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Magazine - Year 1988 - Version 2

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नवयुग की संभावनाएं- लेखमाला-5 - भव्य भवन का छोटा मॉडल!

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भौतिक प्रगति के लिए तीन उपाय अपेक्षित होते है (1) अभावों को पूरा करना, (2) भावी प्रगति का सरंजाम जुटाना, (3) अनाचार व्यवधानों से निबटना। लक्ष्य बेध के लिए धनुष बाण और सही निशाना लगाने के लिए क्षमता अपेक्षित होती है। युग की महती आवश्यकता के लिए मनीषा को तीन प्रयास अनिवार्य रूप से करने होंगे (1) युग चेतना को जन मानस के अन्तराल तक पहुँचाने वाली महाप्रज्ञा की पक्षधर लेखनी (2) जन मानस को झकझोरने और उलटे को सीधा कर सकने में समर्थ परिमार्जित वाणी, (3) अपनी प्रतिभा, प्रखरता और प्रामाणिकता को पग-पग पर खरा सिद्ध करते रहने में समर्थ पुरोधाओं का परिकर। युग क्रांतियों में सदा यह तीनों तथ्य अपनी समर्थ भूमिका निभाते रहे है। अनाचार को आदर्शवादी प्रवाह में परिवर्तित कर सकने वाले महान कायाकल्प इन्हीं तीन अमोघ शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहे है।

युगसन्धि में अशुभ का समापन और शुभ का आगमन नियोजित किया जाने वाला है। इसमें अवाँछनीयताओं से जूझने और औचित्य को लोक मान्यता में सिंहासनारूढ़ होने की क्रिया प्रक्रिया चलेगी। इसके लिए ऐसी प्रतिभाओं को खोजना-निखारना और कार्य क्षेत्र में उतारना होगा जो प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक, तीनों ही क्षेत्र में अपने-अपने स्तर की मोर्चे बन्दी कर सकें। लक्ष्य की ओर सनसनाती हुई बढ़ सकें।

क्या ऐसा सम्भव है? इस पर सहज विश्वास नहीं होता। कारण कि इन दिनों आदर्शवादिता मात्र कहने सुनने की चीज बनकर रह गई है। वह व्यावहारिक जीवन में उतर सकती है इस पर भरोसा नहीं किया जाता, क्योंकि उत्कृष्टता के प्रवर्तक निजी जीवन में-”कथनी और करनी” की एकता सिद्ध नहीं कर पाते। इससे लगता है कि वे स्वयं उस पर विश्वास नहीं करते जिसकी कि दूसरों से आशा करते है जो स्वयं सफल रहा है उसे देखकर कौन यह विश्वास करेगा कि उच्च सिद्धान्तों की बात बताने और उनको चरितार्थ करने की सम्भावना को साकार करना जैसा इस आधार पर बन भी पड़ता है या नहीं?

फिर किया क्या जाय? इसे लिए एक ही उपाय सोचा गया कि इतने विशाल आयोजन के लिए एक विश्वस्त परिचय देने वाला मॉडल खड़ा किया जाय। ताजमहल जैसी बड़ी इमारतें बनती है, तो उनके लिए आर्चीटेक्ट, इंजीनियर मात्र नक्शा खींचकर निश्चिन्त नहीं हो जाते वरन् उसी आकार-प्रकार का एक साइज के अनुरूप मॉडल खड़ा करते है। उसे देखने पर हर किसी का दिमाग साफ होता है और समझ में आता है कि किस स्तर पर क्या तैयारियाँ करनी होगी। इस आधार पर प्रज्ञा अभियान की रूपरेखा किस प्रकार कार्यान्वित की जा सकती है, इसका एक छोटा किन्तु आनुपातिक मॉडल बनाकर खड़ा किया है। कृषि फार्मों में यही होता रहता है और जो सफलताएँ मिलती है उन्हें सर्वसाधारण को दिखाकर यह हृदयंगम कराते है कि इस प्रकार यह करने से इतनी उपलब्धि हस्तगत हो सकती है। विभिन्न प्रयोगशालाएँ भी यही करती रहती है। पायलट प्रोजेक्ट्स में यही होता है।

शांतिकुंज की विचार क्रान्ति योजना के तीन तथ्य अपने-अपने ढंग से प्रयोग परीक्षण के क्षेत्र में उतारे गए है और उसे निकट से गंभीरता से देखने के लिए हर किसी को अवसर दिया गया है। कारण कि कई बार बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते और विज्ञापन छपाये जाते हैं। अब जाँच परख पर ही निर्भर है कि किसी बड़ी योजना के सम्बन्ध में उसकी सम्भावनाओं का निश्चय करने के लिए आवश्यक विश्वास पैदा किया जा सके।

विचार क्रान्ति के अंतर्गत सर्व साधारण को यह बताया जाना है कि मनुष्य की भावी गतिविधियों का स्वरूप क्या होगा? अभिष्ट बदलाव के लिए किए निर्धारणों को लोक व्यवहार में सम्मिलित करना पड़ेगा? इस सम्बन्ध में कुछ निर्धारण इस प्रकार है।

“समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी, दयानतदारी को स्वभाव का अंग बनाना होगा। वह अपनाना होगा जो हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा करते है। “सादा जीवन उच्च विचार” का सिद्धान्त सर्वग्राही बनाना होगा। संयमशील बन अनुशासन में रहा जायगा। एकता और समता के सार्वभौम सिद्धान्तों के आधार पर समाज की अभिनव संरचना की जाएगी। सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाया और कुप्रचलनों को हटाया जाएगा। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार होगा। नीति का उपार्जन ही स्वीकार होगा। समय, श्रम, साधन, कौशल आदि का जितना अंश बन सकेगा, पिछड़ों को उठाने और उठो को उभारने में लगाया जायगा। शालीनता को संगठित किया जायगा और उसे सामुदायिक उत्कर्षों के लिए पूरी तरह नियोजित किया जायेगा।”

दृष्टि दौड़ाने पर इन दिनों मानवी गरिमा के अनुरूप आचरणों में भारी व्यतिरेक दिखाई पड़ती है। अवांछनीयता अपनाने वालों को अपनी भूल का अहसास कराना होगा और जिनके विश्वास आदर्शवादिता के सम्बन्ध में असमंजस ग्रस्त हैं, उन्हें तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों के आधार पर यह स्वीकारने के लिए बाधित किया जायगा कि श्रेय का वरण करने में ही अपना और सब का कल्याण है। विचार क्रान्ति के अंतर्गत ऐसा ही प्रबल प्रयास करना होगा जिससे विश्वव्यापी लोक मानस को भटकाव से विरत करना और सन्मार्ग पर चला करना सम्भव हो सके।

थोड़ा हेर-फेर करना होता तो यह छुटपुट स्थानीय प्रयत्नों से भी सम्भव हो सकता था पर जब 500 करोड़ से भी अधिक मनुष्यों की भौतिक गतिविधियों एवं आन्तरिक चिन्तन चेतना को बदलना है तो उसे सम्पन्न करने की योजना भी असाधारण स्तर की और उपयुक्त माध्यमों और साधनों से सम्पन्न करनी होगी। वही किया भी जा रहा है।

इस संदर्भ में प्राथमिकता युग साहित्य के सृजन को देनी होगी। प्रजातंत्र, साम्यवाद जैसी युग चेतनाएँ उन प्रतिपादनों के पक्षधर साहित्य से ही उद्भूत हुई है। सामाजिक कुरीतियों और अन्य प्रतिगामिताओँ के निराकरण में भी इसी माध्यम ने आश्चर्यजनक परिवर्तन कर दिखाये है। युग साहित्य की व्यवस्था भी अभिष्ट परिवर्तन के लिए करनी ही होगी। यह कैसे किया जाय, इसका एक छोटा प्रयास “युग निर्माण योजना” के अंतर्गत हुआ है। उसने बहुत कुछ सृजा छापा और करोड़ों तक अपने प्रतिपादनों को पहुँचाया है। यह आगे बढ़कर बनायी गई एक पगडंडी है, जिसे समर्थ मनीषा अपने अनुरूप बड़ा बनाकर राजमार्ग के रूप में विकसित कर सकती है।

हुआ यह कि एक सामान्य व्यक्ति ने युग चिन्तन में निमग्न निरत रहना अपना लक्ष्य बनाया। जो सूझा, उस पर अनेकों बार विचार किया और फिर प्रकाशन की दिशा में कदम बढ़ाया। साधनों के अभाव में हर प्रकाशन को 500 की संख्या में छपाते रहने का निश्चय करके रुका हुआ कदम आगे बढ़ाया गया। प्रतिपादन इतने सारगर्भित थे कि समर्थकों और विरोधियों ने समान रूप से उन्हें पढ़ना, समझना और अपने जैसे अन्य विचारशीलों को पढ़ने के लिए आग्रह पूर्वक सहमत करना आरंभ किया। क्रमशः माँग बढ़ती गई और लेखक का उत्साह ही नहीं कार्यान्वयन का प्रयास भी बढ़ता गया। पचास वर्ष के इस प्रयास की उपलब्धि देखकर लोगों को इस बात का आश्चर्य करना पड़ता है कि एक नितान्त सामान्य स्थिति में युग साहित्य का इतना सृजन और उसका असाधारण विस्तार कैसे संभव हो सका? इसका एक ही उत्तर में समाधान बन पड़ता है कि दैवी चेतन सत्ता ने अन्तराल के प्रवाह को उच्च उद्देश्यों की ओर कदम बढ़ाते हुए देखा, प्रेरणा दी एवं ये प्रयास आँधी के साथ उड़ने वाले तिनके तथा पत्तों की तरह कहीं से कहीं पहुँचते चले गये।

अखण्ड-ज्योति पत्रिका में विज्ञापनों की कोई आमदनी नहीं है। सहायता के लिए भी याचना नहीं की जाती। बिना लाभ और बिना नुकसान के निर्माण नीति का अवलम्बन लिया गया है। इसी का परिणाम है कि विगत पचास वर्षा में पत्रिका की सदस्य संख्या 500 गुनी हो गई। अगला निश्चय है कि कुछ ही दिनों में एक हजार .... होने का कीर्तिमान संस्थापक के जीवित रहते बनकर रहेगा। एक हिन्दी मासिक से सत्प्रवृत्ति संवर्धन का काम नहीं चला तो विषयों के विभाजन को ध्यान में रखते हुए दूसरी पत्रिका “युग निर्माण योजना” निकाली गयी। इसके गुजराती, मराठी, उड़ीसा, तमिल, तेलगू संस्करण छपने लगे। इन सबकी ग्राहक संख्या प्रायः पाँच लाख और पाठक संख्या पच्चीस लाख है। एक प्रति को न्यूनतम पाँच व्यक्ति पढ़ते है। बिना पढ़े इन प्रतिपादनों को चाव पूर्वक सुनते है। इस प्रकार एक से अनेक होने की श्रुति चरितार्थ हुई।

पत्रिकाएँ सामयिक महत्व की होती है महीना बीतते ही वे पुरानी पड़ जाती है और उपेक्षित बनती है। इसलिए पुस्तकाकार साहित्य का सृजन भी साथ-साथ आरंभ हुआ। अब तक 500 से भी अधिक अनेकानेक विषयों पर प्रेरणाप्रद पुस्तकें छप चुकी है। उनके कितने ही संस्करण बिक चुके है। अन्य भारतीय भाषाओं में और अंग्रेजी में उनके अनुवाद धड़ल्ले से छपते चले जाते है।

विकट प्रश्न है विक्रय का। पुस्तक विक्रेता को, सरकारी पुस्तकालयों को बड़ी एवं आकर्षक कलेवर की पुस्तकें चाहिए, जिनका मूल्य भी अधिक हो और बेचने वालों को इस महंगाई में उपयुक्त कमीशन का लाभ भी मिले। इस कथन का औचित्य हो सकता है कि गरीब देश का गरीब पाठक ऐसे रूखे समझे जाने वाले साहित्य को महंगे मोल में किस प्रकार खरीदे? और जन-जन तक पहुँचाने का उद्देश्य कैसे पूरा हो? इस असमंजस का हल पाठकों ने अपने बलबूते निकाला। जिसे उनने उपयुक्त पाया उसे दूसरों तक पहुँचाने का प्रयत्न स्वयं आगे बढ़ कर किया। बिना मूल्य घर-घर जाकर पढ़ाने और वापस लेने की योजना बहु सफल एवं लोकप्रिय बनी। साथ ही अधिक पसंद करने वाले उनमें से कुछ खरीदने भी लगे। धकेल गाड़ियों के रूप में “ज्ञान रथ” गली-गली इसी प्रयोजन के लिए नियमित रूप से घूमने लगे और वह प्रचार प्रसार बन पड़ा? जिसकी अब तक कल्पना भी नहीं की जा सकी है। ऐसा कुछ ईसाई मिशनों और साम्यवादी क्षेत्रों में ही होता रहा है। उसी प्रकार का यह भी एक अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है।

उच्च स्तरीय लेखक जुटाना भी कम कठिन नहीं, जो ऐसे जटिल विषयों पर लेखनी उठा सकें उनकी संख्या गिनी चुनी है। वे व्यस्त भी पाये जाते है और लेखन, शुल्क, कापी राइट आदि की भी उचित अपेक्षा रखते है। पर उस भार के बढ़ने पर तो साहित्य का मूल्य बढ़ता है जबकि आवश्यकता इस बात की है कि युगक्रांति सम्पन्न करने के लिए सस्ते से सस्ता सत्साहित्य पाठकों के हाथ तक पहुँचें यही झंझट व्यवसायी प्रकाशकों के साथ में भी है। उनका लाभाँश सस्ता साहित्य उपलब्ध कराने में अड़चन उत्पन्न करता है। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए लेखन, प्रकाशन, प्रचार, विक्रय आदि के बहुमुखी प्रयासों को एके ही तंत्र के अंतर्गत केन्द्रित करना पड़ा।

युग साहित्य का लेखक इस संस्था का संस्थापक, निजी सम्पत्ति का बहुत पहले विसर्जन कर चुका है। रोटी, कपड़ा और मकान की शरीर यात्रा पर उसे पूरा संतोष रहा है। चार घंटा नियमित और एकाग्र रूप से प्रस्तुत ज्ञान यज्ञ में उसका शरीर और मस्तिष्क समर्पित भाव से निरत रहा है। फलतः उसका यह व्रत निभ गया कि कलम की कमाई किये बिना ही काम चलाया जाय। अन्य संस्थानों के लिए कभी लिखा है तो लिखाई का एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। कापी राइट नाम से कोई चीज सोची ही नहीं गई। जब लाभाँश ही नहीं तो कापी राइट किस बात का। यह कारण है कि मिशन के लेखन-प्रकाशन को कोई भी छाप लेता है। लेखों को अनेक पत्रिकाएँ छापती है, पर उन्हें उद्धरण का हवाला देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

यह उदाहरण इसलिए प्रस्तुत करना पड़ा कि अगले दिनों लोकमानस को ब्रेन वाशिंग की प्रक्रिया से होकर गुजरना है तो उसके लिए उपयुक्त साहित्य सृजन प्रकाशन विक्रय का क्या प्रबंध करने की आवश्यकता पड़ेगी? जो हुआ है, हो रहा है, उसका प्रकाश कुछ लाखों की परिधि में ही अपना प्रकाश फैला सका है। जबकि संसार की प्रमुख चौबीस भाषाओं में 600 करोड़ मनुष्यों को बेतरह झकझोरने और शीर्षासन तक के लिए तैयार करने, हर स्थिति में कमर कसने हेतु प्रस्तुत प्रयास की तुलना में हजारों लाखों गुनी योजनाएँ बनानी पड़ेगी। जो लोग समझते है कि यह नीरस विषय है, जन सहयोग न मिलेगा, साधनों के अभाव में इतना बड़ा तंत्र कैसे खड़ा हो सकेगा, उन्हें जानना चाहिए कि उच्च स्तरीय साधना में असाधारण बल होता है और यदि वह प्रचंड हो सके तो सहयोग, समर्थन लेने का सुधारने तक का सारा सरंजाम जुट सकता है। शर्त एक ही है कि निर्धारण और क्रियान्वयन पूरी ईमानदारी से और समर्पित भाव से किया गया हो। लेखनी का यह चमत्कार अगले दिनों विश्व चिन्तन एवं प्रवाह को मोड़ने में किस प्रकार सफल हो सकता है, इसका बड़ी योजनाएँ बनाने वाले यदि सूत्र संकेत भर प्राप्त कर सकें, तो अच्छा ही होगा। विश्वास किया जाना चाहिए कि युग चेतना अपनी आवश्यकता किसी अदृश्य प्रेरणा के आधार पर पूरा करेगी और सफलता के चरण लक्ष्य तक जा पहुँचेगी।

विचार परिवर्तन का दूसरा माध्यम है वाणी। प्रवचन, समारोह, आयोजन, गोष्ठियां, विचार विनिमय आदि इसी प्रयोजन के निमित्त होते है। इनमें प्रवक्ता क्या प्रतिपादन करें, इसके लिए उन्हें अलग से कुछ सीखना समझना नहीं है। कोई पाठ्यक्रम पूरा करना नहीं है। युग साहित्य के अंतर्गत वह सब कुछ मिल जायगा तो विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न शैलियों में कहा जाता है। मात्र बात भाषण कला की रह जाती है। वह अन्य कलाओं की तरह कुछ दिन के अभ्यास से सीखी जा सकती है। जितना साइकिल चलाना सरल है, उतना ही वाणी को मुखर करना, जीभ चलाना भी सुगम और मनोरंजक है, उसे सीखा जा सकता है। शान्ति कुंज में इसी कौशल को सिखाने का, एक-एक महीने वाले सत्रों में अभिष्ट अभ्यास करने का अवसर निरन्तर मिलता रहता है।

आदर्शवादिता के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए भाव संवेदनाओं की शुष्कता को सरसता में बदलना आवश्यक है। यह कार्य भाषणों की अपेक्षा संगीत माध्यमों से अधिक अच्छी तरह हो सकता है। भाषण ज्ञानयोग का समर्थ है और संगी भक्ति भावना का पक्षधर। वाणी विनियोग में युग चेतना ने भाषण और संगीत दोनों का समन्वय किया है। यहाँ संगीत का तात्पर्य लोक गायन, सुगम संगीत से समझा जाना चाहिए जिसमें वाद्य यंत्र भी कम मूल्य के प्रयुक्त होते है और वे कम समय में अधिक आसानी से अभ्यास में उतर जाते है।

एक महीने वाले शान्ति कुंज सत्रों में वाणी शक्ति को भाषण और संगीत माध्यम से काम चलाऊ सफलता मिलती रहती है। अभी इस स्तर के पाँच सौ शिक्षार्थी हर महीने प्रशिक्षण प्राप्त करते रहते है। उनके निवास, भोजन, प्रशिक्षण प्राप्त करते रहते है। उनके निवास, भोजन, प्रशिक्षण उपकरण आदि की भी तो आवश्यकता पड़ती है। इस वर्ग में याँत्रिक प्रचार उपकरणों का प्रयोजन भी सम्मिलित है। स्लाइड प्रोजेक्टर, टेप-रिकार्डर, लाउडस्पीकर आदि यंत्र भी ऐसे है जो प्रचार कार्यों में आये दिन काम आते है। एक महीने की कक्षाओं में इन सबका अभ्यास हो जाता है। इसके साथ-साथ ये सभी वातावरण के सूक्ष्म परिशोधन की महापुरश्चरण साधना के भागीदार भी बनते है एवं अपने यहाँ जाकर प्रज्ञामण्डल बनाकर साप्ताहिक सत्संग-स्वाध्याय-उपासना का क्रम चलाते है।

पाँच सौ हर मास के शिविरों से एक साल में छः हजार हो जाते है। युग संधि के आगामी बारह वर्षों में युग प्रवक्ताओं की संख्या एक लाख तक पहुँचनी है। इसलिए स्थान की, निःशुल्क भोजन की कुछ ही समय में व्यवस्था बन जायेगी तो युग प्रवक्ताओं के निर्माण की जो गति आज है, वह अगले दिनों न रहेगी। ईसाई मिशनों के पास संसार भर में प्रायः एक लाख प्रशिक्षित पादरी है। साम्यवाद जैसे प्रचंड आन्दोलन को सिर पर उठाये फिरने वाले लोक सेवी कार्यकर्ताओं की संख्या भी प्रायः इतनी ही होगी। भारतीय संस्कृति से उद्भूत आध्यात्मिक ऊर्जा को विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए भी इससे कम व्यक्ति नहीं लगेंगे।

अनुमान लगाया जाना चाहिए कि शान्तिकुंज जैसा स्वल्प सामर्थ्य संपन्न तंत्र जो कर सकता है, उसी काम को यदि समर्थ प्रतिभाएँ और मनीषीगण मिलकर अपने कंधों पर उठाएँ तो उसकी कितनी बड़ी परिणति हो सकती है। इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

निजी निर्माण कितने कठिन पड़ते है, इसे सभी जानते है। निजी समस्याओं का समाधान कितना उलझन भरा होता है, इससे कौन परिचित नहीं? फिर शताब्दियों से संग्रही विकृतियों से व्यापक स्तर पर निबटना कितना कठिन हो सकता है, इसकी गंभीरता पर दो मत नहीं हो सकते। इतने पर भी प्रस्तुत मॉडल को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मानवी प्रतिभा और प्रयत्नशीलता नगण्य नहीं है। वह जब कुछ करने पर उतारू होती है तो समुद्र लाँघने और गोवर्धन उठाने जैसे बड़े काम सम्पन्न करती है। इस चर्चा में एक चरण और जोड़ा जा सकता है कि विचार क्रान्ति की दिशा में एक छोटे “एकलव्य” ने लेखनी और वाणी के जो धनुष बाण उठाये, वे अपने अब तक की सफलता और भावी संभावना का संकेत देते हुए निराशा के माहौल में भी आशा की उमंगे उत्पन्न कर सकते है। (क्रमशः)

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