
परब्रह्म की सत्ता के कारण और प्रमाण
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कार्य कारण का सिद्धान्त तर्कशास्त्र की दृष्टि से, विज्ञान की दृष्टि से मान्यता प्राप्त है। संसार की कोई भी घटना अकारण नहीं है। दुर्घटनाऐं यदा-कदा अपवाद रूप में होती रहती हैं, पर उनका भी कुछ न कुछ कारण होता है। दृश्य और अदृश्य जगत में घटित होने वाली प्रत्येक घटना किसी न किसी कारण से अभिप्रेरित है। कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता। कुम्हार एवं मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बन सकता, जुलाहे एवं धागे के बिना कपड़ा नहीं बनता, तकनीशियनों एवं प्रारम्भिक उपकरणों को जुटाए बिना औजार-हथियार नहीं बनते।
मनीषियों ने कारणों को भी तीन भागों में विभाजित किया है- निमित्त कारण, उपादान कारण तथा साधारण कारण। उदाहरणार्थ घड़ा बनने के पूर्व कुम्हार तथा मिट्टी दोनों ही का होना पर्याप्त नहीं, कुम्हार और मिट्टी के साथ-साथ दण्ड और चक्र का भी होना भी अनिवार्य है। इस प्रकार घट बनने के लिए तीनों कारक कुम्हार, मिट्टी तथा दण्ड-चक्र, आवश्यक हैं इस निर्माण में कुम्हार निमित्त कारण है, मिट्टी है उपादान कारण और दण्ड चक्र आदि हैं साधारण कारण। संसार की कोई वस्तु इन तीनों कारणों के बिना नहीं बन सकती।
दर्शन शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त जब संसार की हर वस्तु पर लागू होता है, तो कोई कारण नहीं कि सृष्टि एवं उसकी व्यवस्था पर न लागू हो। पर यह विचित्र आश्चर्य है कि तथाकथित बुद्धिजीवी- नास्तिक स्तर के व्यक्ति संसार की वस्तुओं के निर्माण के सम्बन्ध में तो कार्य-कारण सिद्धान्त को तो स्वीकारते हैं, पर सृष्टि की उत्पत्ति के सन्दर्भ में उसे नहीं मानते। सृष्टि बिना कर्ता के बन गयी, यह निरंकुश बुद्धि का- तर्क रहित दर्शन का निराधार प्रलाप है, जिसमें औचित्य का लेशमात्र भी अंश नहीं है।
वैदिक ग्रन्थों में दर्शन कि त्रैतवाद सम्बन्धी चर्चा है। यह और कुछ नहीं, उपरोक्त तीन कारणों की ही दार्शनिक व्याख्या है। सृष्टि के सम्बन्ध में निमित्त कारण वह है जो स्वयं अदृश्य, अपरिवर्तित रहकर विभिन्न प्रकार के दृश्य घटकों का निर्माण करता है। उपादान कारण वह है जिससे निर्माता किसी पदार्थ का निर्माण करता है। तथा साधारण कारण वह है जो बनाने का माध्यम बनता है। इस कारण सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है। उपादान कारण प्रकृति है और साधारण कारण जीव। परमात्मा को अध्यात्म ग्रन्थों में एक विशेष विशेषण से सम्बोधित किया गया है, जिसमें सृष्टि निर्माण का तथा त्रैतवाद का समस्त तत्व चिन्तन समाहित हो गया है। वह विशेषण है- ‘सच्चिदानन्द’। इस स्वरूप में ईश्वर, जीव और प्रकृति- तीनों की स्थिति का सम्यक् निरूपण है। प्रकृति केवल सत् है। चेतना का उसमें अंश नहीं है। जीव सत् और चित् का युग्म है। परमात्मा में तीनों ही विशेषताएँ हैं- वह सत् भी है, चित् भी और आनन्द भी। इस प्रकार परमात्मा के सच्चिदानन्द नाम में उन तीनों कारणों का तात्विक वर्णन है, जो संसार और समूची सृष्टि के निर्माण के प्रमुख कारक हैं।
न्याय दर्शन के ऋषि ने भी प्रकारान्तर से ऐसे ही तीन कारणों का वर्णन किया है। वे तीनों कारण हैं- (1) समवायि कारण (2) असमवायि कारण (3) निमित्त कारण।
जो समवेत (पूर्णरूपेण ) कार्य की उत्पत्ति का कारण हो, उसे समवायि कारण कहते हैं-
“यत्समवेतं कार्यमुत्पत्पद्यते तत् समवायि कारणम्।
उदाहरणार्थ कपड़े के निर्माण में धागे की भूमिका समवायि कारण है, क्योंकि वस्त्र निर्माण में जितना उपयोग धागे का है, उतना रंग आदि का नहीं।
जो समवायि कारण के साथ निश्चित रूप से जुड़ा हो उसे असमवायि कारण कहा जाता है।
यत् समवायि कारण प्रत्यासन्नमवधत सामर्थ्य तद् समवायिकारणम्।
उदाहरणार्थ वस्तु निर्माण में तन्तु संयोगों की प्रक्रिया असमवायिकारण है, क्योंकि वस्त्र निर्माण में तन्तु तब तक समर्थ नहीं हो सकते जब तक कि उनका परस्पर ताने-बाने के रूप में क्रमबद्ध संयोग न हो, यदि धागे बिखरे होंगे तो उनसे वस्त्र बन ही नहीं सकता।
निमित्त कारण वह है, जो न समवायि कारण हो न असमवायि कारण, फिर भी एक ऐसा कारण हो जिसके बिना भी कार्य सिद्ध न होता हो।
‘यन्न समवायिकारणं नाप्यसमवायिकारणमथ च
कारणं तन्निमित्तकारणम्।’
वस्त्र धागे से तो बनता है परन्तु जुलाहे का उसके निर्माण में अत्यधिक सहयोग होता है। अतएव वह निमित्त कारण कहा जाता है।
न्याय दर्शन के प्रणेता ने सृष्टि की उत्पत्ति में परमात्मा को निमित्त कारण माना है। तर्क की दृष्टि से भी यह बात गले नहीं उतरती कि आकस्मिक विस्फोट से- मात्र संयोगवश यह सृष्टि बनकर तैयार हो गयी। दुर्घटनाएँ कुरुपता और अव्यवस्था को जन्म देती हैं। सुव्यवस्था और सौन्दर्य को नहीं। इतनी सुन्दर- सुव्यवस्थित सृष्टि की उत्पत्ति किसी आकस्मिक सुयोग की परिणति नहीं हो सकती। उसकी गति एवं स्थिति के मूल में भी किसी अदृश्य “सुपर इन्टेलीजेन्स” से युक्त सत्ता का परोक्ष नियन्त्रण है, उसी प्रकार जैसे कि किसी स्वसंचालित कम्प्यूटर पर किसी मनुष्य का होता है।
प्रमाणों में अनुमान भी एक सशक्त प्रमाण है। दैनन्दिन जीवन में अनुमान के आधार पर कितनी ही बातों को सही मानना पड़ता है। प्रत्यक्ष प्रतीत होना- दिखाई पड़ना अथवा अनुभव में आना ही किसी वस्तु के अस्तित्व का एकमात्र प्रमाण नहीं है। किसी कवि ने अपनी रचना में अनुमान के आठ सशक्त प्रमाण दिए-
“दूर समीप, इन्द्रिय को हान। मन चंचल, सूक्ष्म, विवधान।
तिरोधान, सजाती संग, अष्ट हेत धारो चित अंग॥”
इसका भावार्थ है- जैसे पक्षी आकाश में उड़ता हुआ दूर चला जाता है, तब प्रतीत नहीं होता किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि पक्षी नहीं है। समीप- जैसे नेत्रों में अंजन अत्यन्त निकट है पर अपने नेत्रों को दिखायी नहीं पड़ता। इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि अंजन नहीं है।
“इन्द्रिय की अक्षमता” को ऐसे समझा जा सकता है। अन्धा रूप को नहीं देखता तो भी रूप का अभाव नहीं कहा जा सकता। “मन चंचल”- अर्थात् चंचल मन को पदार्थ की सता नहीं मालूम पड़ती तो भी उसका अभाव नहीं कहा जा सकता। “सूक्ष्म”- सूक्ष्म परमाणु प्रतीत नहीं होते तो भी उनका अस्तित्व मौजूद है। “व्यवधान” परदे के भीतर बैठा व्यक्ति दिखायी नहीं पड़ता, तो भी उसका अभाव नहीं माना जा सकता। “तिरोधान”- तारे दिन में नहीं दीखते तो भी वे मौजूद रहते हैं, सूर्य प्रकाश के कारण नहीं दृष्टिगोचर होते। “सजातीय संग” वर्षा का जल तालाब या नदी में मिल जाता है, इससे उसकी अलग प्रतीति नहीं होती, किन्तु इससे बरसे हुए जल का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता।
संसार के विषयों एवं पदार्थों की तरह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से परमात्मा को देखा अथवा अनुभव नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है इन्द्रियातीत है। आँख केवल रूप को देखतीं है- बाह्य सौन्दर्य अथवा कुरुपता का दर्शन करती है। अरूप का अदृश्य, किन्तु शाश्वत सौन्दर्य का वह दर्शन नहीं कर सकती। कान मात्र शब्द को ग्रहण कर सकते हैं। उनकी पकड़ सीमा बैखरी वाणी तक है। परा और पश्यन्ति वाणियों को ग्रहण कर सकने में वह समर्थ नहीं है। जिह्वा रसों की अनुभूति करती है, वह भी सीमित रसों का। रसातीत का वह अनुभव नहीं कर पाती। नासिका की घ्राण शक्ति गन्ध तक सीमित है। गन्धातीत को वह ग्रहण नहीं कर पाती। त्वचा का विषय स्पर्श है, स्पर्शातीत चीजों को वह नहीं अनुभव कर पाती। परमात्मा को ‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्’ कहा गया है। वह इन्द्रियातीत है, इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता। शरीर की जितनी भी इन्द्रियाँ हैं, वे बहिर्मुखी हैं- “परांचि रवानि व्यतृणत् स्वयम्भूः”, में शास्त्रकार ने इसी सत्य का प्रतिपादन किया है। अपनी सीमा के बाहर इन्द्रियों में जाने की सामर्थ्य नहीं, वे स्थूल वस्तुओं को ही देख तथा अनुभव कर सकती हैं- अरूप, सूक्ष्मतम तथा अदृश्य अस्तित्वमान वस्तुओं को नहीं। जो इन्द्रियगोचर विषयों से परे किसी वस्तु की कल्पना ही नहीं कर सकते वे परमात्मा की अगोचर सत्ता की अनुभूति कैसे कर सकते हैं?
विचारणा एवं भाव सम्वेदनाएँ जीवन्त-तत्व हैं पर वैज्ञानिक शब्दावली में न तो उन्हें व्यक्त किया जा सकता है और न ही विज्ञान के आधारों पर उनकी सत्ता को प्रमाणित करना ही सम्भव है।
ट्रिनिटी कालेज फ्लोरिडा के भूतपूर्व प्रो. स्टेनली कौंगडन कहते हैं कि “मैंने अगणित वैज्ञानिकों से पूछा कि वे मुझे विचार का सही रासायनिक फार्मूला बताएँ। उसकी लम्बाई, चौड़ाई वजन, रंग और रूप, निवास स्थली से अवगत करायें। उसकी दिशा एवं गति के स्पन्दन का वर्णन करें। पर न तो कोई वैज्ञानिक ही उसका सही स्वरूप बता सका और न ही ऐसी परिभाषा सामने आयी जो अपने भौतिक फार्मूले अथवा व्याख्याओं से विचार की संरचना को व्यक्त कर सके। जब विचारों की व्याख्या भौतिक विज्ञान की भाषा में कर सकना सम्भव नहीं तो फिर ईश्वर जैसी सूक्ष्म सत्ता की अभिव्यक्ति उस भाषा में कैसे सम्भव हो सकती है।
द्रव्य की परिभाषा करते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि जिसमें भार है तथा जो स्थान घेरता है, वह द्रव्य है। संसार के प्रत्येक पदार्थ पर यह नियम लागू होता है, पर परमात्मा इस नियम के अन्तर्गत नहीं आता। उसे भार एवं स्थानयुक्त पदार्थों की कोटि में नहीं रखा जा सकता। जब भी किसी द्रव्य की उत्पत्ति होती है, किसी न किसी काल (टाइम) और किसी न किसी देश (स्पेस) में होती है। संसार के हर जड़ चेतन पदार्थ टाइम और स्पेस की परिधि के भीतर आते हैं। पर वह परम सत्ता देश और काल के बन्धन में नहीं आती। ऋषि का वेदों में उद्घोष है-
‘यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्व च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः॥’
अर्थात्- “जो भूत और भविष्य का तथा संसार में पैदा होने वाले हर घटक का अधिष्ठाता है, जो केवल आनन्द स्वरूप है, उस श्रेष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है।”
वेब्स्टर विश्वविद्यालय के प्रख्यात दार्शनिक डा. मैरिट स्टेनली अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि “वर्षों पूर्व एकबार मैं पैंसिलवानिया में एक एकान्त सड़क के किनारे से गुजर रहा था कि उस निर्जन स्थान पर मैंने फूलों से लदी एक गुलाब की पौध को देखा। वह काँटेदार झाड़ियों तथा जंगली घास से घिरी हुई थी। मीलों तक किसी मकान का अता-पता न था, न ही वहाँ लोगों की आबादी थी। गुलाब की यह झाड़ी किसी बीज से हवा पानी चिड़िया या किसी जानवर द्वारा लायी गई किसी दूरस्थित गुलाब की कलम से अकस्मात पैदा हो गयी, खिलकर फूलों से लदकर हँसने और सुगन्ध बिखेरने लगी, इस बात को असम्भव मानकर मैं अपनी अंतःप्रेरणा से यह समझ गया कि किसी मनुष्य ने इसे सावधानी पूर्वक लगाया है। उस पौधे को लगाते हुए मैनें अपनी आँखों से तो नहीं देखा पर अन्तर्बोध कि सचाई कि मैं किसी भी हालत में उपेक्षा नहीं कर सका।”
वह आगे लिखते हैं सृष्टि के सन्दर्भ में भी जब गम्भीर चिन्तन करता हूँ तो मुझे तार्किक दृष्टि से भी यह बात शत-प्रतिशत सही जान पड़ती है कि इतनी सुव्यवस्थित संरचना का कोई न कोई समर्थ निर्माता अवश्य होगा। उत्तंग शिखर, विशाल सागर, नदियाँ, झरने, आकाश के टिमटिमाते तारे, सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह नक्षत्र, निहारिकाओं जैसी रचनाएँ तथा उनकी सुव्यवस्थित कार्य प्रणाली किसी दुर्घटना की परिणति हो, इस प्रतिपादन को विवेक स्वीकार नहीं करता सुनिश्चित रूप से ये कुशल और समर्थ निर्माता की देन हैं।
आदि ऋषि मनु ने ईश्वर के अंश जीवात्मा की कर्मों का साक्षी मानते हुए उसे ईश्वर का सबसे बड़ा प्रमाण माना है। मनु स्मृति में वर्णन है-
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः।
माऽवयंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम्॥
अर्थात्- आत्मा ही आत्मा की साक्षी है, आत्मा ही आत्मा की गति है। ऐसा जानकर तुम मनुष्यों की उत्तम साक्षी देने वाली आत्मा का अपमान न करो।