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Magazine - Year 1988 - Version 2

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नवयुग की संभावनाएं-लेखमाला-1 - भ्रान्तियों के घटाटोप में रह रहे हम सब!

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कसाई के खूँटे से बंधा हुआ बकरा जब तक घास खाता और मस्ती करता रहता है जब तक उसकी गरदन कड़क्के में फँस नहीं दी जाती। पिंजड़े में घुसते समय तक चूहे भी यह कहाँ सोच पाते हैं कि अगले ही क्षण उन पर क्या बीतने वाली है। अदूरदर्शिता को एक अभिशाप ही कहना चाहिए जो तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मानती है और यह सोच नहीं पाती कि जो किया जा रहा है, उसका कुछ अनिष्टकर परिणाम तो नहीं होने जा रहा है। पिछली कुछ शताब्दियों से एक पर नहीं, समुदाय के विशिष्ट माने जाने वाले वर्ग पर ऐसा उन्माद चढ़ा है, जिसमें एक सोने का अण्डा राज देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर एक ही दिन में सो अण्डे निकाल लेने और देखते-देखते धन कुबेर बन जाने की ललक ही चरितार्थ होती देखी जा सकती है।

इसी शताब्दी में दो बड़े विश्व युद्ध हुए हैं और सैकड़ों स्थानीय क्षेत्रीय। इनके कारण बताने में बहाने जो भी बनाये जाते रहे हों, पर मूल कारण आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने की प्रतिद्वन्द्विता ही रही है। इस युद्धों में जन-धन का कितना विनाश हुआ, उसका विवरण पढ़ने से लगता है कि वह इतना असाधारण था कि यदि उसे रोका जा सका होता और बर्बाद हुई शक्तियों को सर्वतोमुखी अभ्युदय में लगाता जा सका होता तो वह स्थिति बन पड़ी होती, जिस स्वर्गोपम कहा जाता और अपनी धरती को ही ब्रह्माण्ड का एकमात्र सुसम्पन्न ग्रह कहा जाता है। कटु अनुभवों के बाद भी समझदारी वापस कहाँ लौट रही है? मिल जुलकर रहने और मिल बाँट कर खाने के लिए समर्थता कहाँ सहमत हो रही है? उसने आक्रमण की नीति अभी भी छोड़ी नहीं है। एक से एक भयंकर प्रलयंकर अस्त्र धड़ाधड़ बनते चले जा रहे हैं। वे इतने अधिक जमा हो गये हैं कि कोई पगला इस बारूद में एक चिनगारी फेंक दे तो इस धरातल का सारा वैभव आतिशबाजी की तरह जल कर भस्म हो सकता है। तैयारियों में अभी भी कमी नहीं है। सुलह-सफाई की वास्तविक इच्छा अभी भी जगी नहीं है। मात्र कूटनीतिक दांव−पेंच ही चल रहे हैं और शतरंज के खेल में सामने वाले को मात देने भर की नीति सोची-अपनायी जा रही है। इन दिनों जिनका धन युद्धोन्माद की बलिवेदी पर स्वाहा हो रहा है, यदि उसे बचाया जा सकता है तो सैन्य प्रयोजनों में लगी, हुई जनशक्ति, धनशक्ति, विज्ञान और कौशल अपनी दिशा बदलते ही उन कार्यों में जुट सकते हैं जिनके कारण संसार के अधिकाँश लोगों को अभावग्रस्त एवं पिछड़ेपन की स्थिति में रहना पड़ रहा है, पर यह सब बन कैसे पड़े? समझदारी तो वापस लौटने का नाम ही नहीं लेती। शक्ति और दुर्बुद्धि एक दूसरे के साथ इस बुरी तरह गुँथ गई हैं कि पूछने का नाम तक नहीं लेती। तीसरा युद्ध हुआ तो उसके बाद जो कुछ बच रहेगा, उसे श्मशान से कम वीभत्स न देखा जा सकेगा। छिटपुट आक्रमण भी कहाँ कुछ कम भयंकर है? इससे भी तनाव और विद्वेष की विषाक्तता दिनों दिन बढ़ रही है।

अणु शक्ति का नया उद्भव अगले दिनों क्या कुछ करने जा रहा है, इसका अनुमान लगाने से ही दिल दहलने लगता है। जापान पर गिरे दो छोटे बमों का दृश्य ऐसा है जिसे मनुष्य कभी भुला न सकेगा। अब उसी शक्ति के निर्माण से जो विकिरण वातावरण में फैल रहा है, उसका अनुमान समय-समय पर होते रहने वाले “चैर्नोबिल काण्ड” जैसे लीकेजों से लगाया जा सकता है। वैज्ञानिक कहते हैं अब तक जितना रेडियो धर्मी विकिरण फैल चुका है और जितना खतरनाक कचरा जमा हो चुका है, उससे भुगतान भी टेढ़ी खीर है। फिर आगे इस उपक्रम के चलते आगे क्या कुछ होकर रहेगा, इसकी तो कल्पना भी दहला देती है।

विज्ञान का अर्थ क्षेत्र में हुआ तो उसने औद्योगीकरण के सब्ज बाग दिखाये। विशालकाय कल कारखाने लगे। सुविधा की दृष्टि से उनके लिए बड़े शहर चुने गए। कच्चे माल व उत्पादन के पहाड़ जमा होते चले गए। इनमें कुछ व्यक्तियों को नया काम तो अवश्य मिला पर प्रतिद्वन्द्विता में कुटीर उद्योग न ठहर सके और बेकारी-गरीबी का व्यापक माहौल बन गया। कुछ लोग समृद्ध जरूर हुए पर उन्हें खारे जल से भरे समुद्र में जहाँ तहाँ उभरे हुए टापू ही कह सकते हैं। अमीरों को अधिक अमीर और गरीबों को और अधिक गरीब बनाने का सारा श्रेय प्रस्तुत वैज्ञानिक औद्योगीकरण को ही जाता है। दुष्परिणामों को देखते हुए भी उन्हें छोड़ने या बदलने की कहीं कोई योजना नहीं बन पा रही है। विशालकाय कल कारखाने घट नहीं बढ़ रही रहे हैं। इनके कारण शहरों की आबादी घिचपिच होती चली जा रही है और गाँवों से प्रतिभा पलायन बुरी तरह जारी है। इसके दुहरे संकट खड़े हो रहे हैं। एक ओर शहर गाँव से उमड़ते जन प्रवाह का बोझ सहन नहीं कर पा रहे। उनकी स्वास्थ्य, सफाई, आवास समस्या बुरी तरह चरमरा रही है। बीमारियों से लेकर अपराधी प्रवृत्ति को पनपने की छूट मिल रही है। उनसे निबटना कैसे संभव हो? बाढ़ का उफान रेत की पोटली डालने से किस प्रकार रुक सके? दूसरी ओर गाँव हैं-जिनकी प्रतिभाएँ शहरों में जा बसने से छूँछ बनकर रह गयी हैं। इच्छा होते हुए भी विकास की दिशा में वे उतना कुछ नहीं कर पार रहे जितना कि सुयोग्य प्रतिभाओं द्वारा वहाँ बसे रहने पर हो सकता था। प्रगति की आकाँक्षा कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हो, पर अवगति से तो पहले पल्ला छूटे?

प्रदूषण अपने समय की ऐसी समस्या है, जिसे औद्योगीकरण की, अतिशय सुविधा पाने की अदम्य लालसा का प्रतिफल ही कहा जा सकता है। पर्यावरण का प्रदूषण से भरते जाना एक ऐसा संकट है जिसे अनदेखा करना वैसा ही है, जैसा शिकारी को पीछे आते देखकर शुतुरमुर्ग का बालू में मुँह छिपा लेना। चूँकि यह समूची विडम्बनाएँ हर मनुष्य के सामने प्रत्यक्ष खड़ी नहीं होती इसलिए उनका महत्व नहीं समझा जाता और ध्यान भी नहीं दिया जाता। फिर भी अन्यत्र घटित होने वाले प्रभावों से एक जगह बैठा रहने वाला सुरक्षित भी कहाँ रह पाता है? सर्दी, गर्मी, वर्षा के कारण जो भी हों, उनका मूल सिलसिला जहाँ से भी चलता हो, पर उसका प्रभाव तो हर किसी पर पड़ता है। वातावरण के साथ छेड़खानी का परिणाम वैसा ही हो सकता है जैसा कि बर्रों के छत्ते में हाथ डालने का।

ऊर्जा का अतिशय उपयोग और बढ़ते प्रदूषण के दबाव से अंतरिक्षीय तापमान बढ़ रहा है। उसने ध्रुवों के पिघल जाने और समुद्र में भयंकर बाढ़ आने से जलप्रलय की चेतावनी समय से पहले ही भेज दी है। उसका दूसरा पक्ष हिम प्रलय भी है। पृथ्वी का रक्षा कवच जिसे “ओजोन” नाम से जाना जाता है ताप के दबाव से फटता, उखड़ता जा रहा है। इन छिद्रों से होकर ब्रह्माण्डीय किरणें घर-घर बरस सकती हैं और यहाँ जो कुछ भी सजीव, सरस व सुन्दर है, उसे देखते-देखते विस्मार कर सकती हैं। यह सब प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़खानी करने की प्रतिक्रिया भर है।

कोढ़ में खाज की तरह बढ़ती आबादी की अपनी अलग समस्या है, जिस अकेली को ही प्रकृति रूपी शेरनी की पूँछ मरोड़ने से कम भयंकर नहीं समझा जा सकता। कोई समय था, जब बड़ी आयु में विवाह होते थे। आयु का उत्तरार्ध वानप्रस्थ में बिताते थे। कामुकता को अश्लील और हेय समझा जाता था। फलतः संतानें भी सीमित होती थीं और जनसंख्या बढ़ने का संकट खड़ा नहीं होने पाता था। लाखों करोड़ों वर्षों से यह संख्या संतुलन अपनी सीमा में बना हुआ था पर अब तो कामुकता भड़काने में साहित्य, सिनेमा, चित्र, प्रचलन, कला, संगीत सभी कुछ तो मदद देकर स्वच्छन्द विलासिता को प्रोत्साहन दे रहे हैं। ऐसी दशा में बहुप्रजनन का बाँध टूटे तो आश्चर्य ही क्या? इन दिनों जनसंख्या की अभिवृद्धि वैसा ही संकट बनकर सामने आई है. आश्वासन देने वाली ऊषा अपने समय पर उदित होती रही है एवं परिवर्तन लाती रही है।

रात्रि के उपरान्त प्रभात आता है, अवाँछनीयताओं का साम्राज्य देर तक टिकना नहीं। समय चक्र ऐसी परिस्थितियाँ भी लाता है जिसमें विपन्नताओं से उबर सकना संभव हो सके। इक्कीसवीं सदी ऐसा ही संदेश लेकर आ रही है। उसे सर्वतोमुखी अभ्युदय का समय भी कह सकते है, “सतयुग” भी। इक्कीसवीं सदी इसी की प्रतीक बन कर आ रही है।

युग संधि को द्वंद्व और संघर्ष की अवधि कह सकते है। अब से लेकर बीसवीं सदी के अन्त तक ऐसी ही द्विधा छाई रहेगी। रात्रि के अन्तिम प्रहर में तमिस्रा अत्यधिक सघन हो जाती है। दीपक जब बुझता है तो ऊँची लौ दिखाता है। चींटी मरने को होती है, तब पंख उगाती है। मरते समय गहरी सांसें चलते लगती है। यही सब देखकर यह उक्ति बनी है कि “मरता क्या न करता।” आत्मरक्षा के लिए कौन हाथ पैर नहीं पीटता? यदि अनौचित्य की प्रस्तुत परम्परा भी ऐसा ही कुछ करे तो क्या आश्चर्य?

सड़े फोड़े का गहरा मवाद यदि एक साथ ही निकलेगा तो अधिक घिनौने दृश्य उपस्थित करेगा। इस संभावता को देखते हुए अदृश्य द्रष्टाओं ने रोमाँचकारी भविष्यवाणियाँ की है जो प्रायः इस युग संधि पर लागू होती है। ईसाई धर्म में सेविन टाइम्स एवं एण्टीक्राइस्ट इस्लाम धर्म में चौदहवीं सदी में कयामत तथा भविष्य पुराण में खण्ड प्रलय की चर्चा है। अन्य पूर्वार्त्त और पाश्चात्य दिव्य दर्शियों ने भी इसी स्तर की भविष्यवाणियां की है जिनसे प्रतीत होता है कि कुसमय का अन्त होते-होते कहर बरसेगा। किन्तु इसके बाद ऐसा समय आयेगा जिसमें पिछले समस्त घाटे की पूर्ति हो जायगी ताकि गहरी खाई पाटकर समतल ही नहीं वरन् पुष्पोद्यान के रूप में भी छटा दिखाने लगे।

एक ही समय में दो काम हो सकते है। खेत की जुताई से खुदाई होती है किन्तु साथ ही बुवाई का क्रम भी चलता है और देखते-देखते खेत पर हरियाली लहलहाने लगती है। इस भारी परिवर्तन में एक सप्ताह से भी कम समय लगता है। प्रसव वेदना में जहाँ प्रसूता को कष्ट सहना पड़ता है वहाँ शिशु जन्म की खुशियाँ मनाने के सरंजाम भी साथ ही जुट जाते है। जरा जीर्ण काया इधर मृत्यु का वरण करती है, उधर दूसरे जन्म का नया सुयोग भी बन जाता है। जुआरियों में से एक हार पर उदास होता है तो दूसरा जीत पर मुसकाता है। खिलाड़ी और व्यापारी भी आपस में हारने जीतने के परस्पर विरोधी अनुभव करते है। युग संधि में देवासुर संग्राम मचे-विनाश और विकास का मल्लयुद्ध ठने तो उसे नियति की विचित्रता ही करना चाहिए। संध्या काल में दिन और रात्रि दोनों का समन्वय देखा जा सकता है। प्रायश्चित करते समय जहाँ कठिनाई का सामना करना पड़ता है वहाँ भार उतर जाने और उज्ज्वल भविष्य की संभावना बनने की प्रसन्नता भी होती है। युग संधि के इन बारह वर्षों को ऐसे ही खट्टे मीठे स्वाद का सम्मिश्रण समझा जा सकता है। अशुभ की विदाई और शुभ की अगवानी का मिश्रित माहौल इन दिनों देखने को मिलेगा। एक ओर आपरेशन की छुरी-कैंची संभाली जायगी तो दूसरी ओर घाव सीने और मरहम पट्टी के सरंजाम भी इकट्ठे होंगे। वधू को विदा करते समय जहाँ एक घर में आँसू टपकते है। वहीं दूसरे घर में गृह लक्ष्मी के आगमन पर सभी के चेहरे खिलते है। ऐसी ही द्विधा लेकर आ रही है युग संधि की बेला। इन बारह वर्षों में ऐसे ही ज्वार भाटे रहेंगे।

भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण के कारण जो अनर्थ उपजे है उन्हें कोई दावानल भस्मसात् करके रख दे, यह संभव है। ऐसा समय असाधारण रूप से कष्ट कारक भी हो सकता है। विपत्तियाँ और बढ़ सकती है। संकट और भी अधिक गहरा सकते है, किन्तु साथ ही यह भी निश्चित है कि उज्ज्वल भविष्य का सृजन भी इन्हीं दिनों होगा। प्रतिभाएँ इन्हीं दिनों उभरेगी और उनके द्वारा बहुमुखी सृजन की ऐसी योजनाएँ भी बनेगी जो चरितार्थ होने पर ऐसा बासंती वातावरण बना दें जिसकी इक्कीसवीं सदी के रूप में आशा, उपेक्षा चिरकाल से की जाती रही है।

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