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Magazine - Year 1988 - Version 2

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अपरिमित सामर्थ्य का स्वामी है मनुष्य

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साधनों और परिस्थितियों का अपना मूल्य महत्व तो है। उनकी न्यूनाधिकता से होने वाली सुविधा असुविधाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। इतने पर भी यह मानकर चलना होगा कि जो कुछ उपलब्ध है, उसका सदुपयोग कर पाना इतना बड़ा कौशल है, उसका सदुपयोग कर पाना इतना बड़ा कौशल है कि उतने से भी आवश्यकताओं को पूरा करना और प्रगति पथ पर आगे बढ़ चलना संभव हो सकता है। स्रष्टा ने किसी में भी इतनी कम क्षमता नहीं रहने दी है कि उसे निर्वाह साधनों में एवं प्रगति पथ पर बढ़ चलने में गतिरोध जैसा दृष्टिगोचर हों।

अभावग्रस्त और कष्ट साध्य परिस्थितियों में भी लोगों को जीवन साधन ढूंढ़ निकालने में समर्थ पाया गया हैं उतरी ध्रुव की परिस्थितियाँ अत्यन्त विकट है। शून्य तापमान से कम वाली कड़ाके की सर्दी वनस्पतियों का अभाव किन्हीं साधनों का दृष्टिगोचर न होना चुम्बकीय तूफान भूगर्भीय हलचलों जैसी विकट परिस्थितियों में भी वहाँ के निवासी एस्किमो कहलाने वाले मनुष्यों ने आवश्यक निर्वाह आहार जल प्रकाश आवागमन एवं पारस्परिक सुविधाओं से मिलने वाली सुविधाओं का तारतम्य बिठा लिया है। सघन वनों में वनमानुषों की तरह रहने वाले विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासी भी सभ्यताजन्य सुविधाओं से वंचित रहते हुए भी वही आसपास उपलब्ध हो सकने वाले साधनों के आधार पर सहस्रों वर्षों से काम चलाते आ रहे हैं। और अपना अस्तित्व बनाये हुए है। समुद्रों के बीच पाये जाने वाले छोटे-छोटे टापुओं पर भी मनुष्य रहते और फलते-फूलते देखे गये हैं जब कि उन्हें उस क्षेत्र में आदिम कालीन न्यूनतम सुविधायें उपलब्ध है। कही कही तो ऋतु विपर्यय भी कम हैरान करने वाला नहीं होता। फिर उन क्षेत्रों के मनुष्य एवं प्राणी अपनी सुरक्षा रख सकने और वश वृद्धि करते रहने में समर्थ पाये गये है। इससे प्रतीत होता है कि प्राणी समुदाय सहित मनुष्यों में वह जन्मजात क्षमता विद्यमान हैं जिसके सहारे उसे प्रतिकूलताओं पर विजय करने का श्रेय मिलता रहा है।

मिट्टी और पानी में घुले रहने वाले सूक्ष्मजीवी अपने निर्वाह हेतु सुख साधना अपने लिए उन्हीं अति कठिन दीखने वाली परिस्थितियों में ढूंढ़ निकालना है। इस सफलता का श्रेय उस अदृश्य क्षमता को जाता है जो अपनी परिस्थितियों को अनुकूल बनाने हेतु स्रष्टा ने हर किसी को प्रदान की है। मनुष्य अपने दृष्टिकोण से उन सामान्य प्राणियों की क्षमताओं को सामान्य समझ कर हेय मान सकता है पर यदि किसी को उन्हीं की परिस्थितियों में रहने का अवसर मिले तो अनुभव करेगा कि मानव को अपनी परिस्थितियों से निपटने के लिए जो विशेषताएं मिली हुई हैं, उनकी तुलना में इन प्राणियों को मिला अनुदान किसी भी प्रकार कम नहीं है।

हवा में तैरते फिरने वाले बैक्टीरिया एवं वायरस स्तर के जीवों का भी अपना एक संघ है। वे प्राणियों के कलेवर आँतरिक अंग अवयवों में चाहे जहाँ पहुँच जाते है। अपने लिए अनुकूल परिस्थितियां हर जगह प्राप्त कर लेते है। परिवर्तन की नियति स्वरूप तो उनकी भी बदलती रहती है पर अस्तित्व को चुनौती देने वाला कभी कोई संकट उनके आड़े नहीं आया। अनादिकाल से उनकी प्रजातियां विद्यमान है और अनन्तकाल तक यथावत बनी भी रहेंगी।

शरीर के जीवकोषों सूक्ष्मतम घटकों की भी अपनी सत्ता है वे जल्दी जल्दी जन्मते मरते तो रहते हैं, पर उनका व्यवस्था क्रम ऐसा सुनियोजित है जिसकी तुलना में चलते फिरते दृश्यमान प्राणियों में से किसी के भी क्रिया–कलापों को उतना सुव्यवस्थित एवं अनुशासित होने का श्रेय नहीं मिल सकता। यह धरती के प्राणियों में से कुछ की बात हुई।

अन्तरिक्ष में विद्यमान ग्रह उपग्रहों-निहारिकाओं का अपना एक अनोखा संसार विद्यमान है, जिससे महाछिद्रों गह्वरों महामेघों और महान ऊर्जास्रोतों का अपना अनोखा संसार विद्यमान है। मनुष्यों की तरह वार्तालाप आदि में भले ही वे समर्थ न हों पर उनके बीच विद्यमान अनुशासन और तारतम्य ऐसा है, जिसे देखते हुए कहा जा सकता है कि एक विराट ब्रह्म के अविच्छिन्न घटकों की तरह परस्पर मिलजुल कर रहे है। एक दूसरों के बीच आदान-प्रदान का सुनियोजित क्रम चला रहे है। इसी अनुबंध के परिपालन के आधार पर उनकी सत्ता और गतिविधियों की सुनियोजित श्रृंखला अनादिकाल से चलती आ रही है और चलती रहेगी। पदार्थ जगत के प्रत्येक अणु-परमाणु में वह व्यवस्था तंत्र अपने-अपने ढंग से काम करता पाया जा सकता है। आणविक संरचनाएं उनकी मध्यवर्ती नाभिकीय ऊर्जा तथा परिभ्रमण की गति कक्षा का निर्धारण भी ऐसा है जिसे देखते हुए सौरमण्डल से लेकर विश्व ब्रह्माण्ड की संरचना तक में काम करने वाले व्यवस्था क्रम को सर्वत्र एक रस विद्यमान समझा जा सकता है। यहां सब कुछ सुव्यवस्थित एवं सुनियंत्रित है। अणोरणीयान् एवं महतोमहीयान् वाले प्रकृति विस्तार के प्रत्येक घटक में इसी आधार पर समस्वरता विद्यमान है।

सृष्टिक्रम के पीछे विद्यमान इस सुनियोजन को यदि समझा जा सके तो सहज ही जाना जा सकेगा कि मनुष्य की मौलिक सत्ता कितनी प्रबल और प्रखर होनी चाहिए। कारण कि उसे दुहरा अतिरिक्त अनुदान उपलब्ध है। उसकी शारीरिक संरचना अन्य प्राणियों की तुलना में अनेक गुणी विशिष्ट है। इतने सुनियोजित हाथ किसी भी प्राणी को मिले हुए नहीं है। यदि संरचना में कमी रही होती तो उसे कला-कौशलों में से एक को भी प्रदर्शित कर सकना संभव न रहा होता, न वह लेखक हो सकता था, न संगीत वादक न मूर्तिकार न चित्रकार न वैज्ञानिक न विशेषज्ञ। यह सुविधाएं उसके हाथों ने ही जुटाई हैं जिनने अनेकों यंत्र-उपकरणों का आविष्कार किया और उनके कुशल संचालन में प्रवीणता प्राप्त कि खड़े होकर चलने वाली रीढ़ की हड्डी और लम्बी ऊंची नीची यात्राएं कर सकने में समर्थ पैर भी किसे मिले हैं? अन्य ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के संबंध में भी यही बात है। उनकी अपनी विलक्षण और अतिरिक्त क्षमता है। मानवी उपलब्धियों और सफलताओं में से प्रायः सभी इसी कारण बन पड़ी कि उसे अनुपम स्तर की शरीर संरचना मिली हुई है।

मन मस्तिष्क की क्षमता तो और भी अधिक विलक्षण है। उसमें सोचने की अनुकरण करने की स्मृतियां धारण किये रहने की अनुभवों की संस्कारों की एक से एक बढ़कर विशेषताएं उपलब्ध है। कल्पना शक्ति बौद्धिक प्रखरता एवं निष्कर्ष निर्धारण को इस स्तर का पाया जाता है। जिसकी उपमा अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलती। यदि मानसिक विलक्षणताओं से वह सम्पन्न न रहा होता तो एक से एक विशेषताओं से भरे पूरे प्राणी जगत में उसकी गणना मुकुटमणि स्तर पर न हुई होती। गज प्राह, सिंह जैसे जीव ही उसे पछाड़ देने के लिए पर्याप्त थे। वह पक्षियों की तरह उड़ने जलचरों की तरह तैरने में भी कहाँ समर्थ है। घोड़े और चीत जैसी दौड़ने की क्षमता भी उसमें कहाँ है? पौधों के भीतर घुसकर अपनी दुनिया बसाते और चलाते रहने वाले कृमि कीटकों जितनी क्षमता उसमें कहाँ है? इतना सब होने पर भी वह जिस कारण सृष्टि का मुकुटमणि कहला सका, वह उसकी मानसिक विलक्षणता ही है। उसी ने इस शोभा सज्जा से खचित बनाकर रख दिया है।

स्रष्टा ने यों किसी को भी असमर्थ नहीं छोड़ा है। क्या जड़ पदार्थ और क्या वनस्पति या प्राणि जगत् सभी को अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप प्रचुर मात्रा में क्षमता एवं दक्षता प्रदान की है। फिर स्रष्टा का युवराज कुमार ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उसके कंधों पर तो यह दायित्व भी लदा है। कि संबद्ध पदार्थों को सुनियोजित और प्राणियों को समुन्नतता बनाने के लिए भी वह सब करें जो स्रष्टा ने अपना कार्यभार हल्का करने के लिए मानव को सहयोगी के रूप में रचकर योजनाबद्ध रूप से निरूपित किया है। इन परिस्थितियों में उसे अधिक भारी दायित्वों का निर्वाह कर सकने वाला सिद्ध होकर अपनी वरिष्ठता की सार्थकता सिद्ध करनी चाहिए। उसका चिन्तन कौशल और क्रिया−कलाप ऐसा होना चाहिए जो उस सुव्यवस्था को अधिक सक्षम रख सके, जिसे नियति ने कण कण में समाविष्ट कर दिया है।

मनुष्य साधारण प्राणियों के बीच रहते हुए उन्हीं जैसा व्यवहार न अपना ले इसलिए तत्वदर्शियों ने उसके लिए अतिरिक्त प्रकाश प्रेरणा का निर्धारण किया हैं उसी के निमित्त तत्वज्ञान आत्मबोध दिशा निर्धारण एवं कर्तव्यपालन की दिशाधारा अपनाने वाली उत्कृष्टता बनाये रहने वाले प्रकाश प्रवाह का आविर्भाव किया है। इसी को अध्यात्म कहते है। धर्म धारणा भी यही है। कला के पीछे भी यही मर्म सन्निहित है कि उसकी भाव संवेदनाओं में अधिक सहृदयता और शालीनता का समावेश बना रहे।

छोटे बच्चे अक्सर गड़बड़ाते और लड़खड़ाते रहते है। उनकी चेष्टाएं अटपटी होती है। जो बोलते है वह भी अस्पष्ट असंबद्ध होता है। आवश्यकता की पूर्ति तो दूर वे उसकी अभिव्यक्ति भी दूसरों पर प्रकट कर सकने में समर्थ नहीं होते सर्दी गर्मी से बच सकने की विद्या तक उन्हें नहीं आती। मल-मूत्र तक को यथा स्थान त्यागने एवं उस गंदगी को दूर हटाने की प्रक्रिया तक उनसे नहीं बन पड़ती। ऐसी दशा में मनुष्यजन्म वरण कर लेने पर भी वह बचपन में भी स्थिति ऐसी ही बनी रहती है जिसे अपंगों एवं अनगढ़ों के स्तर की कहा जा सके। यह स्थिति कई वर्षों तक बनी रहती है और अभिभावकों के निखार सहयोग से धीरे धीरे सुधार परिष्कार की दिशा में चल पाती है। प्रौढ़ता तो किशोरावस्था को पार कर लेने के उपरान्त ही दृष्टिगोचर होती है। तभी वह इस योग्य बन पाता है कि अपनी क्षमता और जिम्मेदारी को ठीक तरह सकने तथा उसका निर्वाह भली प्रकार कर सकने में समर्थ सिद्ध हो सके। यह प्रत्यक्ष कलेवर का प्रगति क्रम हुआ।

अपनी चेतना क्षेत्र के पिछड़ेपन को सुसंस्कृति बनाने का प्रश्न सामने आता है जिसे सम्पन्न कर सकने में वह तत्वदर्शन ही समर्थ है जिसे शालीनता का पक्षधर अनुशासन कहा जाता है। सिविक सेन्स नीतिशास्त्र समाज शास्त्र मनोविज्ञान सभी मिलकर इसी की पूर्ति करते है। अध्यात्म और धर्म के विशालकाय ढाँचे को खड़ा करने वाले भी इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यकता ताना बाना बुनते रहे है। आस्तिकता आध्यात्मिकता धार्मिकता के नाम पर भी चेतना को इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। कि मनुष्य अनुशासन में स्वेच्छापूर्वक बंधा रहे जैसे कि पदार्थजगत और प्राणिजगत प्रकृति प्रेरणा के अनुबंधों में बाधित रूप से जकड़ा हुआ है।

मनुष्य को स्वतंत्र चिन्तन और स्वतंत्र रूप से क्रिया निर्धारण की छूट है। यह सुविधा और किसी घटक को नहीं मिली। ऐसी दशा में उसकी यह निजी जिम्मेदारी बनती है कि अपने को स्वयमेव नियति की अनुशासन व्यवस्था में बाँधे रहे। संयम इसी का नाम है। मानवी मर्यादाओं और वर्जनाओं के विशेष निर्देशों के अंतर्गत उसे यह प्रशिक्षण भी दिया गया है। कि अन्तः प्रकाश के आधार पर राजमार्ग को अपनाये रहे। भटकने ने पायें। पगडंडी ढूंढ़ने की आतुरता में कहीं कंटीले झाड़ झंखाड़ों में न जा फंसे। धर्मधारणाओं के आधार पर मनुष्य को अपने चिन्तन चरित्र और व्यवहार को शालीनता के अनुबंधों में बंधे रहने के लिए कहा गया है।

इसके बाद तत्व ज्ञान का उत्तरार्ध आरंभ होता है जिसे सेवा साधना के नाम से जाना जाता है। इसका विस्तार तो बहुत लम्बा है पर संक्षेप में इसे इस प्रकार कहा जा सकता है चिन्तन का उन्नयन और साधना का सुनियोजन यदि इस दिशा में सही निर्धारण के साथ चल सकना संभव हो सके तो मानना चाहिए कि पुण्य परमार्थ का सेवा साधना का वह प्रकाश पा लिया गया जो जीवन लक्ष्य की पूर्ति में पूर्णतया समर्थ है।

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