
सृजन शक्ति का प्रेरणा श्रोत- काम
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सामान्य व्यक्तियों की दृष्टि में काम-प्रजनन अथवा वासना तृप्ति का साधन है। अधिकाँश उस शक्ति का उपयोग भी उन सीमित कार्यों के लिए ही करते देखे जाते हैं पर तत्त्वदर्शियों का मत है कि काम जीवन की समस्त हलचलों का आधार है। अभिनव सृजन की प्रेरक शक्ति है। प्रकृति में सौन्दर्य की जो सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है, वह काम का ही रूप है। विपुला, शस्य श्यामला प्रकृति काम के गर्भ से ही उत्पन्न होती तथा अगणित जीवन्त सुन्दर घटकों के रूप में विकसित होती है। पुष्प के सौन्दर्य में काम का ही उभार है। प्राणियों की जीवट, शौर्य पराक्रम, उत्साह एवं उमंग में काम की अभिप्रेरणा ही कार्यरत होती है। प्रकृति की समस्त गतियों में काम की ही स्फुरणा है।
गीता में अपनी दैवी विभूतियों का उल्लेख करते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं- “प्रजनश्चास्मि कर्न्दप.......” अर्थात्- ‘सन्तान की उत्पत्ति का हेतु मैं कामदेव हूँ।’ वस्तुतः जीवन की समस्त उत्पत्ति काम से है। संसार की सृष्टि में भी काम की प्रेरणा ही काम कर रही है। कामना से अभिप्रेरित होकर ही ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की। सृष्टि के मूल में काम का प्रवाह है। काम शक्ति का एक रूप प्रजनन के रूप में सामने आता है तो दूसरा ज्ञान के रूप में- अभिनव कल्पनाओं एवं सृजनात्मक विचारों के रूप में। कोई भी सृजन काम के बिना नहीं हो सकता।
संसार भर में मात्र एक हिन्दू धर्म ही ऐसा है जिसने काम को भी ‘देव’ के रूप में प्रतिष्ठापित करके अभ्यर्थना की है। यह प्राचीन ऋषियों-मनीषियों की सूक्ष्म तथा उस विधेय दृष्टि का बोध कराती है जो तत्वदृष्टि स्तर तक विकसित हो चली थी। उन्हें यह ज्ञात था कि काम ऊर्जा ऊर्ध्वगमन से व्यक्तित्व के असीम विकास की सम्भावना बन सकती हैं।
मानवी व्यक्तित्व की तीन कोटियाँ हैं। नर-पशु हैं जिनकी काम वासना सतत् नीचे की ओर बहती है। देव-मानव वे हैं जिनकी काम शक्ति ऊर्ध्वमुखी अथवा अन्तर्मुखी है। नर-नारायण वे हैं जिनकी काम शक्ति स्थिर हैं- बहती ही नहीं। भगवान कृष्ण कहते हैं कि यदि तुम देवताओं में खोजना चाहो तो काम में खोजना। क्योंकि काम ही सृजन का आधार है। जगत में जो भी घटित होता है- शुभ, सत्य अथवा सुन्दर के रूप में, वह काम ऊर्जा की परिणति है। खजुराहो कोणार्क के मन्दिरों की दीवारों पर अनूठे भित्ति चित्र खुदे हुए हैं। पर्यटक काम की विधेयात्मक अभिव्यक्ति के दर्शन के लिए ही वहाँ आते हैं। चित्रकला एवं मूर्तिकला के माध्यम से वस्तुतः उनमें कामदेव की प्रतिष्ठापना का आध्यात्मिक भाव सन्निहित है।
मनुष्य के भीतर एक ही जीवन्त ऊर्जा सतत् क्रियाशील है। जब वह नीचे की ओर बहती है तो काम वासना बन जाती है और जब ऊपर की और प्रवाहित होने लगती है तो कुण्डलिनी महाशक्ति बन जाती है। काम ऊर्जा दो स्थानों पर विलीन होती है- जननेन्द्रिय, मूलाधार अथवा मूर्धा- सहस्रार। ये दो चक्र व्यक्तित्व के दो छोर हैं। काम केन्द्र से मनुष्य प्रकृति से जुड़ा हुआ है पर सहस्रार के माध्यम से परब्रह्म से सम्बद्ध है। पर यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि अधिकाँश व्यक्ति काम ऊर्जा का सामान्य- नगण्य-सा उपयोग ही कर पाते हैं। जिस व्यक्ति को आग का मात्र इतना ही परिचय हो कि वह किसी वस्तु को जला सकती है- दावानल खड़ा कर सकती है, उसे दुर्भाग्यशाली समझा जायेगा और तरस खाया जायेगा। क्योंकि रोटी पकाने, पानी गरम करने, प्रकाश देने- गर्मी प्रदान करने जैसे वह अगणित काम भी तो करती है। जीवनी शक्ति के क्षय के रूप में- काम वासना के रूप में जो काम शक्ति का एकाँगी परिचय जानते हैं, सचमुच ही वे अविवेकी हैं। कई दशकों तक परमाणु शक्ति का उपयोग परमाणु बमों के निर्माण जैसे ध्वंसक प्रयोजनों तक सीमित रह गया था। महा विनाश के रूप में पिछले महायुद्ध में उस प्रचण्ड शक्ति का परिचय भी मिला। पर वैज्ञानिकों के समझ में वर्षों बाद वह समझ में आया कि परमाणु शक्ति का उपयोग रचनात्मक कार्यों में भी हो सकता है। फलस्वरूप अब परमाणु शक्ति से संचालित थर्मल पावरों से ऊर्जा उत्पादन जैसे कितने ही काम लिये जा रहे हैं। काम ऊर्जा भी उस परमाणु ऊर्जा की तरह है जिसका महत्व अभी ठीक तरह समझा नहीं जा सका है, न ही वह शक्ति अगणित सृजन कार्यों में प्रयुक्त हो सकी है।
फ्रायड और उनके समकक्ष अगणित मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य की सारी उद्विग्नता समस्त विक्षिप्तता का निन्यानवे प्रतिशत कारण काम वासना है। उनका निदान सही हो सकता है पर जो उपचार वे बताते हैं वह भ्रामक हैं- पूर्णतः गलत हैं। वे कहते हैं कि समस्याओं की जड़ काम वासना है। उसकी परितृप्ति का ठीक उपाय न हो तो आदमी विक्षिप्त होता चला जायेगा। पर उनका प्रतिपादन इसलिए गलत है कि काम वासना की तृप्ति कभी भी सम्भव नहीं है। काम वासना के रूपान्तरित किये बिना तृप्ति-सन्तुष्टि एवं शान्ति की उपलब्धि हो नहीं सकती। प्रमाण एवं उदाहरण भी सामने है। फ्रायड के विचारों तथा कामू के दर्शन से पनपे स्वच्छन्दवाद ने यौनाचार की खुली छूट पश्चिमी जगत को दे दी। पर काम तृप्ति न हो सकी। सभी तरह के बन्धनों- सामाजिक मर्यादाओं से मुक्त रहने वाली ‘परमिसिव सोसाइटी’ का जन्म हुआ। स्वच्छन्दता के प्रयोग तो चले पर असफलता ही हाथ लगी। काम वासना की अतृप्ति घटी नहीं बढ़ती ही चली गयी, अग्नि में घृत डालने की तरह वह भभकती गयी।
फ्रायड का गन्तव्य वस्तुतः अधूरा- एकाँगी था। उस आधार पर किये गये प्रयोगों ने यूरोपीय समुदाय की समस्याएँ अधिक बढ़ा दी हैं। फ्रायड के निदान के साथ योग का उपचार जुड़ा होता तो पाश्चात्य जगत की आज की स्थिति कुछ ओर ही होती। काम को रूपान्तरित होने का अवसर मिल गया होता। शास्त्रों में जिसे एक महाशक्ति मानकर अभ्यर्थना की गयी है, उसका हेय रूप देखने को नहीं मिलता। यौनाचार का निकृष्ट स्वरूप नहीं सामने आता। स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता के स्तर तक पहुँच कर निर्क्तज्ज अट्टहास नहीं करती। मर्यादाओं- शालीनताओं के बन्धन इस तरह नहीं टूटते। हिप्पियों का समुदाय न पनपता।
काम का निम्नगामी प्रवाह मनुष्य को खोखला बना देता है। जवानी में बुढ़ापा इस खोखलेपन का ही नाम है। बूढ़ा आदमी भीतर से खालीपन अनुभव करता है। यह स्थिति प्रकृति की दी हुई- आसमान से टपकी हुई नहीं, वस्तुतः स्वयं की आमन्त्रित है। काम वासना ने समस्त शक्तियों को अवशोषित करके अशक्तता का अभिशाप लाद दिया। युवा व्यक्ति भीतर से भरा-पूरा अनुभव करता है। यौवन शरीर से छलकता उभरता है। यह वस्तुतः काम शक्ति का ही उभार है। वृद्ध की रिक्तता काम ऊर्जा की समाप्ति का ही परिचायक है। जो युवावस्था में भी ऐसी रिक्तता का- जीवट का- उत्साह एवं उमंग का अभाव अनुभव करते हैं वे भी वृद्ध तुल्य ही हैं, जिनने असमय ही अपनी बहुमूल्य जीवन सम्पदा को कौड़ी के मोल गँवा दिया है। जबकि जो वृद्धावस्था में भी जीवट सम्पन्न है- उत्साह उमंग से भरे हैं, वे युवा कहे जाने योग्य हैं।
काम ऊर्जा का प्रवाह बाहर होने के स्थान पर जब अन्दर की ओर होने लगता है तो उसके वास्तविक स्वरूप एवं प्रयोजन का परिचय मिलता है। तब यह बोध होता है कि आत्म-विकास में जिस काम को हेय समझा अथवा अवरोध माना गया था, यह मात्र एक भ्रान्ति थी। जिसे जहर समझा गया था वह अमृत था। जिसे नरक का द्वार माना गया था वह मुक्ति का- मोक्ष का साधन भी है, यह समझ आने पर वास्तविक प्रगति का द्वार खुल जाता है।