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Magazine - Year 1983 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्म विस्मृति की विडम्बना

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सृष्टि की सबसे विलक्षण, अद्भुत तथा सामर्थ्यवान संरचना है - मनुष्य। किसी भी वस्तु का सही स्वरूप और सामर्थ्य अविज्ञात हो तो उससे समुचित लाभ उठाते नहीं बनता। प्रकृति की कितनी ही शक्तिधाराओं का ज्ञान मनुष्य को लाखों वर्ष तक न था। फलस्वरूप उनसे लाभ नहीं मिल सका। आज ही नहीं लाखों वर्ष पूर्व भी वे धूल सादृश्य पदार्थ के गर्भ में विद्यमान थे, जिनसे परमाणु बम जैसे घातक आयुध बनते हैं। वस्तुएँ भी मौजूद थीं जिनसे विमानों, राकेटों, अन्तरिक्ष उपग्रहों का निर्माण होता है। ऊर्जा के प्रचुर पेट्रोलियम भण्डार इसी पृथ्वी के भीतर दबे पड़े थे। पर दीर्घकाल तक जानकारियों का अभाव बना रहा। फलतः उनसे मनुष्य जाति को प्रगति में विशेष सहयोग न मिल सका। जैसे उनकी सामर्थ्य का पता, प्राप्त करने की विद्या हाथ लगी, द्रुतगति से प्रगति पथ पर बढ़ चलने का मार्ग-प्रशस्त हुआ।

भौतिक प्रगति के आधारों को ढूंढ़ निकालने वाली मानवी अन्वेषक बुद्धि की जितनी सराहना, प्रशंसा की जाय, कम ही होगी पर उससे भी अधिक प्रशंसनीय, अभिनन्दनीय वह दिन होगा, जिस दिन वह अपनी सत्ता के सामर्थ्यों को समझने एवं उन्हें करतलगत करने की विधा को ढूंढ़ निकालेगा इस क्षेत्र में वह उतना ही पिछड़ा है, जितना कि आदिम युग में प्रकृति के संदर्भ में था। यह पिछड़ापन ही उसकी अनेकानेक भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं, उलझनों का प्रमुख कारण है। मनुष्य क्या है, इसका सही उत्तर जिस दिन मिलेगा, प्रगति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना होगी। उससे भी बड़ी घटना जितनी कि डायनामाइट, आग तथा परमाणु जैसे भौतिक आविष्कारों की थी।

मनुष्य के संदर्भ विज्ञान से जो जानकारियाँ मिली हैं वह मात्र वर्णनात्मक स्थिति तक हैं। उसकी ज्ञान की जितनी धाराएँ हैं, उन सबको एक जगह एकत्रित कर दिया जाय तो भी एक पूर्ण मनुष्य की समग्र व्याख्या करने में समर्थ न हो सकेंगे। सम्बद्ध विषयों के विशेषज्ञों को जितना ज्ञात हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि वे मनुष्य की पूर्ण सत्ता को समझने तथा उसमें सन्निहित अद्भुत सामर्थ्यों के लाभ उठाने की विधा से अभी करोड़ों मील दूर हैं। मानव की स्थूल आकृति तथा सूक्ष्म प्रकृति का एक नगण्य हिस्सा ही जानकारियों की पकड़ सीमा में आ सकता है। जिन्हें जानकर मनुष्य उलझता अधिक है। उसे भटकाव ही हाथ लगता है।

विज्ञान की विभिन्न धाराओं से खींचे गये रेखा चित्र के रूप में उसका अस्तित्व सामने आया है। मानव शरीर का पोस्टमार्स्टम करने तथा अध्ययन करने वाले शरीर विज्ञानी उसे एक लाश मानते हैं। इसे रसायन शास्त्री टिश्यू तथा तरल रसायनों के संयोग से बनने वाली संरचना घोषित करते हैं। जीवन विज्ञानियों का मत है कि कोशिकाओं तथा पोषक तरल पदार्थों का मनुष्य एक आश्चर्यजनक योग है। मनःशास्त्रियों के अनुसार एक आश्चर्यजनक योग है। मनःशास्त्रियों के अनुसार वह अपने मन की गहराइयों में झाँकने वाला एक चैतन्य प्राणी है जो अनुकूल वातावरण पाकर विकसित होता है। अध्यात्म शास्त्री उसे एक मूलतः सर्वसमर्थ सत्ता घोषित करते हैं, जो अपने ही बन्धनों के कारण दीन-हीन स्थिति में पड़ी रहती है। फलतः अपनी समर्थता का परिचय नहीं दे पाती। उन बन्धनों को तोड़ सकें तो सन्त सिद्ध, ऋषि, योगी, महापुरुष, सब कुछ बना जा सकता है।

कम आश्चर्यजनक बात यह भी नहीं है कि सर्वाधिक विवादास्पद, अविज्ञात सत्ता यदि है तो वह मनुष्य की ही है। मनुष्य के संदर्भ में विशेषज्ञों के मत अलग-अलग हैं एक भौतिकवादी तथा एक अध्यात्मवादी दोनों ही नमक, चीनी, मिर्च के कणों के रंग, स्वाद रूप का वर्णन एक रूप में ही करेंगे, पर मनुष्य के विषय में ऐसी वैचारिक एकता का सदियों से अभाव रहा है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि अभी कुछ समय तक और रहेगा। स्वयं एक यान्त्रिक शरीर विज्ञानी तथा एक जैविक शरीर विज्ञानी दोनों ही मनुष्य की शारीरिक रचना के सम्बन्ध में भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं। मनः शास्त्र मनुष्य की व्याख्या - विवेचन में अपनी ढपली आप बजाता- अपना राग अलग ही निकालता है। भौतिकी की इन विभिन्न धाराओं का विरोधाभास कब तक रहेगा, यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मनुष्य अपनी सत्ता से कब तब अनभिज्ञ बना रहेगा, कुछ भी कहना सम्भव नहीं।

जानयूटनलोव और हेन्सड्रिश जैसे विद्वान मानव शास्त्रियों का वह मत यथार्थ जान पड़ता है कि “प्रगति-क्रम में अनेकानेक वैज्ञानिकों रहस्यवादियों, कवियों तथा विचारकों ने आदिकाल से लेकर अब तक अपने ज्ञान अनुभवों का संचित विशाल भण्डार हमारे लिए उपलब्ध कराया है तो भी उनसे हम अपनी सत्ता की परिपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में असफल ही रहे हैं। यह सबसे बड़ी विडम्बना है, जिनके कारण ही आकर्षणों की मृग मरीचिका में मानव भटकता रहता है। फलतः जीवन रूपी गुलशन में शान्ति, सन्तोष आनन्द के पुष्प खिलाने तथा सुरभि आनन्द लेने के स्थान पर उसमें अशान्ति, उद्वेग, असन्तोष लेने के स्थान पर उसमें अशान्ति, उद्वेग, असन्तोष खिन्नता रूपी पौधों का ही बीजारोपण करते और उनकी विषाक्त दुर्गन्ध से अगणित प्रकार से हानि उठाते हैं।”

मानव शरीर की संरचना एवं उसकी प्रकृति से जुड़े हुए कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिनका कोई सटीक उत्तर विज्ञान नहीं दे सका है। शरीर की आन्तरिक संरचना एवं जटिल क्रिया प्रणाली एवं उनसे उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं में से अनेकों विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है। रासायनिक पदार्थों के अणु जटिल और अस्थायी पेशियों के अवयवों को बनाने के लिए किस प्रकार परस्पर सम्बद्ध होते हैं ? शरीर की कोशिकाएँ क्यों संगठित रहती और क्यों बागी होकर कैंसर जैसे असाध्य रोगों को जन्म देती हैं ? नर, नारी शिशु का निर्धारण, क्रोमोसोम्स के मिलन की आकस्मिक प्रक्रिया का परिणाम है अथवा और कुछ ? अपने आप एक निश्चित प्रकार का क्रोमोसोम ही नारी सेक्स क्रोमोसोम के विशिष्ट क्रोमोसोम से मिलकर ही नारी सेक्स क्रोमोसोम के विशिष्ट क्रोमोसोम से मिलकर कभी पुरुष अथवा कभी मनमाने ढंग से नारी शिशु का निर्माण क्यों करता है ? क्या उसमें मानवी इच्छाओं, आकाँक्षाओं, संकल्पों की भी भूमिका होती है, जो एक निश्चित प्रकार के क्रोमोसोम को मिलने के लिए बाध्य करते हैं ? शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक विकास की प्रक्रियाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण कौन-कौन से हैं ? जीवित पदार्थों की तरह मनुष्य भी ऊतकों व रसायनों का संयोजन मात्र है अथवा और भी कुछ ? चेतना तथा मस्तिष्क के आपसी सम्बन्धों का स्वरूप क्या है ? मनुष्य मनुष्य के बीच जन्मजात बौद्धिक विशेषताओं में इतनी भिन्नता क्यों दिखायी पड़ती है ? स्नायु तन्त्र के सन्तुलन के लिए कौन से तत्व प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं ? मनःशक्ति तथा आत्मशक्ति इन्द्रियों को किस सीमा तक प्रभावित करती हैं ?

स्थायी सुख शांति एवं सन्तोष के लिए परिस्थितियाँ जिम्मेदार हैं अथवा स्वयं की मनःस्थिति ? मनःस्थिति के निर्धारण में किन तत्वों की प्रमुख भूमिका होती है ? साहस शौर्य, पराक्रम जैसी मानसिक शक्तियां तथा दया करुणा, उदारता, सहिष्णुता जैसी भावनात्मक विशेषताओं को मनुष्य के भीतर कैसे पैदा किया जा सकता तथा उन्हें कैसे बढ़ाया जा सकता है ? सौंदर्य बोध, रसानुभूति का केन्द्र बाहर है अथवा भीतर, स्थूल है अथवा सूक्ष्म ? मनुष्य के पतनोन्मुखी प्रवाह को कैसे रोका एवं मोड़ा जा सकता है ? मनुष्य के जीवन से जुड़े हुए ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका हल ढूंढ़ना अत्यावश्यक है। इनकी उपेक्षा ऐसे हैं जिनका हल ढूँढ़ना अत्यावश्यक है। इनकी उपेक्षा का अर्थ होगा- अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना परमाणु युग से छलाँग लगाकर अन्तरिक्ष युग में प्रवेश करने वाले विज्ञान की विविध धाराएँ भी इन प्रश्नों का सटीक उत्तर नहीं दे सकी हैं। मनुष्य का अपने स्वयं के विषय में ज्ञान अभी प्रारम्भिक स्थिति में है।

यह सच है कि संसार में थोड़े से ही व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो पेट-प्रजनन के सीमित दायरे से निकलकर मनुष्य एवं समाज से जुड़ी हुई गंभीर समस्याओं पर गम्भीरता से विचार करते हैं। उनमें से थोड़े से होते हैं जो उनका समाधान ढूंढ़ने के लिए पूरे मनोयोग से जुटते हैं। विचारक, मनीषी, वैज्ञानिक, ऋषि, तत्वदर्शी इसी स्तर के व्यक्ति होते हैं। जो उन समस्याओं की ओर अपना ध्यान लगाते तथा अपनी सामर्थ्यों को खपाते हैं, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है, पर सामान्य व्यक्ति उन्हें महत्व नहीं देते। उनके चिन्तन प्रयास की ही परिणति ज्ञान विज्ञान की धाराओं के रूप में, तत्वज्ञान एवं अध्यात्म के अमृत के रूप में होती है। जिसका लाभ असंख्य व्यक्ति उठाते हैं।

सर्वविदित है कि विज्ञान की परिधि बाह्य संसार- प्रकृति जगत तक सीमित हैं तथा अध्यात्म की चेतना प्रधान जगत तक सीमित है तथा अध्यात्म की चेतना प्रधान है। चेतना अर्थात् सृष्टि का वह संचालक तत्व जिसकी प्रेरणा से जीव-जन्तु, पेड़ जीवन प्राप्त करते, हलचल करते तथा प्रकृति का श्रृंगार सौंदर्य के रूप में काम करते हैं। विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ उपभोग के साधनों के रूप में मिलता है, जिसके लिए मनुष्य को विविध रूपों में मूल्य चुकाना पड़ता है। पर उपभोग में सदुपयोग की दूरदर्शी दृष्टि का विकास अध्यात्म ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। अध्यात्म अर्थात् चेतना का विज्ञान। अधिक स्पष्ट व्यावहारिक परिभाषा देनी हो तो उसे जीवन दृष्टि के रूप में जाना जा सकता है। ऐसी दृष्टि जो स्वयं के स्वरूप के विषय में ज्ञान रखती है तथा उसके प्रकाश में बाह्य संसार तथा वस्तुओं का सही मूल्याँकन करती हो। संसार में उँगली पर गिनने जितने मनुष्य होंगे जो इस दृष्टि से युक्त हैं अन्यथा अधिकाँश बुद्धिमान, विद्वान, प्रतिभावान होते हुए भी उससे शून्य हैं। यही है विष बीज जिससे अगणित मानव समस्याएँ जन्म लेती तथा परिपोषित होती रहती है। समझदार होते हुए भी उनके मूलभूत कारणों की जड़ न उखाड़ने तथा समाधान के लिए बाहर दौड़ते रहने का परिणाम मनुष्य को अशान्ति, असन्तोष तथा असफलता के रूप में भुगतना पड़ता है।

प्रख्यात पुस्तक “मैन दी अननोन” के लेखक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्सिस केरेल का कहना अक्षरशः सत्य है कि “विश्व के भौतिकवादी सुखों ने मानव मस्तिष्क को अपनी ओर पूरी तरह आकृष्ट कर रखा है। फलस्वरूप मानव अध्यात्मिक जीवन तथा उससे जुड़ी असीम सम्भावनाओं को पूरी तरह भूला बैठा है। वह भौतिक संसार में ही जीता तथा उसका उपभोग करता है। अपनी सत्ता को शरीर एवं मन से अधिक नहीं मानता। यह एक ऐसी भ्रान्ति हैं, जिसके रहते जीवन के उच्चस्तरीय आयामों में प्रवेश करते नहीं बनता।”

आत्म विस्मृति के गर्त में पड़े रहने तथा भौतिक संसार को ही सब कुछ मानकर उसमें डूबे रहने में मनुष्य ने गँवाया अधिक पाया कम है। जो पाया है वे साधन भी उसी के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं। जड़ की प्रचण्ड शक्ति परमाणु विभीषिकाओं के रूप में मनुष्य के सिर पर मंडरा रही हैं। फूटकर वह कब महाप्रलय के रूप में टूट पड़े, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तनावों को बढ़ने, व्यक्तिगत, सामाजिक जीवन में विग्रहों को पनपने का कभी अवसर नहीं आता यदि उस सच्चाई का ज्ञान रहा होता कि हम सब एक सत्ता के एक परमात्मा की सन्तान हैं, एक ही अभिन्न सत्ता सब में उसी प्रकार क्रीड़ा कल्लोल कर रही है, जिस तरह एक सूर्य अनेकों किरणों के रूप में चमकता दिखायी पड़ता है। आत्म स्वरूप की अनुभूति युग की एक परम आवश्यकता है। ऐसी जिसकी कि उपेक्षा किसी भी हालत में नहीं की जानी चाहिए। असीम सामर्थ्यों से भरी-पूरी मानवी सत्ता नर-पशु के रूप में विचरती अपनी गरिमा को भूली रहे, इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी ?

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