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Magazine - Year 1983 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सौर मण्डल हमारा बड़ा परिवार

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खगोल विज्ञानियों के अनुसार अपनी पृथ्वी को एक गैस बादल से समुद्र का - पिण्ड गोलक का - रूप धारण करने वाले समय को प्रायः 11 अरब वर्ष हुए हैं। सौर मण्डल के अन्य सदस्यों का जन्म भी प्रायः एक साथ हुआ इससे उनकी आयु भी वही मानी जायेगी इसके अपवाद भिन्न-भिन्न ग्रहों में भिन्न-भिन्न संख्या में देखे गये। चंद्रमा हो सकते हैं जो बाद में बनते रहे हैं। पृथ्वी के चन्द्रमा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि समुद्र वाले गड्ढे से टूट कर अन्तरिक्ष में विचरण करने वाला पदार्थ भरा है। जो गिर तो पड़ा पर पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण परिधि को लाँघ न सकने के कारण उसी के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करने लगा। यही बात अन्य ग्रहों के चन्द्रमाओं के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

हमारी पृथ्वी सौर मण्डल के मध्य में नहीं है वरन् एक कोने में पड़ी है। ठीक इसी प्रकार अपना सौरमण्डल भी मन्दाकिनी आकाश गंगा के ठीक मध्य में अवस्थित न होकर एक कोने में पड़ा है। सूर्य प्रति सेकेंड 220 किलोमीटर की गति से अपने सौर मण्डल सहित आकाश गंगा केन्द्र का परिक्रमा करता है। इस संदर्भ में समझा जा सकता है कि जब से धरती पर मनुष्य का जन्म हुआ है तब से लेकर अब तक उस केन्द्र की परिक्रमा भी पूरी नहीं हो पाई है। अपनी आकाश गंगा के केन्द्र से यह सौर मण्डल 30 हजार प्रकाश वर्ष हट कर है।

अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों की तरह ही अपने इस सौर मण्डल का भी सृजन हुआ है। वाष्पीय महामेघ न केवल अपने केन्द्र में फटा वरन् उसके टुकड़े भी उसी क्रम से फटते चले गये। अपने-अपने उद्गम केन्द्र के इर्द-गिर्द उसकी आकर्षण शक्ति के कारण परिभ्रमण करने की स्थिति में फँसते चले गये। विस्फोट के जिस क्रम से वितरण विकिरण फैलता है उसी अनुपात से आकर्षण भी उत्पन्न होता है। वह अपने परिकर को एक सीमा तक ही बिखरने देता है। इसके बाद सभी को एक सूत्र में समेट लेता है और परिवार क्रम के अनुरूप निर्वाह करने लगता है। ब्रह्माण्ड में विद्यमान अनेकानेक सौर-मण्डलों के सम्बन्ध में यह घटनाक्रम घटित हुआ है।

अपने सौर मण्डल के सदस्यों में कुछ ग्रह हैं कुछ उपग्रह। ग्रहों में सूर्य को छोड़कर नौ ग्रह हैं। इनमें से कुछ तो खुली आँखों से देखे जा सकते हैं और कुछ ऐसे हैं जो अधिक दूरी तथा रोशनी की कमी के कारण विशेष उपकरणों से ही देखे जा सकते हैं। इन ग्रहों की दूरी, परिधि, भ्रमण कक्षा तथा प्रति सेकेंड चाल का लेखा-जोखा इस प्रकार है-

बुध - सूर्य से अधिकतम दूरी 267 ला सूर्य की परिक्रमा 88 दिन में, अपनी धुरी पर परिभ्रमण 59 दिन। दौड़ की गति प्रति सेकेंड 476 किलोमीटर।

शुक्र - सूर्य से अधिकतम दूरी 1090 लाख कि.मी. सूर्य की परिक्रमा 224.7 दिन। अपनी धुरी पर एक चक्कर 244 दिन। गति प्रति सेकेंड 35 कि.मी.।

पृथ्वी - दूरी 1521 लाख कि. मी. परिक्रमा 335.26 दिन। धुरी पर चक्कर 23 घण्टा 56 मि. 4 सै.। गति 26.8 कि. मी.।

मंगल - दूरी 2461 लाख कि. मी. परिक्रमा 6847 दिन। चक्कर 24 घण्टा 37 मि. 23 सै.। गति प्रति सेकेंड 24.1 कि.मी.।

बृहस्पति - दूरी 8657 लाख कि. मी.। परिक्रमा 11.86 वर्ष। धुरी भ्रमण 10 घण्टा 14 मि.। गति प्रति सेकेंड 13.1 कि. मी.।

शनि - दूरी 15070 लाख कि. मी.। परिक्रमा 2946 वर्ष। धुरी भ्रमण 10 घण्टा 14 मि.। गति 6.6 कि. मी. प्रति सेकेंड।

यूरेनस - दूरी 30040 लाख कि. मी.। परिक्रमा 84.1 वर्ष। धुरी 11 घण्टे। गति 6.8 सेकेंड।

नेपच्यून - दूरी 45370 लाख कि. मी.। परिक्रमा 164.8 वर्ष। धुरी 16 घण्टे। गति 5.4 सेकेंड।

प्लूटो - दूरी 73750 ला कि. मी. परिक्रमा 247.7 वर्ष। धुरी 6 दिन 6 घण्टे। गति 5.7 प्रति सेकेंड।

सौर मण्डल के चन्द्रमाओं की खोज में क्रमशः वृद्धि होती रही है। धरती का एक चन्द्रमा सर्वविदित है। उसे आँखों से देखा जा सकता है पर सौर मण्डल के अन्य ग्रहों में किसके इर्द-गिर्द कितने चन्द्रमा परिभ्रमण करते हैं। इसका पता खोजबीनों के सहारे धीरे-धीरे ही हस्तगत होता रहा है।

इस संदर्भ में नवीनतम जानकारी देने वाला एक नक्शा वैज्ञानिक पत्रिका “नेशनल ज्योग्राफी” में कुछ दिन पूर्व ही प्रकाशित हुआ है। जिसमें पृथ्वी के एक चन्द्रमा के अतिरिक्त मंगल के 2, बृहस्पति के 16, शनि के 16, यूरेनस के 5, प्लूटो का 1, नेपच्यून के 2, चन्द्रमा दर्शाये गये है। इस प्रकार सौर परिवार का चन्द्र समुदाय 43 सदस्यों का हो जाता है। यह अपने मूल ग्रहों से महत्वपूर्ण आदान-प्रदान करते रहते हैं। आमतौर से वे लेते अधिक और देते कम हैं, पर बृहस्पति का ‘इओ’ चन्द्रमा इसका अपवाद भी है। वह अपनी विशेष परिस्थिति के कारण 20 हजार एम्पीयर का एक विद्युत धारा अपने बृहस्पति की और भेजता है। इस कारण वहाँ एक प्रकार का सायरन सदा बजता रहता है।

अन्य ग्रहों के विशेषतया सौर मंडल के अनुदान अपनी पृथ्वी को निरन्तर मिलते रहते हैं। इनमें से कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष उपहार उल्काओं के रूप में प्राप्त होते रहते हैं। धरती पर उल्काएँ निरन्तर बरसती रहती है। उनमें से कुछ तो वायु मण्डल में प्रवेश करते समय ही जल-भुन जाती हैं कुछ बचे या भुने रूप में धरातल पर बरसती रहती है। उनसे न केवल पृथ्वी के भार में अभिवृद्धि होती है। वरन् और भी बहुत कुछ मिलता रहता है।

मंगल और बृहस्पति के बीच एक उल्का पिण्डों की शृंखला परिभ्रमण करती है। इसे एस्टेरायड मण्डल कहते हैं। उसमें कुछ बहुत छोटे आम, अमरूद जैसे और कुछ एक हजार किलोमीटर व्यास तक के उल्का खण्ड हैं। इनमें से कुछ कभी-कभी पथ भ्रष्ट होकर पृथ्वी की और चल पड़ते हैं। फलतः उसके वायुमण्डल में प्रवेश करते समय उन्हें भयंकर घर्षण का सामना करना पड़ता है। इसमें वे बुरी तरह जल भुन जाती हैं उनके अधजले खण्ड कभी-कभी पृथ्वी पर भी गिरते हैं। इन्हीं को उल्कापात या टूटते हुए तारे के रूप में देखा समझा जाता है। गणितीय आधार पर जाना गया है कि प्रायः एक हजार टन उल्का धूलि धरती पर गिरती है उसके वजन में यह वृद्धि हर वर्ष होती चली जाती है।

भूतकाल में उल्कापात जितना होता था अब उतना नहीं होता। इसका कारण पृथ्वी का वायु मण्डल क्रमशः अधिक सघन होते चले जाना है। चन्द्रमा पर वायु मण्डल के अभाव में उस पर भयंकर उल्कापात होता है। उसके धरातल में पाये जाने वाले गड्ढे इसी कारण बने है। पृथ्वी पर अनेक सरोवर इसी कारण बने है। खड्डों में उल्कापात होने से पृथ्वी की गहरी सतह भी प्रभावित होती रही है और उस कारण भूकम्पों और ज्वालामुखियों का नया आधार खड़ा होता रहा है।

उल्काओं ने जहाँ धरती को लातें मार कर-चिकोटी काट-काट कर उत्तेजित किया और परिवर्तन प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया है, उस दृष्टि से उन्हें श्रेय भी दिया जा सकता है। यों अपने समतल गोलक को चेचक जैसा दाग-दगीला और कुरूप भी उन्हीं ने बनाया है। अणुओं का परिवर्तन और सम्मिश्रीकरण में भी इस प्रहार प्रक्रिया से बहुत सहायता मिली है। सामान्य निर्जीव अणुओं का सूक्ष्म जीवी स्तर तक विकसित होना एवं फफूंदी शैवाल से बढ़ते-बढ़ते वनस्पति स्तर तक विकसित होना एवं फफूंद शैवाल से बढ़ते-बढ़ते वनस्पति स्तर तक पहुँचने में भी परिवर्तन गति को बढ़ाने में उल्काओं की अच्छी खासी भूमिका रही है।

जीन्स ढाँचे को सुनिश्चित रूप देने फ्रान्सिस क्रिक का कथन यह भी है कि धरती का जीवन उल्कापातों के माध्यम से धरती पर उतरा है।

स्वीडन के दार्शनिक स्वान्त आहेर्नियस ने भूतकाल की तरह इन दिनों भी आकाश से धरती पर जीवन की अनेक धाराओं के उतरने की बात कही थी। उनका आधार दर्शन था इसलिए उस पर ध्यान नहीं दिया गया पर अब उनके मत को वैज्ञानिक प्रश्रय मिल रहा है और यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि अन्तरिक्ष और धरातल के बीच न केवल पदार्थों और ऊर्जाओं का आदान-प्रदान होता है वरन् जीवन की विशिष्ट धाराएँ उतरने का भी अनुभव होता है।

सूर्य के अनुदान में व्यवधान या व्यतिरेक उत्पन्न होने से धरती निवासियों के लिए अनेक कठिनाईयाँ उत्पन्न होती हैं। अनावृष्टि, अतिवृष्टि, भूकंप, बाढ़, महामारी जैसी दुर्घटनाओं को गिना जाता है। वनस्पति के उत्पादन एवं गुण धर्म में अन्तर पड़ना, वातावरण में उलट-पुलट होने के कारण देखा जाता है। प्राणि जगत की प्रवृत्तियों के सामान्य क्रम में अन्तर आने और प्रवाह उलटने पर सम्बन्धित व्यवस्थाएँ भी ऐसी ही उथल-पुथल में गड़बड़ाती हैं कुल मिलाकर सूर्य द्वारा उगले गये अव्यवस्थित उफान पृथ्वी के सामान्य क्रम से व्यतिरेक ही उत्पन्न करते हैं और उनके कारण अभ्यस्त ढर्रे में व्यतिरेक होने के कारण चिन्ताजनक परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। एक ग्रह से दूसरे ग्रह के बीच जो आदान-प्रदान सामान्य चलते रहते हैं सन्तुलन बने रहने में सहायता करते हैं, उनमें भी इस कारण अव्यवस्था फैलती है और उस कारण विशेष रूप से विकसित और प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों के साथ अधिक घनिष्ठ होने के कारण मनुष्य ही अधिक प्रमाणित होता है।

सौर कलंकों के उभार वाले वर्षों में पिछले दिनों सर्वविदित दुर्घटनाएँ विनाशकारी युद्धों के रूप में सामने आई है। 2750 से 1950 तक के दो सौ वर्षों की घटनाओं पर इस संदर्भ में दृष्टिपात करने से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि सौर विवरण का प्रभाव मनुष्यों की युद्धोन्माद प्रवृत्ति के रूप में किस प्रकार उबल पड़ता है और किस तरह भयानक मार काट मचती है।

1763 ब्रिटेन युद्ध, 1786 फ्रांसीसी क्रांति, 1805 ट्रेफलगर, युद्ध 1815 वाटरलू युद्ध, 1857 भारत गदर, 1865 अमेरिकी गृहयुद्ध, 1604 रूस, जापान युद्ध 1614 प्रथम विश्वयुद्ध, 1634 द्वितीय विश्वयुद्ध, 1647 भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम। यह सभी समय ऐसे थे जिनमें सूर्य कलंक चरम ऊर्जा उगल रहे थे। कुछ ऐसी ही स्थिति अगले तीन वर्षों में भी होने जा रही है, जब ये अपनी चरम स्थिति पर होंगे।

सौर कलंकों की विशालता का एक अधिक प्रामाणिक और स्पष्ट चित्र स्काइलैब यान से धरती पर भेजा था। उसमें 5 लाख 60 हजार मील ऊँचाई तक उठती और चारों और फैलती हुई दिखाई गई है। इससे पूर्व भी और बाद में भी ऐसे अनेक अवसर आते रहते हैं जिनमें इन ज्वालाओं की ऊँचाई की ऊँचाई तथा चौड़ाई इससे भी कहीं अधिक थी।

ऐसे वर्षों में चर्म रोग से लेकर केन्सर आर्वुदों में असाधारण वृद्धि होती है। आत्महत्याओं का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक बढ़ जाता है। बलात्कार, अपहरण, आक्रमण एवं अपराधों का दौर रहता है। उत्तरी ध्रुव की गतिविधियाँ असामान्य हो उठती हैं। चुंबकीय तूफान आते हैं और रेडियो टेलीविजन जैसे संचार साधनों में गड़बड़ी होती है।

सौर ज्वालाएँ छोटी भी होती हैं और बड़ी भी। थोड़ी देर में ही उछलकर आकाश में विलुप्त भी हो जाती है और देर तक उनकी शिखा यथावत् बनी रह कर लहराती रहती है। कुछ मिनटों से लेकर कुछ घण्टों तक अपने एक रूप में बनी रहती है बाद में उनका स्वरूप घटता या बढ़ता रहता है। इन्हीं अव्यवस्थित परिस्थितियों में नैपोलियन, चंगेज खाँ, सिकन्दर, हिटलर जैसे दुर्दान्त व्यक्ति जन्म लेते हैं।

उस अवधि में सर्वत्र उत्तेजना छाई रहती है। इसका कई क्षेत्रों को तो कुछ लाभ भी होता किन्तु मनुष्यों में विशेष रूप से आवेश दृष्टि रहती हैं, उनका सन्तुलन शिथिल पड़ जाता है और उद्धत कार्य करने लगते हैं। अपराधी प्रवृत्तियाँ पनपती हैं और विग्रह खड़े होते हैं।

पृथ्वी सौर परिवार का एक सदस्य है। इस पर रहने वाले प्रणी भी उसी के नाती, पोती-परपोते हैं। हम सभी इस पारिवारिकता के अनुदानों और उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए। साथी ही आत्मनिर्भरता के सिद्धान्तों को समझना चाहिए। जिन्हें अपनाकर अनुकूलता का लाभ उठाया और प्रतिकूलता का सामना किया जाता है।

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