
अपनी सामर्थ्य पहचाने सुदृढ़ बनें।
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अभावग्रस्तता, असमर्थता, अन्तर्बोध के अभाव के कारण अनुभव होती है। कीमती वस्तुएँ तिजोरी में रखी जाती हैं। प्रकृति प्रदत्त बहुमूल्य रत्न भी भूगर्भ में छिपे रहते हैं। जिन्हें पुरुषार्थी शूरवीर ही प्राप्त कर पाते हैं। दुर्लभ कीमती मोती समुद्र की अथाह गहराई में पड़े रहते हैं जिन्हें दुस्साहसी गोताखोर जान हथेली पर रखकर प्राप्त करते हैं। इन भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने का सुअवसर हर किसी के लिए सुलभ है किन्तु आत्म-विश्वासी, साहसी ही उनका लाभ उठा पाने में सफल होते हैं। प्रकृति प्रदत्त बहुमूल्य अनुदानों की भाँति परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को अन्तःविभूतियों से सुसम्पन्न करके भेजा है। अन्तरतम केन्द्र-आत्म में एक से बढ़कर एक विशेषताएँ विद्यमान हैं। किन्तु अपने आपे से अनजान होने के कारण उसमें सन्निहित विशेषताओं का मनुष्य लाभ नहीं उठा पाता और उसकी स्थिति वही होती है जो गली में बँधे हीरे से अपरिचित भीख माँगने वाले बालक की हुई थी।
अपने को असहाय, असमर्थ, अयोग्य, अभावग्रस्त महसूस करने एवं दूसरों से सहयोग, सहकार, अनुदान, वरदान की याचना करने और आगे बढ़ने ऊँचे उठने की बात सोचते रहने वालों के साथ एक ही मानसिक तत्व काम करता है कि उन्हें अपनी शक्तियों-विशेषताओं का भान नहीं होता। अपने को वे क्षुद्र हेय मानते रहते हैं और यह सोचते हैं कि वे अमुक कार्य के लिए अयोग्य हैं। सन्त इमर्सन कहा करते थे कि मनुष्य जैसा भी दिखायी पड़ता है अपने प्रति बनाई गई मान्यता का प्रतिफल मात्र है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में भी इस तथ्य की पुष्टि हो चली है कि व्यक्तित्व को गढ़ने में मनुष्य की अपने प्रति बनायी गई मान्यताओं का बहुत बड़ा योगदान है।
तत्वदर्शी ऋषि इस सूक्ष्म रहस्य से पूर्णरूपेण परिचित थे। वे आरम्भ से ही यह उद्घोष करते आये हैं कि जीव अपना स्वरूप बना सकने में पूर्णतः सक्षम विभूति सम्पन्न है। जिन वैचारिक रहस्यों पर मनोवैज्ञानिक आज शोध कर रहे हैं उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों से ऋषि बहुत समय पूर्व से ही परिचित थे। विडम्बना तो यह है कि प्रत्यक्षवाद की दुहाई देने तथा मनुष्य को सर्वोपरि घोषित करने वाले भौतिकवादी जब यह कहते हैं कि मनुष्य जीवन और कुछ नहीं जड़ अणुओं का संयोग मात्र है जिनके बिखरते ही जीवन का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है - तो भारी निराशा होती है। मनुष्य भी जड़ तत्वों का संयोग मात्र है प्रचलित मान्यता यह होगी तो भला चैतन्य विशेषताओं आत्म विभूतियों का लाभ उठा सकना किस प्रकार सम्भव हो सकेगा ? अपना आपा कितना समृद्ध -कितना सामर्थ्यवान है, यह तथ्य रहस्य के गर्त में ही पड़ा रहेगा और उन विशेषताओं से लाभ उठा सकना भी सम्भव न हो सकेगा।
समर्थता भौतिक शक्ति को ही नहीं कहते, वरन् उन विशेषताओं को भी कहते हैं जिनके सहारे मनुष्य अपने को अधिकाधिक सन्तुष्ट पाता हो। हमारी अन्तरात्मा शुद्ध, बद्ध, शान्त, पूर्ण एवं प्रचण्ड शक्ति से ओत- प्रोत है। यह विश्वास स्वयं में एक सर्वोपरि शक्ति है तथा हर प्रकार की परिस्थितियों में मनुष्य को सदा अतृप्त, अशान्त ही बनाये रखती है। भले ही उसके पास कितनी भी भौतिक शक्ति क्यों न एकत्रित हो गई हो। साधन एवं शक्ति का संचय सुख शान्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता है। समस्त विश्व में इसी के निमित्त विभिन्न प्रकार की मानवी चेष्टाएँ चल रही हैं किंतु वह स्थिति भी किसी से नहीं छिपी है कि जितना अधिक शक्ति साधन जुटते जा रहे हैं मनुष्य शान्ति एवं सन्तोष की उपलब्धियों से उतना ही दूर हटता जा रहा है। अतृप्ति, असंतोष एवं अशान्ति की स्थिति उतनी ही अधिक बढ़ती जा रही है।
यह आत्म विस्मृति का ही परिचायक है जिसके रहते मनुष्य आत्म विभूतियों से सदा अपरिचित ही वन रहता है। यह जड़वादी दृष्टिकोण की ही परिणति है कि वह जड़ तत्वों में-साधन सुविधाओं में विषयों के सेवन में तृप्ति, संतुष्टि एवं शान्ति की खोज करता है। जीवन के प्रति इस भौतिकवादी दृष्टिकोण को बदलना होगा तथा ऋषियों के उसी उदात्त उद्घोष को दुहराना होगा जिसमें वे कहा करते थे - ‘सोऽहम्’ - ‘सच्चिदानंदोऽहम्’ अह ब्रह्मास्मि’। हमारे भीतर ब्राह्मी शक्ति का-चेतना का सागर लहलहा रहा है। “वाह्य परिस्थितियों के निर्माता हम स्वयं हैं।”
विस्मृति को हटाने एवं आत्म शक्ति से परिचित होने के लिए आत्म विश्वास के साथ दूसरा चरण उठाने की आवश्यकता होगी साधना पुरुषार्थ करने की। समुद्र में से मोती निकालने में सफल दुस्साहसी गोताखोर होते हैं जबकि समुद्र के अन्तराल में मोती होने के तथ्य से सुपरिचित होते हुए भी साहस एवं पुरुषार्थ के अभाव में गहराई में मोती के लिए गोता लगाते नहीं बनता है। अपने आपे का स्वरूप जानने एवं उसमें सन्निहित शक्तियों को प्राप्त करने के लिए जो साधना पुरुषार्थ का अवलम्बन लेकर दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए कटिबद्ध होते हैं क्रमशः एक से बढ़कर एक विभूतियों के करतलगत करते जाते हैं। तब से यह अनुभव करते हैं कि उस दयालु परम पिता परमात्मा ने एक से बढ़कर एक विभूतियों से सुसम्पन्न करके जीवात्मा को भेजा है। यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि विस्मृति की चादर ओढ़कर असहाय असमर्थ स्थिति में जीवन व्यतीत करे अथवा आत्म गठरी को खोलने का पुरुषार्थ करने उसमें छिपी आत्मिक विभूतियों का लाभ उठाये। विस्मृति से आत्म जागृति की दिशा में अग्रगमन करते ही मनुष्य की दरिद्रता, असमर्थता के दूर होते एवं समर्थ सम्पन्न बनते देरी नहीं लगती।
अध्यात्म दर्शन का अवलम्बन मनुष्य को सदैव यही प्रेरणा देता आया है कि वह अपने अन्दर झाँके, अपनी सम्पदाओं के भाण्डागार को टटोले, याचना न कर अपने ही पुरुषार्थ से प्रगति के पथ पर चलता रहे। महापुरुषों ने भी सदैव यही मार्ग अपनाया है व स्वयं को-सारी मानवता को कृतार्थ किया है। सामर्थ्य को पहचानते ही हनुमान जब समुद्र पार करने के समान दुस्साहस कर सकते हैं, अर्जुन अपने अभिन्न सखा का परामर्श मानकर मोह की विडम्बना से मुक्त हो अजेय, अमर वन सकते हैं तो मनुष्य अपने व्यावहारिक जीवन में दीख पड़ने वाली समस्याओं को क्यों नहीं सुलझा सकता ? वह भी उठते-उठते उसी स्तर पर पहुँच सकता है जहाँ देवदूत, ऋषि, महामानव पहुँचकर इस वसुधा को गौरवान्वित करते रहे हैं।