
विनाश लीला टाली जा सकती है।
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प्रस्तुत विभीषिकाओं का आत्यन्तिक समाधान है मानवी अन्तराल का परिशोधन परिष्कार, सदाशयतायुक्त व्यवहार। जब तक चिन्तन में भ्रष्टता भरी होगी, मानवी समुदाय में परिवर्तन आने वाला नहीं है। यही वह मूल स्रोत है जहाँ से अपराध, विग्रह-अलगाव, युद्धोन्माद, प्रकृति के साथ अनाचार जैसी विकृतियाँ जन्म लेती हैं। परिस्थितियाँ भी कुछ सीमा तक प्रस्तुत परिस्थितियों के लिये उत्तरदायी ठहरायी जा सकती हैं परन्तु गहराई में विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह दुर्गति वस्तुतः दुर्मतिजन्य है। यदि मनीषी समुदाय वस्तुतः सजग रहा होगा तो न पिछले दो विश्वयुद्ध होते, न ही वर्तमान विसंगतिपूर्ण सभ्यता का स्वरूप नजर आता। कला, लेखनी, वाणी, विज्ञान, वैभव जैसी सम्पदा के धनी ये मनीषी यदि चाहते तो सारे विश्व को नयी दिशा दे सकते थे। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के संहार भरे समापन से भी किसी को प्रेरणा नहीं मिल। इसे एक विडम्बना ही का जाएगा।
फिर भी गत पाँच वर्षों में एक समुदाय विशेष में चेतना जागी व उमंगें उठी हैं कि विनाश की सम्भावनाओं को निरस्त करने के लिए सृजनात्मक प्रयास विश्व स्तर पर एकजुट होकर किये जाएँ। हडसन इन्स्टीट्यूट ने प्रायः 100 मूर्धन्य शोधकर्ताओं के सहयोग से ऐसे तथ्य एकत्रित किये हैं जिनमें वर्तमान की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते हुए निकट भविष्य की सम्भावनाओं का प्रस्तुतीकरण किया जा सके। इस संस्थान ने विश्व विख्यात प्रकाशन “दि ईयर 2000 ए. फ्रेम-वर्क फार स्पेकुलेशन” प्रकाशित की है। उसमें कहा गया है कि सुविधा साधनों में तथा कौशल चातुर्य में पिछले दिनों वृद्धि अवश्य हुई, पर साथ ही यह भी उतना ही सही है कि मनुष्य शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से निरन्तर पतन की दिशा में चला है। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन इतने बढ़े हैं एवं उनका खर्च उतना हो गया है जितने का कि अन्न खपता है। फलतः न केवल रोगों की संख्या बढ़ी है वरन् विक्षिप्त एवं अर्ध विक्षिप्तों की भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हो रही है। नई सन्तति में अविकसितों और विकलाँगों का अनुपात भयावह गति से बढ़ रहा है। तथा दाम्पत्य जीवन टूट रहा है। हर तीन विवाहों में से एक का साल भर के भीतर हो तलाक के रूप में विसर्जन हो जाता है। पाश्चात्य देशों में अवैध सन्तानों और गर्भपातों की धूम को देखते हुए लगता है कि दांपत्ति जीवन की पवित्रता धीरे-धीरे एक मखौल खिलवाड़ बनती जा रही है।
आगे वे लिखते हैं कि वर्तमान ढर्रा तभी बदल सकता है जब समाज का अग्रणी बुद्धिजीवी समुदाय जागे- संघशक्ति के रूप में विकसित हो तथा मानवता को रचनात्मक दिशा बोध कराए। इसके लिए उन्हें अपने वैभव की ललक लिप्सा, स्वजनों सम्बन्धी मोह छोड़कर समाज निर्माण के क्षेत्र में कूदना पड़ सकता है। जब तक यह समूह आगे नहीं आयेगा, परिस्थितियाँ बदलेंगी नहीं। जनता तो अनुकरण भर करती है। जब एक हिटलर अपने नाजीवाद को सारे जर्मन पर थोपकर युद्धोन्माद का वातावरण पैदा कर सकता है तो अगणित -एक विचार वाले मनीषी मिलकर ऐसी परिस्थिति क्यों नहीं कर सकते जहाँ सब शान्ति से एक साथ रह सकें- विभीषिकाओं को निरस्त कर सकें।
लगभग इसी विचारधारा के छह हजार बुद्धिजीवी वैज्ञानिक 3 वर्ष पूर्व टोरोंटो में तथा इससे पहले कोरिया में एकत्र हुये थे। इन दोनों ही अधिवेशनों में वर्तमान की परिस्थिति की समीक्षा की गयी तथा सम्भावना व्यक्त की गयी कि नये सिरे से कटिबद्ध होकर प्रयास करने पर विनाश को टाला जा सकता है। इसके लिए व्यक्ति को अपना चिन्तन आमूल चूल बदलना होगा ताकि वह अपना ही नहीं सबका हित सोचने लगे।
ये शुभ चिन्ह इस बात का संकेत देते हैं कि विनाश अवश्यम्भावी नहीं है। सृजन सुनिश्चित हो सकता है यदि मानव के क्रिया-कलाप उस दिशा में अग्रसर होने लगें।