
ईश्वर विकास का चरम बिन्दु है।
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प्रख्यात पश्चिमी विचारक एडमण्ड लूसेल्ड का कहना है कि “मनुष्य का पूरा जीवन ही एक “इन्टेशनेलिटी” अर्थात् एक गहन तीव्र इच्छा है। वह तीव्र इच्छा जिस भी दिशा में लग जाती है, उसी ओर मनुष्य की गति बन जाती है। यदि एक व्यक्ति चित्रकार होना चाहता है, मूर्तिकार होने की इच्छा रखता है, अथवा उसकी प्रबल आकाँक्षा वैज्ञानिक बनने की है, यदि वह अपनी समस्त प्राण ऊर्जा को अभीष्ट दिशा में नियोजित कर देता है, तो तदनुसार ढल भी जाता है। पर जिसकी आकाँक्षा प्रबल नहीं अथवा जो कुछ बनना नहीं चाहता उसकी गति किसी भी दिशा में नहीं हो पाती। वह अपनी चैतन्य ऊर्जा को संग्रहित करके किसी भी दिशा में गतिमान नहीं कर पाता। जिसके भीतर संकल्प का आविर्भाव ही नहीं होता, उसकी प्रगति कभी सम्भव नहीं हो पाती।” उपनिषद्कारों ने समय-समय पर इसी अभिव्यक्ति को विभिन्न रूपों में उद्धृत किया है।
सृष्टि का स्वयं का अस्तित्व भी किसी सुदृढ़ संकल्प की परिणति ही है। उपनिषद्कारों ने इसे “एकोऽहम् बहुस्यामि” के ब्राह्मी संकल्प के रूप में चित्रित किया है। सृष्टि के बाहर भीतर विकास की प्रक्रिया सतत् चल रही है। यहाँ प्रत्येक वस्तु विकास की प्रक्रिया से गुजर रही है। संसार “स्टैटिक”- ठहरा हुआ नहीं- सतत् चेतनशील- “डायनामिक” है। यहाँ प्रत्येक चीज बढ़ ही नही रही है - क्रमशः ऊपर उठ ही रही है। जो ठहरा गतिहीन प्रतीत हो रहा है, उसमें भी तीव्र वेग है। स्थिरता कहीं भी नहीं है। छोटे-छोटे परमाणुओं में भी तीव्र हलचल है। प्रसुप्त शरीर में भी चेतना की असंख्यों अदृश्य गतिविधियाँ चल रही हैं तथा जाने अनजाने जीवन को गति दे रही हैं। निश्चेष्ट सोये शरीर के भीतर पाचन, परिवहन, श्वसन आदि के रूप में कितने ही तन्त्र हर क्षण सक्रिय हैं।
जगत का एक सुनिश्चित विकास क्रम है, जो सचेतन है। डार्विन ने भी इस सत्य को स्वीकार किया तथा अपने तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर उस सत्य का वैज्ञानिक शब्दावली में प्रतिपादन किया। विकास की प्रक्रिया यह दर्शाती है कि सारा जड़ चेतन जगत किसी निश्चित मंजिल पर पहुँचना चाहता है। जीवन का सतत् प्रवाह भी किसी गन्तव्य पर पहुँचने का इच्छुक है। निश्चित ही कोई ऐसी मंजिल है, जहाँ जीव की पहुँचने की आकाँक्षा है। सम्भव है उस मंजिल का ही नाम परमात्मा हो। विकास प्रक्रिया के कारण ही यह पता चल पाता है कि संसार किसी गहन इच्छा से प्रभावित होकर गतिशील है।
विकास के चरण में ही मुक्ति का बोध मनुष्य को होता है। बच्चा जब पहली बार जमीन पर चलना शुरू करता है, तो उसकी प्रफुल्लता देखते ही बनती है। हिलते-डुलते-काँपते पैर एक सुदृढ़ आधार की- आत्मविश्वास की खोज करते हैं। कदमों के सँभलते ही वह अर्जित हो जाता है। उसके विश्वास को एक बड़ा सम्बल मिलता है, जीवात्मा को अपनी शक्ति पहचानने का अवसर प्राप्त होता है। उसे पहली बार अनुभव होता है कि वह अपने पैरों से चल सकता है- अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। विकास की एक मंजिल पूरी हुई। अर्जित विश्वास को तब और भी बल मिलता है जब बालक बोलना आरम्भ करता है। तुतलाती भाषा में भावाभिव्यक्ति करते हुए आत्मा एक नयी शक्ति जुटा लेती है। छोटे बच्चे शब्दों की पुनराभिव्यक्ति करते रहते हैं। यह भोली तुतलाहट भी नयी उपलब्धि से अर्जित विश्वास की ही सहज अभिव्यक्ति होती है। उसमें वे प्रसन्न होते व उस प्रसन्नता को अन्यों को जताते हैं।
बचपन से लेकर प्रौढ़ावस्था तक ऐसे अनेकों अवसर आते हैं, जिनमें आत्मविश्वास को सुदृढ़ आधार मिलता है। शारीरिक एवं मानसिक विकास के अनेक चरण पूरे होते हैं। व्यक्ति ही नहीं समस्त सृष्टि विकासमान् है। विकास की अनन्त धाराऐं स्वयं इस बात का प्रमाण हैं कि विकास का जो अन्तिम रूप है, चरम परिणति की जो हम कल्पना करते हैं, वह ईश्वर ही है।
विचारक टेल्हार्ड डि चार्डिन ने एक शब्द का इस सम्बन्ध में प्रयोग किया है- “द ओमेगा पॉइन्ट”। ‘अल्फा’ लैटिन में पहला शब्द तथा ‘ओमेगा’ अन्तिम शब्द माना जाता है। ‘अल्फा’ का अर्थ है- पहला तथा ‘ओमेगा’ का अर्थ है- अन्तिम। डि चार्डिन ने कहा है- ‘गॉड इज दि ओमेगा पॉइन्ट’- अर्थात् ईश्वर विकास का अन्तिम बिन्दु है- विकास की अन्तिम सम्भावना है।
हर विकासवान वस्तु में चेतना का- ईश्वर का अस्तित्व मौजूद है। खिलता हुआ फूल कुरूप भी हो तो भी वह जड़ पत्थर से अधिक कीमती अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह विकास की प्रक्रिया से गुजर रहा है- जीवन्त है। पत्थर में विकास की कोई सम्भावना नहीं है, जड़ता उसकी प्रकृति में समाहित है।
डि चार्डिन का यह भी कहना है कि ‘ओमेगा इज आल्सो दी अल्फा’- अर्थात् जो अन्तिम है, वह पहला भी है। यदि ईश्वर विकास की चरम अवस्था- अनुभूति का परम शिखर है, तो निश्चित ही वह आरम्भ में भी मौजूद होना चाहिए।
गीता में भगवान कृष्ण द्वारा कहे गये सत्य की ही उपरोक्त तथ्य वस्तुतः पुष्टि करते हैं।
“सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥”
अर्थात्- “हे अर्जुन! कल्प के अन्त में सभी प्राणी मेरी प्रकृति में विलीन हो जाते हैं और पुनः कल्प के प्रारम्भ में, मैं उन्हें उत्पन्न कर देता हूँ।”
जिस स्रोत से जीवन का आरम्भ होता अथवा जहाँ से वह आता है, एक चक्र में घूमने के बाद पुनः उसी में जाकर विलीन हो जाता है। वह चक्र जब तक चलता रहता है, जीवन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति पाता है। कर्मों का सम्बल पाकर वह विकास की अगणित अवस्थाओं से होकर गुजरता है। अपनी पूर्णावस्था में वह उस चक्र को पार कर मूल स्रोत से जा मिलता है।
अतृप्ति, असंतुष्टि अपूर्णता के कारण अनुभव होती है। मनुष्य अपूर्ण है। पूर्णता का बीज उसके भीतर विद्यमान है तथा वह विकसित होने के लिए भीतर ही भीतर छटपटाता रहता तथा अपनी स्थिति का आभास परोक्ष रूप में कराता रहता है। मनुष्य की चेतना अपूर्ण है। पामरों-पशुओं की स्थिति अपने में पूर्ण है। एक कुत्ता अपने में पूरा कुत्ता है। कोई कुत्ता अपने में अधूरा नहीं है। प्रकृति एवं स्वभाव की विशेषता लगभग एक-सी एक वर्ग विशेष जीवों को मिली हुई है। पर मनुष्य के साथ ऐसी बात नहीं है। अन्य जीवों के पास तो पूरा व्यक्तित्व है। पर मनुष्य में पूर्णता की अनन्त सम्भावनाऐं विद्यमान हैं। वह पशु की तरह पैदा होता है पर विकसित भिन्न रूप में होता है। वह गिर भी सकता है तथा इतना ऊँचा भी उठ सकता है कि महानता के विकास के चरम शिखर को छू ले। मनुष्य मनुष्यता की परिधि तक सीमित रह सकता है, नीचे गिरकर पशु अथवा ऊपर उठकर देवता भी बन सकता है। वह दोनों ही दिशाओं में विकास अथवा पतन की ओर उन्मुख हो सकता है।
इस सत्य को सदैव स्मरण रखा जाना चाहिए कि मनुष्य जीवन में ठहराव कभी नहीं आता। ठहराव का- स्थिरता का अर्थ है ‘मृत्यु’। यदि गति ईश्वर की ओर- महानता की ओर नहीं है तो पतन का सिलसिला अपने आप शुरू हो जाता है। विकास कभी भी यथास्थिति में रुकता नहीं, वह सतत् गतिशील रहता है। पतन सरल है स्वाभाविक है, उत्थान उतना ही कठिन है। लेकिन सम्भाव्य भी है। मनुष्य यदि अपनी गरिमा के अनुरूप विकसित नहीं होता- पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं करता तो इससे बढ़कर दुर्भाग्य कोई और क्या हो सकता है? मानवी चेतना के साथ जुड़ा सहज सौभाग्य वस्तुतः विकास ही है, मुक्ति जिसकी चरम स्थिति है- एवं ईश्वरत्व की प्राप्ति अन्तिम लक्ष्य। यही पुरुषार्थ सतत् किया जाता रहे, यह परब्रह्म को- ब्राह्मी सत्ता को अभीष्ट भी है।