को ही अधिक की संख्या में परमाणु बम इस समय सारे संसार में मौजूद हैं जिनकी सामर्थ्य हिरोशिमा पर गिराये गये बम से पचास हजार गुनी अधिक है। परमाणु बम ही नहीं, ऐसी मारक गैसों नापाम बमों - विषाणु कीटाणुओं युक्त बमों - का भी आविष्कार हो चुका है, जिन्हें किसी भी क्षेत्र में चुपके से छोड़कर, महामारी पैदा की जा सकती है तथा कुछ ही मिनटों में एक बड़ी आबादी को घुट-घुटकर मरने को विवश किया जा सकता है। इस विध्वंसक कार्यों में विश्व सम्पदा तथा जनशक्ति का एक बड़ा हिस्सा हर वर्ष नियोजित हो रहा है।
सोवियत सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार विगत कुछ दशकों में से विश्व के अधिकाँश देशों ने औसतन विकास कार्यक्रमों की अपेक्षा नब्बे गुनी अधिक अर्थ शक्ति शस्त्रों के लिए खर्च की है। यू.एस.ए., कनाडियन तथा ब्रिटिश सर्वे के संयुक्त निष्कर्षों ने आँकड़ा प्रस्तुत किया है कि दो वर्षों पूर्व सम्पूर्ण विश्व का हथियारों के निर्माण पर खर्च पाँच सौ अरब डॉलर अर्थात् लगभग चार हजार अरब रुपये था, जबकि विश्व की आबादी चार अरब थी अर्थात् इस भूमण्डल पर निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए शस्त्रों पर खर्च किया जाने वाला औसत 125 डॉलर था जो रुपयों में लगभग एक हजार आता है। वर्तमान में विश्व की जनसंख्या साढ़े चार अरब से भी ऊपर जा पहुँची है। अनुमान है कि शस्त्रों पर खर्च बढ़कर 6 सौ 75 अरब डॉलर अर्थात् 5 हजार 4 सौ अरब रुपये प्रतिवर्ष तक जा पहुँचा है। अर्थात् विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से शस्त्रों का औसत खर्च 1250 रुपये प्रतिवर्ष हो रहा है।
रुमानिया के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में औसतन एक मिनट में अस्सी लाख रुपये आयुधों के निर्माण में खर्च किये जाते हैं। इस धन से लगभग 4 हजार टन दूध या पाँच हजार टन गेहूँ की व्यवस्था हो सकती है। इतना मात्र एक मिनट के शस्त्रों पर लगी धनराशि से सम्भव हो सकता है। कुपोषण से ग्रस्त करोड़ों बच्चों के पोषण तथा करोड़ों व्यक्तियों के लिए रोटी की व्यवस्था हो सकती है। मात्र एक मिनट की बचत राशि से सौ परिवारों की आजीविका के स्थायी स्त्रोत निकल सकते हैं। उससे तीन सौ छोटे-छोटे मकान बन सकते हैं।
एक सामान्य रायफल बनाने में चार हजार रुपये खर्च होते हैं। इससे दो आधुनिकतम यन्त्रों से सुसज्जित अथवा पचास पुरातन किस्म के कृषि हल तैयार किये जा सकते हैं। एक मशीन गन पर बीस हजार की लागत आती है। उतने मात्र से एक ट्रैक्टर बन सकता है, जिससे सैकड़ों एकड़ भूमि की खेती निरन्तर होती रह सकती है। एक युद्धक बम बनाने में एक अरब खर्च आता है। इस धन से आधुनिक यन्त्रों एवं सुविधाओं से सुसज्जित बीस अस्पताल खोले जा सकते हैं।
धनशक्ति ही नहीं संसार की मूर्धन्य प्रतिभाशाली जनशक्ति भी विध्वंसक शस्त्रों के निर्माण कार्य में लगी है। सोवियत अध्ययन का निष्कर्ष है कि मात्र नाभिकीय शस्त्रों के निर्माण में बीस हजार ऐसे वैज्ञानिक तथा तकनीशियन लगे हुए हैं, जिन्हें बौद्धिक प्रतिभा की दृष्टि से सर्वोपरि कहा जा सकता है। इनके सहायकों की संख्या लाखों में है। यू.एन.ओ. से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार संसार के वैज्ञानिकों एवं तकनीशियनों में से पच्चीस प्रतिशत युद्ध आयुधों के निर्माण एवं आविष्कार कार्य में लगे हुए हैं। विज्ञान का पचास प्रतिशत व्यय सैनिक उपकरणों को विनिर्मित करने में होता है। अन्तरिक्ष में छोड़े जाने वाले अंतर्ग्रहीय उपग्रहों में तीन चौथाई युद्ध गतिविधियों की टोह लेने तथा गुप्त जानकारी देने वाले होते हैं। आय.एल.ओ. के अनुसार पूरे विश्व में लगभग बीस करोड़ व्यक्ति सेना में हैं। उनकी संख्या हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है। ऐसा अनुमान है कि विश्व श्रम शक्ति में चार हिस्सा सामाजिक कार्यों में निरत है तो तीन हिस्सा सैनिक क्षेत्र में नियोजित है। एक और इतनी अधिक धनशक्ति, जनशक्ति विध्वंसक कार्यों में लगी हुयी है, जबकि दूसरी और धन के अभाव में संसार की अधिकाँश आबादी को विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
अगले दिनों क्या परिस्थितियाँ होगी, इसका विस्तृत विवरण पिछले दिनों एक पुस्तक में छपा हैं। नाम है “द थर्ड वर्ल्ड बार” लेखक हैं- सरऑन हैकेट। उनकी परिकल्पना के अनुसार तीसरा विश्वयुद्ध 2685 में शुरू होगा। युद्ध की शुरुआत अन्तरिक्ष से होगी। विस्फोटक पदार्थों तथा घातक रासायनिक गैसों द्वारा हवाई अड्डों को नष्ट कर दिया जायेगा। युद्ध के प्रथम चरण में ही ऐसे विषैले तत्वों का उपयोग किया जावेगा, जिसके कारण कुछ ही क्षणों में बड़ी संख्या में लोग घातक अविज्ञात रोगों के शिकार होकर मरने लगते हैं। कुछ ही समय बाद परमाणु युद्ध छिड़ेगा। कुछ ही क्षणों में विश्व की अधिकाँश आबादी भयंकर यन्त्रणा सहते हुए समाप्त हो जावेगी। लेखक की कल्पना है कि तृतीय विश्वयुद्ध के दुष्परिणामों से पिछले सभी रिकार्ड फीके पड़ जायेंगे। जबकि विगत युद्धों के इतिहास तथा उनके परिणाम ही कम रोमाँचक नहीं हैं।
युद्धों में जनशक्ति ही नहीं विपुल धन शक्ति भी नष्ट होती है। औसतन एक व्यक्ति एक व्यक्ति को युद्ध में मारने के खर्च में उत्तरोत्तर वृद्धि हुयी है। दो हजार वर्ष पूर्व प्रति व्यक्ति को मारने में लगभग आधा डालर अर्थात् आज के मूल्य के अनुसार चार रुपये खर्च आता था। नेपोलियन के समय तक बढ़कर अचानक 3 हजार डालर अर्थात् 24 हजार रुपये तक हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध में एक सैनिक को मारने में औसत खर्च 21 हजार डालर अर्थात् 1 करोड़ 68 हजार रुपये आया।
इतनी धन-शक्ति तथा जन-शक्ति रचनात्मक कार्यों में लगी होती तो आज संसार का स्वरूप ही कुछ और होता। जिस स्वर्ग की कल्पना की जाती है, वह प्रत्यक्ष इसी भूमण्डल दिखायी पड़ने लगता। जितने साधन संसार में मौजूद हैं, वे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त हैं।
विनाश को रोकने के लिये राजसत्ता के किये गये प्रयास कितने व्यावहारिक रहे हैं, इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि मानव इतिहास में तीन हजार वर्षों में 1500 बी. सी. से लेकर 1860 ए.डी. तक, आठ हजार युद्ध विराम सन्धियों पर तथा 1860 से लेकर अब तक निरस्त्रीकरण के सैकड़ों छोटे बड़े प्रतिवेदनों पर अनेकों देशों के समय-समय पर हस्ताक्षर हुए हैं। हरेक में यह निर्णय लिया गया कि इसके बाद स्थायी शाँति रहेगी, पर वह स्थिति कभी भी नहीं आने पायी। स्थायी शान्ति यदि सम्भव है तो अध्यात्म प्रधान प्रयोगों द्वारा ही सत्य को समझना जरूरी होगा। “वसुधैव कुटुम्बकम्” का स्वप्न तभी सार्थक होगा, जब विभूतियाँ स्वयं इन प्रयासों में संलग्न होंगी। ऐसा न हुआ तो विनाश सुनिश्चित है।