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Magazine - Year 1988 - Version 2

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लय व तालबद्ध है-मानव का जीवनक्रम

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जन्म से लेकर मरण तक मानव के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्थिति में अनेकों परिवर्तन होते रहते है। इच्छा-आकाँक्षाओं विचारणाओं-भावनाओं के अनुरूप जीवन व्यवहार में उतार-चढ़ाव ज्वार-भाटे की तरह सतत् चलते रहते है। एक ही व्यक्ति दिन भर में कई प्रकार के व्यक्तित्वों की झलकी दिखाता है। कभी प्रसन्न रहता है तो कभी उदास, दुःखी एवं तनावग्रस्त। कभी भावनाओं के प्रबल प्रवाह में डूबता-उतारता दीखता है तो कभी बौद्धिकता बढ़ी-चढ़ी दिखाई देती है। वैज्ञानिकों जीवन में आने वाली इन उतार-चढ़ाव का कारण “बायोरिद्” को माना है और कहा है कि यह चक्रीय जैविक परिवर्तन है जो आँतरिक एवं बाह्य दोनों कारकों से प्रभावित होता है। उनके अनुसार यह परिवर्तन एक निश्चित चक्र के अंतर्गत चलते रहते है, जिनका मानव जन्म से गहरा सम्बन्ध होता है।

प्रायः मनुष्य शरीर की सामान्य गतिविधियाँ लयात्मक एवं चक्रीय लक्षणों वाली होती हैं और एक निश्चित अन्तराल के बाद पुनः प्रकट होती रहती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक एफ.ए. ब्राउन ने अपनी पुस्तक द बायोलॉजिकल क्लाक में कहा है कि शरीर की समस्त आकुंचन-प्रकुँचन क्रियाएँ तथा भूख, प्यास, निद्रा आदि लयात्मक होती है। विभिन्न वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर भी अब यह सिद्ध हो चुका है कि कोशिका विभाजन की दर, मेटाबालिज्म, एनर्जी लेवल, ब्लट सेल काउन्ट, ब्लड शुगर लेवल, होमोग्लोबिन का स्तर, पाचन अंगों तथा गुर्दां का कार्य, मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों जैसे विभिन्न फिजियोलॉजिकल प्रक्रियाएँ एक लयबद्ध तरीके से चलती है। इसका अधिक स्पष्ट व्याख्या करते हुए “रिदमिक एक्टीविटी इन एनीमल फिजियोलॉजी एण्ड बिहेवियर” नामक अपनी कृति में मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डॉ. क्लाउडस्ली थाम्पसन ने भी कहा है कि शरीर की यह एक सार्वभौमिक स्तर पर होने वाली प्रक्रिया है। उनके अनुसार मस्तिष्कीय कोशिकाओं की ध्रुवता का सेकेंड के कुछ ही हिस्से में परिवर्तित होना, स्वस्थ हृदय का 60 से 70 बार प्रति मिनट की दर से धड़कना, एवं 15 से 20 बार प्रतिमिनट के हिसाब से श्वास-प्रश्वास, आकुँचन-प्रकुँचन आदि लयबद्ध रूप से चलते है। शरीर के प्रत्येक क्रिया कलाप में नियमितता एवं समयबद्धता का समावेश है।

बायोरिदम मानव जीवन को कई तरह से प्रभावित करती है। “ह्यूमन सरकैडियन रिदम” नामक अपनी प्रसिद्ध कृति में वैज्ञानिक लेखक द्वय-आर. कोनराय एवं मिल्स ने बताया है कि दिन और रात्रि के साथ इसकी महत्वपूर्ण कड़ियाँ अन्तर्गुम्फित होती हैं इस तरह के रिदम को इन्होंने ‘करकैडियन नाम से सम्बोधित किया है जो सामान्यतः 24 घण्टे के अन्तराल से प्रकट होती है। इसके अनुसार काया में चुम्बकीय परिवर्तन का एक चक्र 24 घण्टे में बदल जाता है। सर्वविदित जैविक चक्रों में से निद्रा एवं जागरण का चक्र है जिनका अनुपात प्रायः 16 घण्टे जागने एवं 7 घण्टे निद्रा का होता है। नींद भी चार छः अवस्थाओं में पूरी होती है। इसी मध्य प्रत्येक 90 मिनट के अन्तराल से मनुष्य स्वप्नावस्था में चला जाता है। मूर्धन्य वैज्ञानिक बनार्ड गिटेल्सन ने- ‘‘बायोरिदम” नामक पुस्तक में बताया है कि मानव शरीर का तापमान प्रायः 37 डिग्री सेन्टीग्रेट 18 डिग्री फैरन ही होता है किन्तु इसमें भी सरकैडियन परिवर्तन आता रहता है। सुबह बॉडी टेम्परेचर सबसे कम होता है एवं सूर्योदय तक क्रमशः बढ़ता जाता है और रात्रि में सबसे अधिक हो जाता है। इसी के साथ हृदय की गति में भी परिवर्तन मापा गया है यह धड़कन तीन बजे सायं तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है। उस वक्त चयापचय की दर क्रमशः कमजोर पड़ती जाती है।

श्री आर. कोनराय एवं मिल्स नामक उक्त दोनों वैज्ञानिक ने विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि जन्म और मृत्यु का भी बायोरिदम से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनके अनुसार दिन या रात्रि के समय विशेष में ही यह घड़ियाँ आती है। मानव शिशुओं का जन्म प्रायः मध्य रात्रि से 3 बजे के मध्य होता है। सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी हेलवर्ग एफ ने अपनी कृति-”द ट्वेन्टी फोर आवर स्केलःए टाइम डायमेन्सन ऑफ एडाप्टिव फन्क्शनल आर्गेनाइजेशन” में कहा है कि बच्चे प्रायः 4 बजे सुबह ही जन्मते हैं। उस समय जन्मदात्री का मेटाबाँलिक चक्र सबसे कम होता है और वह सुस्त रहती है। उसके अनुसार जन्म की तरह मृत्यु का समय भी निर्धारित रहता है। अधिकाँश लोगों की मृत्यु ऊषाकाल या गोधूलि वेला के धुंधल के प्रकाश में अर्थात् साँध्य वेला में होती हैं इन अवसरों पर जीवन शक्ति सबसे अधिक कमजोर होती है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्रह-नक्षत्रों के वार्षिक चक्र से प्रभावित होने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। कुछ व्यक्तियों के शारीरिक वजन पर सरकैनुअल रिदम का प्रभाव देखा गया है जिसमें वजन की कमी एवं मानसिक दबाव की अधिकता पाई गई है। इस संदर्भ में अमेरिका वैज्ञानिका ई.टीत्र पे-जेली एवं एस.जे. अमुण्डसेन ने महत्वपूर्ण खोजें की है। इन्होंने “एन्युअल बायोलॉजिकल क्लाक” नामक एक अनुसंधानपूर्ण लेख प्रसिद्ध पत्रिका “साइंटिफिक अमेरिकन” में प्रकाशित किया है। उसके अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में मई एवं जून में सबसे अधिक बच्चे पैदा होते है। मई में जन्में शिशुओं का वजन अन्य महीनों में पैदा होने वाली अपेक्षा औसतन 200 ग्राम अधिक होता है। यह परिवर्तन हारमोन वृद्धि के कारण एन्युअल रिदम के द्वारा छोड़े गये प्रभाव का माना गया है। उक्त वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है। न्यूजीलैण्ड की सेना में भर्ती हुए 21 हजार सैनिकों का अध्ययन करने के पश्चात उन्होंने पाया कि उनमें अधिकतर लम्बे व्यक्ति दिसम्बर और फरवरी के मध्य में पैदा हुए थे। यह वहाँ के लिए मध्य ग्रीष्म का समय होता है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक अमुण्ड सेन के अनुसार पृथ्वी के दोनों गोलार्द्धों में उपरोक्त महीनों में जन्मे बच्चे दीर्घायु एवं बुद्धिमान पाये गये है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए संतुलित आहार, विहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि आवश्यक माने जाते हैं, किन्तु वातावरण एवं जैविक चक्र भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।

किसी व्यक्ति विशेष के बुद्धि परीक्षण द्वारा क्षेत्र विशेष के सभी लोगों की बुद्धिलब्धता आई.क्य. का पता लगाना कठिन एवं सन्देह भरा होता हैं किन्तु जब उस क्षेत्र के हजारों लोगों का इस प्रकार परीक्षण किया जाय तो प्राप्त निष्कर्ष में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। अमेरिका के विख्यात मनोविज्ञानी ई.हटिंगटन ने एक ऐसा ही परीक्षण न्यूयार्क के 17 हजार छात्रों का आई.क्यू अन्यान्य माहों में जन्में छात्रों की उपेक्षा सबसे अधिक था। परीक्षण में उन्होंने अधिक अंक प्राप्त किए। इसका विस्तृत विवरण अपनी कृति “सीजन ऑफ बर्थ” इट्स रिलेश्ज्ञन टू ह्यूमन एविलीटिज” में किया है।

इसी तरह का दूसरा परीक्षण एच. नोवलाच तथा बी पासामैनिक नामक दो मूर्धन्य चिकित्सावैज्ञानिकों ने ओहियो में मानसिक रूप से अविकसित बच्चे किया है। उससे जो तथ्य उभरकर सामने आये हैं, उनके अनुसार उनमें से अधिकाँश मानसिक रूप से अविकसित बच्चे का जन्म जनवरी और फरवरी जैसे सर्दी के महीनों में हुआ था। इसका विस्तृत विवरण “अमेरिकन जनरल ऑफ पब्लिक हैल्थ” के सन् 1958 के अंक में “सीजनल वैरिएशन इन दी बर्थ ऑफ दी मेन्टली डिफीसियन्ट” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

“द रिदम ऑफ लाइफ’8 नाम पुस्तक में प्रसिद्ध शरीरशास्त्री एक सोफी ने लिखा है कि 21 दिप अथवा 25 दिन के एक क्रक में मनुष्य शरीर में एक पूर्ण परिवर्तन होता रहता है जिसमें जीवनी शक्ति का नवीनीकरण होता और नयी चेतना, नयी स्फूर्ति का उदय होता है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए ब्रिटिश वैज्ञानिक गेगिर ल्यूस ने अपनी पुस्तक “बॉडी टाइम” में बताया है कि वस्तुतः यह हारमोन परिवर्तन के कारण होता है जिसका परिवर्तन चक्र लयबद्ध तरीके से चलता रहता है। 32 दिन बाद इस क्रम की पुनरावृत्ति होती रहती है। हारमोन रक्त प्रवाह में मिलकर अंतःस्रावी ग्रन्थियों के रसायन तंत्र को प्रभावित करते हैं, जिनसे स्रवित तत्व शारीरिक क्रिया–कलापों को परिवर्तित नियंत्रित करते हैं। ल्यूस के अनुसार साइक्लो थायमिक रिदम के कारण 35 दिन के अन्तराल से मनुष्य के भावावेग में परिवर्तन आ जाता है और प्रति 5 सप्ताह में एक बार चरम स्थिति में पहुँच जाता है। परिणाम स्वरूप उदासी और प्रफुल्लता का क्रम बारी-बारी से आता रहता है। प्रत्येक 40 दिन बाद इन्टेलेक्चुअल रिदम प्रकट होता है जो सम्बन्धित व्यक्ति की सतर्कता, मनोयोग, स्मृति एवं व्यावहारिकता को प्रभावित करती है। इस तरह के अनेकों लयात्मक चक्रों का वर्णन वेंजामिन वाकरकृत “एसोटेरिक मैन,” में किया गया है।

अमेरिका के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक ई॰एल॰ स्मिथ ने “टाइम्स इन द अफेयर्स ऑफ मेन” में बताया है कि प्रत्येक 36 महीने पश्चात् मनुष्य में एक “सद् विवेक लय”-”कन्साइन्स रिदम” का उदय होता है जिसमें सदाचरण के प्रति सजगता बढ़ी-चढ़ी होती है। उस समय व्यक्ति का रुझान आध्यात्मिक कार्योंक एवं नैतिकता की ओर विशेष रूप से होता है। स्मिथ का कहना है कि यही वह समय है जिसका चाहे तो व्यक्ति पूर्ण सदुपयोग कर अपने जीवन को समुन्नत और सुखी बना सकता है। अभ्यास द्वारा इसे लगातार जीवनपर्यंत बनाये रखा जा सकता है। उनके अनुसार 42 महीने चक्र वाली एक आडम्बर प्रवृत्ति-स्प्लर्ज अर्ज भी एकान्तर क्रम से मानव जीवन में प्रकट होती, जिसमें मनुष्य फिजूलखर्ची अपनाता और ठाट-बाट का प्रदर्शन करता है। सद्विवेक लय की लयबद्धता को नियमित बनाये रखकर इस पर नियंत्रण साधा जा सकता है।

बायोरिदम के कारण मानव स्वभाव में भी तर-चढ़ाव देखा जाता है। कभी उसमें पुरुषोचित कठोरता का भाव उदय होता है तो कभी नारी सुलभ कोमलता-अतिसंवेदनशीलता आदि के दर्शन होते हैं। मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड के सहयोगी जर्मन के सुप्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री विल्हेल्म फ्लीस ने बायोरिदम पर गहन अनुसंधान किया था और पाया था कि प्रत्येक मनुष्य में नर और नारी दोनों के गुण विद्यमान होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में नर तत्व का एक 23 दिवसीय चक्र कार्य करता जिसमें शक्ति, ऊर्जा, उत्साह, जीवटता आदि की प्रधानता प्रमुख रूप से परिलक्षित होती है। इसके बाद नारी तत्व प्रधान चक्र की बारी आती है। इसकी अवधि 28 दिन की होती है। इसमें मनुष्य की क्रियाशीलता, सृजनात्मकता, स्नेह, वात्सल्यता, भावुकता, अतिसंवेदनशीलता, जैसे नारी सुलभ गुणों की बहुलता देखी गयी है।

विशेषज्ञों का कहना है कि जीवन की परिभाषा ताल एवं लयों से नियंत्रित समय के रूप में की जा सकती है। अगणित लयों में से अधिकाँश को जाना समझा जा सकता है और शरीर के छोटे-छोटे क्रिया–कलापों में सक्रिय देखा जा सकता है। समय-बद्धता उनकी प्रमुख विशेषता है। बायोरिदम में भी समय प्रमुख कारक की भूमिका निभाता है। मनुष्य है जो अपने जीवन के कितने ही महत्वपूर्ण लयों को योंही व्यर्थ नष्ट होने देता है और उनकी उपयोगिता यथार्थता को नहीं समझता। जबकि इन लयों से शरीर, मन और भावनाओं का गहरा संबंध होता है। यदि उन्हें समझा जा सके, उनका विश्लेषण कर उपयोगी लयों को संजोया, सुनियोजित किया जा सके, तो जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने में इससे काफी सहायता मिल सकती है।

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