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Magazine - Year 1984 - Version 2

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ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता का आन्तरिक भाण्डागार

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काया की बलिष्ठता पर आरोग्य और दीर्घ जीवन निर्भर है। यह भी एक प्रकार का विशेष वैभव है। इस उपलब्धि की समस्त सम्भावनाएँ मनुष्य अपने अन्तःक्षेत्र में छिपाए बैठा है। उस अप्रकट को प्रकट करना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। जो एक के लिये सम्भव हो सकता है, वह दूसरे के लिए असम्भव रहे, इसका एक ही कारण है- पुरुषार्थ की कोताही। परिस्थितियों को- भाग्य को इसके लिए दोष देना व्यर्थ है। क्योंकि परिस्थितियाँ मनःस्थिति की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। हर मनुष्य अपना भाग्य, अपना संसार और अपना भविष्य स्वयं ही विनिर्मित करता है। जिसे भाग्य या संयोग कहा जाता है, वह भी पिछले पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है। आरोग्य एवं दीर्घ जीवन के वरदान भी आत्म-निर्माण की साधना के फलस्वरूप ही उपलब्ध होते हैं।

इसके अतिरिक्त भी मनुष्य की एक ओर ऐसी ही विशेषता है जिसे जीवट या जीवनी शक्ति कहते हैं। इसका बाहुल्य रहने से मनुष्य प्राणवान, स्फूर्तिवान, ओजस्वी, प्रतिभाशाली बनता है। साहस, पराक्रम, उत्साह और स्फूर्ति का समन्वय ‘जीवट’ के रूप में जाना जा सकता है। यह हो तो सामान्य काया भी कम समय में ऊँचे स्तर के कार्य अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है। तत्परता शरीरगत है और तन्मयता मनोगत। दोनों का सुयोग-संयोग जब भी- जहाँ भी- होता है वहाँ बिजली के दोनों तार जुड़ जाने पर प्रवाहित होने वाले ‘करण्ट’ की तरह जीवट का उभार भी दृष्टिगोचर होता है। इसके अभाव में बलिष्ठ और दीर्घजीवी मनुष्य भी कुछ महत्वपूर्ण कर सकने में समर्थ नहीं होता। नीरोग लम्बी जिन्दगी जी लेना एक बात है और लक्ष्य पर बिजली की तरह टूट पड़ने वाली- सफलता पाने से पूर्व न रुकने, न झुकने वाली ओजस्विता दूसरी। मनस्वी, तेजस्वी व्यक्ति शरीर की दृष्टि से भले ही सामान्य दीखे पर वे काम इतना अधिक इतने ऊँचे स्तर का कर गुजरते हैं कि सामान्य स्तर के व्यक्ति उसे किसी देवता का वरदान या भाग्य का अनुदान मानने लगते हैं। वस्तुतः यह जीवट ही है जिसके होने पर मनुष्य का पराक्रम अत्यधिक बढ़ जाता है और जिसके अभाव में बलिष्ठ व्यक्ति भी गन्दा मोटा-सोटा अजगर बना ज्यों−त्यों करके दिन गुजारता रहता है।

ओजस्विता के बीजांकुर हर किसी के अन्तराल में समान रूप से विद्यमान हैं। प्रतिभा की किसी में कमी नहीं। स्फूर्ति कहीं आसमान से नहीं टूटती, अभ्यास द्वारा स्वभाव का अंग बनानी पड़ती है। जो ऐसा कर लेते हैं उनकी जीवट- जीवनी शक्ति अपने चमत्कार पग-पग पर दिखाती है। यह आन्तरिक विशेषता नस-नाड़ियों में बिजली की तरह दौड़ती है जो क्षमता को इस स्तर का बना देती है मानो कि देव-दानव की भूमिका निभ रही हो। ऐसे प्रमाण उदाहरणों की कहीं कोई कमी नहीं। अतीत के संस्मरणों में ऐसे अगणित उल्लेख हैं। कोई चाहे तो अभी भी ऐसे प्रमाण-उदाहरण अपने ही इर्द-गिर्द तलाश कर सकता है।

राजनीति के क्षेत्र में विन्सटन चर्चिल, बेंजामिन फ्रेंकलिन, डिजरैली, ग्लेडस्टोन आदि ऐतिहासिक पुरुषों का नाम आता है जो अपनी वृद्धावस्था की चुनौतियों के बावजूद बहुत सक्रिय बने हुए अपने देश की अमूल्य सेवा में अनवरत रूप से लगे रहे।

पश्चिम एवं भारत के वे कुछ महान पुरुष उल्लेखनीय हैं, जिनकी रचनात्मक शक्ति का हास उनकी ढलती उम्र के कारण कतई नहीं हुआ था और जिन्होंने अपने बुढ़ापे में बड़े महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काम करके मानवता की अपूर्व सेवा की।

ऐसे महान पुरुषों में कुछ हैं- दार्शनिक सन्त सुकरात, प्लेटो, पाइथोगोरेस, होमर आगस्टस, खगोल शास्त्री गैलीलियो, प्रसिद्ध कवि हेनरी वर्ड सवर्थ, वैज्ञानिक थामस अलमा एडीशन, निकोलस, कोपरनिकस, विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, सिसरो, अलबर्ट, आइन्स्टीन, टेनिसन, बेंजामिन, फ्रेंकलिन, महात्मा टालस्टाय, महात्मा गाँधी तथा जवाहर लाल नेहरू। इन सभी ने कभी भी अपनी जिजीविषा को वार्धक्य आने पर कम नहीं होने दिया।

महात्मा सुकरात सत्तर वर्ष की उम्र में अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्त्वदर्शन की विशद व्याख्या करने में जुटे हुए थे। यही बात प्लेटो के सम्बन्ध में भी थी। वे अपनी अस्सी वर्ष की आयु तक बराबर कठोर परिश्रम करते रहे। इक्यासी वर्ष की अवस्था में हाथ में कलम पकड़े हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया।

पं. जवाहरलाल नेहरू अस्सी के करीब ही जा पहुँचे थे, पर उन्होंने न कभी अपने को वृद्ध कहा और न किसी को कहने दिया।

यूनानी नाटककार सोफोक्लीज ने 90 वर्ष की आयु में अपना प्रसिद्ध नाटक ‘ईडीपस’ लिखा था। अंग्रेजी कवि मिल्टन 44 वर्ष की उम्र में अन्धे हो गये थे। इसके बाद उन्होंने सारा ध्यान साहित्य रचना पर केन्द्रित कर दिया। 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘पैराडाइज लास्ट’ लिखा। 62 वर्ष में उनका ‘पैराडाइज रीगेन्ड’ प्रकाशित हुआ। जर्मन कवि गेटे ने अपन ग्रन्थ ‘फास्ट’ 80 वर्ष की आयु में पूरा किया। 92 वर्ष का अमेरिकी दार्शनिक जानडेवी अपने क्षेत्र में अन्य सभी विद्वानों में अग्रणी था।

दार्शनिक ‘कैन्ट’ को साहित्यिक ख्याति 74 वर्ष की आयु में मिली जब उसकी ‘एन्थ्रो पोलोजी’ ‘मेटा फिजिक्स आफ ईथिक्स’ और “स्ट्राइफ आफ फैकल्टीज” प्रकाश में आईं। होब्स ने 88 वर्ष की उम्र में ‘इलियड’ का अनुवाद प्रकाशित कराया था। चित्रकार टीटान का विश्व विख्यात चित्र ‘वैटिल आफ लिमान्टो’ जब पूरा हुआ तब वे 98 वर्ष के थे।

अलबर्ट आइन्स्टीन की तरह ही थे जो कि अपने अन्तिम दिनों तक बराबर काम करते रहे, सेमुअल मोर्स ने टेलीग्राफ आविष्कार की अपनी प्रसिद्धि के बाद अपने को व्यस्त रखने के लिए अनेकों महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यों में लगाये रखा। जिनके लिये उन्हें ख्याति प्राप्त है। महात्मा टालस्टाय अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद भी इतनी चुस्ती, गहराई और प्रभावशील ढंग से लिखते रहे कि उसकी बराबरी आधुनिक यूरोप के किसी लेखक द्वारा नहीं हो सकती।

विक्टर ह्यूगो तिरासी वर्ष की आयु तक मृत्यु पर्यन्त लिखते रहे। वृद्धावस्था उनकी अद्भुत शक्ति तथा ताजगी पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकी। टेनीसन ने अस्सी वर्ष की प्रौढ़ावस्था में अपनी सुन्दर रचना “क्रासिंग द वार” दुनिया को भेंट की। राबर्ट ब्राऊनिंग जिन्हें कवि के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है अपने जीवन के सन्ध्याकाल में भी सक्रिय बने रहे। उन्हें छियत्तर वर्ष की उम्र में मृत्यु से कुछ पूर्व ही अपनी दो सर्व सुन्दर रचनाएँ “टेबेरी” एवं एपीलाग टू आसलेण्डी लिखी थी।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक यूटोपिया लेखक एच. जी. वेल्स ने सत्तर वर्ष का जन्मदिन मनाने के उपरान्त भी पूरी चुस्ती और कर्मठता के साथ एक दर्जन नयी पुस्तकों की घोषणा की। व उसे पूरा कर दिखाया। महान साहित्यकार जार्ज बर्नार्डशा की 93 वीं वर्षगाँठ मनाई गई तो उनने बताया कि इन दिनों वे इतना अधिक लिखते हैं जितना कि 40 वर्ष की आयु में भी नहीं लिख पाते थे। दार्शनिक वेनैदित्तो क्रोचे 80 वर्ष की अवस्था में भी नियमित रूप से 10 घण्टे काम करते थे। उनने दो पुस्तकें तब पूरी कीं जब वे 85 वर्ष के थे। वटेन्ड रसैल को जब नोबुल पुरस्कार मिला तब वे 78 वर्ष के थे। मारिस मैटर लिंक का देहावसान 88 वर्ष की आयु में हुआ। मरने के दिनों ही उनकी अन्तिम पुस्तक ‘दि एवाट आफ सेतुवाल’ प्रकाशित हुई जिसे उनकी रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। ब्रिटेन के प्रख्यात पत्र ‘डेली एक्सप्रेस’ के संचालक लार्ड वीवन वर्क लगभग 80 वर्ष की आयु तक पहुँचते हुए भी अपने दफ्तर में जमकर दस घण्टे बैठते थे।

महारानी विक्टोरिया ने अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारियों को ब्यासी वर्ष की अवस्था तक कुशलता के साथ निभाया। मेरीसमरबिले ने ब्यासी साल की आयु में परमाणु (मालेक्यूलर) तथा अणुवीक्षण यन्त्र सम्बन्धी (माइक्रोसकोपिकल) विज्ञान पर अपनी उपयोगी एवं बहुमूल्य रचना प्रकाशित की। मिसेज लूक्रेरिया सत्तासी वर्ष की उम्र तक महिलाओं को ऊपर उठाने तथा विश्वशान्ति के लिये अथक रूप में निस्वार्थ सेवा कार्यों में जुटी रहीं।

पेरिस की 80 वर्षीय महिला सान्द्रेवच्की पिछले दिनों सारवोन विश्वविद्यालय की विशिष्ट छात्रा थी। उन्होंने 60 वर्ष पूर्व छोड़ी हुई अपनी कक्षा की पढ़ाई जब आरम्भ की तब इस महिला के तीन पुत्र, सात नाती नातिन और एक ‘परनाती’ थे। भारत की कोकिला कही जाने वाली श्रीमती सरोजिनी नायडू एवं श्रीमती एनी बेसेण्ट ने वृद्धावस्था में भी राष्ट्र, धर्म तथा मानवता की जो सेवाएँ कीं, वे चिरस्मरणीय रहेंगी।

सिसरो ने अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व तिरेसठ वर्ष की आयु में अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक “एट्रीटिज ऑन गोल्ड एज” की रचना की। कीरो ने अस्सी साल की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी थी। प्रसिद्ध दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, लेखकों के ये उदाहरण इस तथ्य की साक्षी हैं कि इच्छा शक्ति जब तक है तब तक आयु भी साथ देती है। व्याधिग्रस्त विवेकानन्द, भगंदर के फोड़े से कष्ट भुगत रहे शंकराचार्य जब अन्तिम क्षणों तक कार्य करते जी सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि एक स्वस्थ मनुष्य सब कुछ सामान्य, सामर्थ्य अद्भुत होते हुए भी अपने हाथ-पाँव पसार दे, प्रमादग्रस्त जीवन जिए। ऐसे अनेकों उदाहरण और भी हैं, जब अपने आयु के उत्तरार्ध में महामानवों ने विलक्षण कहे जाने वाले कार्य सम्पन्न किए।

प्लूटार्क यूनान के माने हुए साहित्यकार हुए हैं। उन्होंने पचहत्तर वर्ष की आयु के बाद लैटिन भाषा पढ़नी आरम्भ की थी। इटली का प्रख्यात उपन्यासकार वोकेशियो को ढलती उम्र में साहित्यकार बनने की बात सूझी। उस ओर वह पूरी दिलचस्पी के साथ जुटा और अन्ततः मूर्धन्य कथाकार बनकर चमका।

दार्शनिक फ्रेंकलिन की विश्वव्यापी ख्याति है। वे पचास वर्ष की आयु तक दर्शन शास्त्र से अपरिचित रहे। दर्शन के प्रति रुझान इसके बाद ही उत्पन्न हुआ और वह उन्हें विश्व विख्यात बनाकर ही रहा। इस काल में रचित उनका साहित्य आज भी दर्शन शास्त्र की गीता माना जाता है।

पण्डित दामोदर सातवलेकर का उदाहरण तो प्रख्यात है। स्वाध्याय मण्डल पारदी के संस्थापक इस महापुरुष ने पैंसठ वर्ष की आयु के बाद अपना आन्दोलन चलाया एवं आर्ष ग्रन्थों की सटीक, व्याख्या पर वैदिक साहित्य का नवीनीकरण आधुनिक सन्दर्भ में किया। सुकरात के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि वे मात्र दार्शनिक ही नहीं, संगीतज्ञ भी थे। उन्होंने साठ वर्ष पार करने के उपरान्त यह अनुभव किया कि बुढ़ापे की थकान और उदासी को दूर करने के लिए संगीत अच्छा माध्यम हो सकता है। अस्तु उन्होंने गाना सीखना आरम्भ किया और बजाना भी। यह क्रम उन्होंने मरते दिनों तक जारी रखा। अपनी स्फूर्ति व योगी मनःस्थिति का वे इसे मूल आधार मानते थे।

सर हेनरी स्पेलमैन अग्रगन्य विज्ञानवेत्ता हुये हैं। वे 60 वर्ष तक दूसरी तरह के काम करते रहे। इस उम्र में उन्हें वैज्ञानिक बनने की सूझी सो उन्होंने साइन्स की पुस्तकें पढ़नी आरम्भ कीं और उस दिशा में उनकी बढ़ती दिलचस्पी ने उन्हें उच्चकोटि की वैज्ञानिक सफलताऐं प्रदान की।

न्यूजीलैण्ड निवासी एक 85 वर्षीय वयोवृद्ध एल्फ्रेड एन. रीड ने लम्बी यात्रा अनवरत जारी रखने का कीर्तिमान स्थापित किया। उसे नार्थकेप से दक्षिणी न्यूजीलैण्ड के छोर तक की 2700 मील लम्बी यात्रा पैदल करनी थी। वह चलता ही रहा और जवानों की गति से नियत स्थान पर आशा से बहुत पहले ही जा पहुँचा। इतना ही नहीं उसने 90 वर्ष की आयु में भी सिडनी से मेलबोर्न तक की 630 मील की यात्रा सफलतापूर्वक सम्पन्न की और रास्ते में ऊँचे पर्वत लाँघे।

जीवट वाली लड़कियों में स्विट्जरलैंड की फुटिजर का नाम अविस्मरणीय रहेगा। उसने सदा बर्फ में ढके रहने वाले एल्लैलिन हार्न पर्वत की 13234 फुट चढ़ाई बिना थके चढ़कर दिखाई। तब वह मात्र आठ वर्ष की थी। अभी-अभी पिछले दिनों कुछ किशोरवय की लड़कियों ने नन्दादेवी की चढ़ाई पूरी कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।

अमेरिका की सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री ‘दादी रेनाल्डस’ ने पाश्चात्य जगत में बहुत ख्याति प्राप्त की है। उनकी फिल्म सफलता समूची जीवन साधना का ही एक छोटा अंग है। पैंसठ साल की उम्र में वे चार बच्चों की माँ और दर्जनों नाती-पोतों की दादी बन चुकी थीं। तब उन्हें उत्साह उठा कि जो शिक्षा उन्होंने प्राप्त कर रखी है, वह कम है, उन्हें सफल जीवन जीने के लिए अधिक विद्या उपार्जित करनी चाहिए। सो वे कालेज जाने लगीं और 69 साल की उम्र में कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय की स्नातिका बन गईं। इसके बाद उन्होंने हालीवुड का दरवाजा खटखटाया। जिस आत्म-विश्वास के साथ वे बातें करती थीं उसे देखकर डायरेक्टरों ने उन्हें छोटा काम दे दिया। उनके परिश्रम, मधुर-स्वभाव और आकर्षक व्यक्तित्व ने उस क्षेत्र में बढ़-चढ़कर काम करने का अवसर दिया अस्तु उन्होंने लगातार तेरह वर्षों तक प्रख्यात फिल्मों में काम किया।

82 वर्ष की उम्र में वे एक विद्वान शरीर-शास्त्री से यह परामर्श लेने गईं कि उनके पेट का माँस थुलथुला हो गया है। यह कसा हुआ कैसे हो सकता है। डॉक्टर गोलार्ड हाजर ने उपचार बताये। तद्नुसार उनका पेट भार मुक्त हो गया। साथ ही डाक्टर ने उनकी इतनी लम्बी आयु और चुस्ती का कारण पूछा तो उनने बताया कि आहार सम्बन्धी सतर्कता- व्यायाम में नियमितता और जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण ही उनकी वृद्धावस्था को जवानी स्तर की बनाये रहने में समर्थ हुआ है। उनका कथन था कि वे जिन्दगी को प्यार करती हैं और हर दिन को बहुत ही आनन्द का रसास्वादन करते हुए जीना चाहती हैं। मोटेतौर से यही था उनकी वृद्धावस्था को जवानी की स्थिति में बनाये रहने वाला कारण।

अमेरिका के प्रख्यात तेल व्यवसायी अरबपति राक फेलर पूरे 100 वर्ष जिये। उन्हें कभी बेकार समय गुजारते नहीं देखा गया। एक दूसरे व्यवसायी कोमोडोर विन्डरविट ने 70 वर्ष की आयु में व्यापार क्षेत्र में प्रवेश किया और दस वर्ष के भीतर ही वे सफल उद्योगपतियों की श्रेणी में जा पहुँचे। मोटर उत्पादक हैनरी फोर्ड 82 वर्ष आयु में भी उतने ही चुस्त पाये जाते थे। जितने कि वे जवानी में थे।

आमतौर से जवानी की क्षमता प्रधान मानी जाती है और कहा जाता है कि जरा-जीर्ण मनुष्य अशक्ति हो जाते हैं, कुछ कर नहीं पाते। इसी प्रकार कम आयु वाले के सम्बन्ध में भी यही मान्यता है कि शारीरिक मानसिक विकास न होने के कारण वे कच्ची उम्र में कुछ महत्वपूर्ण काम करने- बड़ी जिम्मेदारी उठाने के अयोग्य रहते हैं। किन्तु बात ऐसी है नहीं। क्षमता आयु से सम्बन्धित नहीं जीवट पर निर्भर है। लगन से गहराई में उतरने और समान श्रम मनोयोग के साथ अनवरत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। जहाँ यह विशिष्टता उभरी वहाँ न तो योग्यता की कमी रहती न क्षमता में न्यूनता रह जाती है। वृद्धों की तरह कम उम्र के व्यक्तित्वों द्वारा सम्पन्न किये गये महान कार्यों के भी अनेकानेक उदाहरण उपलब्ध हैं।

जवानी और प्रौढ़ता में सम्पन्न इन पुरुषार्थियों की सारी साक्षियाँ बताती हैं कि मनुष्य के अन्दर अनन्त शक्ति सामर्थ्य है। पुरुषार्थ द्वारा उन्हें जगाकर कोई भी श्रेयाधिकारी बन सकता है। न केवल भौतिक क्षेत्र में, अपितु आत्मिक जगत में भी ये ही सिद्धान्त लागू होते हैं। अन्दर का वर्चस् जगाने- उभारने के लिये योगाभ्यास किए जाते हैं। बीज रूप में प्रसुप्त पड़ी सारी विभूतियाँ हर किसी को करतलगत हो सकती हैं चाहे उस व्यक्ति के लिए परिस्थितियाँ कितनी ही प्रतिकूल हों। यह कथन सर्वथा मिथ्या है, एक भ्रान्ति है कि महापुरुष कोई विशेष लोक से आते व प्रकट होते हैं। हर व्यक्ति ओजस् और वर्चस् शक्ति पुँज है। आत्मबोध होने व पराक्रम पुरुषार्थ हेतु जुटने भर की कमी ही होती है जो व्यक्ति को ऊँचा नहीं उठने देती है।

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