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Magazine - Year 1988 - Version 2

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त्रिविध भव बंधन एवं उनसे मुक्ति

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साधना से तात्पर्य है साध लेना सधा लेना। पशु प्रशिक्षक यही करते रहते है। अनगढ़ एवं उच्छृंखल पशुओं को वे एक रीति-नीति सिखाते हैं, उनको अभ्यस्त बनाते और उस स्थिति तक पहुँचाते है जिसमें उस असंस्कृति प्राणी को उपयोगी समझा जा सके। पालने वाला अपने को लाभान्वित हुआ देख सके। सिखाने वाला भी अपने प्रयास की सार्थकता देखते हुए प्रसन्न हो सके।

देखा यह जाता है कि भक्त भगवान को साधता है। उसको मूर्ख समझते हुए उसकी गलतियां निकालता रहता है। तरह तरह के उलाहने देता है। साथ ही गिड़गिड़ाकर नाम रगड़कर खींसे निपोरकर अपना अपना अनुचित उल्लू सीधा करने के लिए जाल जंजाल बुनता है। प्रशंसा के पुल बाँधता हैं छुटपुट भेंट चढ़ाकर उसे फुसलाने का प्रयत्न करता है। समझा जाता है कि सामान्य लोगों से व्यावहारिक जगत में आदान-प्रदान के आधार पर ही लेन-देन चलता है, पर ईश्वर या देवता ऐसे हैं जिन्हें वाणी की वाचालता तथा शारीरिक मानसिक उचक मचक करने भर से वशवर्ती किया जा सकता है। यह दार्शनिक भूल मनुष्य को एक प्रकार से छिपा हुआ नास्तिक बना देती हैं प्रकट नास्तिक वे हैं जो प्रत्यक्षवाद के आधार पर ईश्वर की सत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर न होने पर उसकी मान्यता से इन्कार कर देते है। दूसरे छिपे नास्तिक वे हैं जो उस से पक्षपात की मुफ्त में लम्बी चौड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति चाहते रहते है। मनुष्य विधि व्यवस्था को तोड़ता छोड़ता रहता हैं, पर ईश्वर के लिए यह संभव नहीं कि अपनी बनाई कर्मफल व्यवस्था का उल्लंघन करे या दूसरों को ऐसा करने के लिए उत्साहित करें, तथा कथित भक्त लोग ऐसी ही आशाएं किया करते है। अन्ततः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। इस निराशा की खीज और थकान से वे या तो साधना-विधान को मिथ्या बताते है या ईश्वर के निष्ठुर होने की मान्यता बनाते हैं कई पाखण्डी कुछ भी हस्तगत न होने पर भी प्रवंचना रचते हैं और नकटा सम्प्रदाय की तरह अपनी सिद्धि सफलता का बखान करते है। आज का आस्तिकवाद इसी विडम्बना में फंसा हुआ है और वह लगभग नास्तिकवाद के स्तर पर जा पहुँचा है।

आवश्यकता है भ्रान्तियों से निकलने और यथार्थता को अपनाने की। इस दिशा में मान्यताओं को अग्रगामी बनाते हुए हमें सोचना होगा कि जीवन साधना ही आध्यात्मिक स्वस्थता ओर बलिष्ठता है। इसी के बदले प्रत्यक्ष जीवन में मरण की प्रतीक्षा किये बिना स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि का रसास्वादन करते रहा जा सकता हैं उन लाभों को हस्तगत किया जा सकता है। जिनका उल्लेख विद्या की महत्ता बताते हुए शास्त्रकारों ने विस्तार पूर्वक किया है। सच्चे सन्तों भक्तों का इतिहास भी विद्यमान है। खोजने पर प्रतीत होता हैं कि पूजा पाठ भले ही उनका न्यूनाधिक रहा हैं, पर उनने जीवन साधना के क्षेत्र में परिपूर्ण जागरुकता बरती। इसमें व्यतिक्रम नहीं आने दिया। न आदर्श की अवज्ञा की और न उपेक्षा बरती। भाव संवेदनाओं में श्रद्धा विचार बुद्धि में प्रज्ञा और लोक-व्यवहार में शालीन सद्भावना की निष्ठा अपनाकर कोई भी सच्चे अर्थों में जीवन देवता का सच्चा साधक बन सकता उसका उपहार वरदान भी उसे हाथों हाथ मिलता चला जाता है।

ऋषियों मनीषियों सन्त सुधारकों और वातावरण में ऊर्जा उभार देने वाले महामानवों की अनेकानेक साक्षियां विश्व इतिहास में भरी पड़ी है। इनमें से प्रत्येक को हर कसौटी पर जाँच परख कर देखा जा सकता है कि उनमें से हर एक को अपना व्यक्तित्व उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध करना पड़ा हैं इससे कम में किसी को भी न आत्मा की प्राप्ति हो सकी न परमात्मा की न ऐसों को लोक बना न परलोक पूजा को श्रृंगार माना जाता है। स्वास्थ्य वास्तविक सुन्दरता है। ऊपर से स्वस्थ व्यक्ति को वस्त्राभूषणों से प्रसाधन सामग्री से सजाया भी जा सकता है। इसे सोने में सुगन्ध का संयोग बन पड़ा माना जा सकता है जीवन साधना समग्र स्वास्थ्य बनाने जैसी विद्या है। उसके ऊपर पूजा-पाठ का श्रृंगार सजाया जाये तो शोभा और भी अधिक बढ़ेगी इसमें सुरुचि तो है किन्तु यह नहीं माना जाना चाहिए कि मात्र श्रृंगार साधनों के सहारे किसी जीर्ण-जर्जर रुग्ण या मृत शरीर को सुन्दर बना दिया जाये तो प्रयोजन सध सकता है। इससे तो उल्टा उपहास ही बढ़ता है। इसके विपरीत यदि कोई हृष्ट-पुष्ट पहलवान मात्र लंगोट पहन कर अखाड़े में उतरता है तो भी उसकी शोभा बढ़ जाती है ठीक इसी प्रकार जीवन को सुसंस्कृत बना लेने वाले यदि पूजा अर्चा के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी काम चल जाता है।

अध्यात्म विज्ञान के साधकों को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना पड़ता है उन्हें सोचना होता है कि मानव जीवन की बहुमूल्य धरोहर का इस प्रकार उपभोग करना है जिससे शरीर निर्वाह लोक व्यवहार भी चलता रहे पर साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरा करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके। ईश्वर के दरबार में पहुँचकर सीना तानकर यह कहा जा सके कि जो अमानत जिस प्रयोजन के लिए सौंपी गई थी, उसे उसी हेतु सही रूप में प्रयुक्त किया गया।

इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावटें तीन है। इन्हीं को रावण कुम्भकरण मेघनाद कहा गया है।यही दैवी भागवत के महिषासुर मधुकैटभ रक्तबीज है। यह प्रायः साथ लगे रहते है और पीछा नहीं छोड़ते इन्हीं के कारण मनुष्य पतन ओर पराभव के गर्त में गिरता है। पशु प्रेत और नर-पामर के रूप में इन्हीं के चंगुल में फंसे हुए लोगों को देखा जाता है। ये तीन हैं-लोभ, मोह एवं अहंकार। वासना, तृष्णा और कुत्सा इन्हीं के कारण उत्पन्न होती है।

लोक विजय के लिए सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धान्त अपनाना पड़ता है औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतोष करना पड़ता है। ईमानदारी ओर परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना पड़ता है। लालची के लिए अनीति अपनाये बिना तृष्णा की पूर्ति कर सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं होता जो व्यक्ति विलास में अधिक खर्च करता है, वह प्रकारान्तर से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहने के लिए मजबूर करता है।

मोह वस्तुओं से भी होता है और व्यक्तियों से भी। छोटे दायरे में आत्मीयता सीमाबद्ध करना ही मोह है। उसके रहते हृदय की विशालता चरितार्थ ही नहीं होती। अपना शरीर और परिवार ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। अपना शरीर और परिवार ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। उन्हीं के लिए मरने खपने के कुचक्र में फंसे रहना पड़ता है। आत्मवत् सर्व भूतेषु और वसुधैव कुटुम्बकम के दो आत्मवादी सिद्धान्त है। इनसे एक को भी मोह ग्रस्त कार्यान्वित नहीं कर सकता है इसलिए अपने में सब को और सब में अपने को देखने की दृष्टि विकसित करना जीवन साधना के लिए आवश्यक माना गया है।

परिवार छोटे से छोटा रखा जायें। पूर्ववर्ती अभिभावकों बड़ों और आश्रितों के ऋणों को चुकाने की ही व्यवस्था नहीं बन पाती तो नये अतिथियों का क्यों न्यौत बुलाया जाये? विषमता को देखते हुए अनावश्यक बच्चे उत्पन्न कर परिवार का भार बढ़ाना परले सिरे की भूल है। समान विचारों का साथी सहयोगी मिले तो विवाह करने में हर्ज नहीं पर वह एक दूसरे के सहायता सेवा करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए ही किया जाना चाहिए। जिन्हें संतान की बहुत ललक हो वे निर्धनों के बच्चे पालने के लिए ले सकते है। परिवार को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी बनाना पर्याप्त है। औलाद के लिए विपुल सम्पदा उत्तराधिकार में छोड़ मरने की भूत किसी को नहीं करनी चाहिए। मुफ्त का माल किसी को भी हजम नहीं होता। वह दुर्बुद्धि और दुर्गुण ही उत्पन्न करता है। सन्तान पर यह भार लदेगा तो उसका अपकार ही होगा।

पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निबाहा जाना चाहिए पर उस कीचड़ में इतनी गहराई तक नहीं फंसना चाहिए कि उबर सकना संभव न हो सके। मोह को भव बंधनों में से प्रमुख माना गया है। उसी संकीर्ण दायरे में जकड़े हुए लोग लोक मंगल का कर्त्तव्य पालन कर ही नहीं पाते। जिन्हें सभी के प्रति पारिवारिकता का भाव अपनाने का अवसर मिलता है उनके लिए हर किस का आत्मीय मानने का सभी की सेवा सहायता करने का आनन्द मिलता है।

अहंकार मोटे अर्थों में घमण्ड समझा जाता हैं अकड़ना उद्धत-अशिष्ट व्यवहार करना क्रोध ग्रस्त रहना अहंकार की निशानी है। पर वस्तुतः वह और भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। फैशन सजधज श्रृंगार ठाट-बाट अपव्यय सस्ता बड़प्पन आदि अहंकार परिवार के ही सदस्य है। लोग शेखी खोरी के लिए ढेरों समय श्रम और पैसा खर्च करते देखे जाते है। यह भी एक प्रकार का नशा हैं जिसमें अपने को भले ही मजा आता हो पर हर विचारशील को इसमें क्षुद्रता की बचकानेपन की ही गंध आती है। इस विडम्बना के लिए चित्र विचित्र प्रवंचनायें रखनी पड़ती है। ईर्ष्या, द्वेष उत्पन्न करने में भी अहंता की ही प्रमुख भूमिका रहती है। कलह और विग्रह प्रायः उसी कारण उत्पन्न होते हैं। आदमी की विशिष्टता अपनी विनयशीलता दूसरों के सम्मान में निहित है उसी कसौटी पर किसी की सज्जनता परखी जाती है। अहंकारी से उन सद्गुणों में से एक भी नहीं निभा पाता। अहंभाव को आत्मघाती शत्रु माना गया है। ऐसे लोगों से आत्म साधना तो बन ही नहीं पाती। उन पर तो उद्दण्डता व दूसरों को नीचा दिखाने का भूत सदैव चढ़ा रहता है। और दूसरों को गिराने और नीचा दिखाने की ही ललक उठती रहती है। ऐसे लोग अपने प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने में ही रहते है। इन परिस्थितियों में आत्मोत्कर्ष और आत्म परिष्कार कैसे बन पड़े?

लोभ, मोह और अहंकार के तीन भार पत्थर जिनने सिर पर लाद रखें है। उनके लिए जीवन साधना की लम्बी और ऊंची मंजिल पर चल सकना चल पड़ना असंभव हो जाता है। भले ही कोई कितना ही पूजा पाठ क्यों न करता हरें जिन्हें तथ्यान्वेषी बनना है उन्हें इन तीन शत्रुओं से अपना पीछा छुड़ाना ही चाहिए।

हल्की वस्तुयें पानी पर तैरती है। किन्तु भारी होने पर वे डूब जाती है। जो लोभ मोह और अहंकार रूपी पत्थर अपनी पीठ पर लादे हुए है उन्हें भवसागर में डूबना ही पड़ेगा जिन्हें तैरना है उन्हें इन तीनों भारों को उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।

अनेकानेक दोष-दुर्गुणों कषाय कल्मषों का वर्गीकरण विभाजन करने पर उनकी संख्या हजारों हो सकती है। पर उनके मूल उद्गम यही लोभ मोह और अहंकार है। इन्हीं भवबंधनों से मनुष्य के स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर जकड़े पड़े है। इनका उन्मूलन किए बिना आत्मा को उस स्वतंत्रता का लाभ नहीं मिल सकता जिसे मोक्ष कहते है। इन तीनों पर कड़ी नजर रखी जाये। इन्हें अपना संयुक्त शत्रु माना जाये। इनसे पीछा छुड़ाने के लिए हर दिन नियमित रूप से प्रयास जारी रखा जाये। एकदम तो सब कुछ सही हो जाना कठिन है पर सुधार क्रम में सफलता मिलती ही चलती है और एक दिन ऐसा भी आता है जब इनसे पूरी तरह छुटकारा पाकर बंधन मुक्त हुआ जा सके।

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