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Magazine - Year 1988 - Version 2

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एकान्त सेवन की तपश्चर्या

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दैनन्दिन जीवन की घटनाओं, सामाजिक परिवेश की कलह से उत्पन्न उद्वेगों के कारण जीवनी शक्ति बर्बाद होती है। इस बर्बादी को रोकने के लिए सत्पुरुषों ने प्रकृतितः शान्त वातावरण में निवास करने की सलाह दी है। इस बचत को उपयोगी प्रयोजनों में नियोजित कर प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है।

व्यक्तित्व विकास की साधना में रत साधक अपने अन्तराल की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण हेतु प्रयोग-प्रयास करते रहते हैं। उन्हें अपने इस प्रयोजन के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना पड़ता है जो मनः क्षेत्र में तनाव व उद्वेग उत्पन्न करने वाला न हो।

स्तब्धता व नीरवता यद्यपि विनोद मनोरंजन में बाधक बनती और ऊब उत्पन्न करती है-जिससे हर कोई बचना चाहता है। किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता दिन पर दिन अधिक साबित होती जा रही है। ध्वनि प्रदूषण, तनाव भरे वातावरण में निवास करने की शारीरिक और मानसिक हानियों को शरीर शास्त्री और मनोचिकित्सा विद् अनुभव करने लगे हैं। शान्त, एकान्त स्थान प्रत्येक दृष्टि से लाभदायक है।

निस्तब्धता एक बात है, अंधकार दूसरी। दोनों के सम्मिश्रण से तीसरी स्थिति बनती है। जो सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों ही दृष्टि से अपने अद्भुत परिणाम प्रस्तुत करती है। आयुर्वेद शास्त्र में कायाकल्प चिकित्सा का विधान है। उसमें शरीर के पुनर्गठन की नवीनीकरण की विद्या सम्पन्न की जाती है। इस विधान में भी लम्बे समय तक एकान्त और अंधेरे में रहना पड़ता है। औषधि उपचार के अतिरिक्त इस विशेष स्थिति का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है उसका महत्व अधिक माना गया है।

वैज्ञानिक, साहित्यकार, शोधकर्ता योगाभ्यासी प्रायः वैसी ही स्थिति तलाश करते हैं। भीड़-भाड़ के बीच उनका काम ठीक तरह हो ही नहीं पता। चिन्तन और मनन के लिए तो विशेष रूप से एकान्त की ही आवश्यकता पड़ती है। आत्मानुसंधान में निरत योगाभ्यासी प्रायः एकान्त स्थान में रहकर अपने प्रयोग सफलता पूर्वक सम्पन्न करते थे। अभी भी वैज्ञानिक अन्वेषणों के लिए प्रयोगशालाएँ ऐसे ही स्थान और वातावरण में बनी होती हैं, जहाँ बाह्य विक्षेपों का प्रभाव कम से कम पहुँचे।

निस्तब्धता की क्षमता दोनों ही प्रकार की है। शोर से अभ्यस्त लोगों के लिए वह बहुत ही कष्ट कर होती है, किन्तु जिनके अभ्यास में आ जाती है-सहन होने एवं रुचिकर लगने लगती है। उनके लिए एक वरदान का काम करती है। रात्रि के सुनसान अन्धेरे में हवा के पत्ते खड़कने, पक्षियों के बोलने के स्वर प्रारम्भिक स्थिति में डर उत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु उत्पन्न हुआ डर अपने आप से आता है। जब तक व्यक्ति भीड़ में खोया रहता है- तब तक स्वयं को सुरक्षित मानता है किन्तु एकान्त में जब उसे अपना दुर्बल स्वरूप देखने का अवसर मिलता है तो झाड़ी में भूत दिखाई देने लगता है, वह डर जाता है। इस स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए फिर भीड़ में घुसने की कल्पना या चेष्टा करता है।

साधना में एकाकीपन रहता है। अन्तर्मुखी होने की चेष्टा चलती है। पर यह चेष्टा सामान्य मनुष्यों के लिए कष्ट कर प्रतीत होती है। वे दुनिया की बहुत बातें सोच सकते हैं और साँसारिक समस्याओं पर काफी ऊहापोह कर सकते हैं किन्तु आत्मनिरीक्षण और आन्तरिक समाधान की बात सोचना और उस दिशा में कुछ आगे तक बढ़ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं हो पाता। इसी प्रकार वे भीड़ के साथ रहने और गपबाजी करने में घन्टों गुजार सकते हैं, पर अकेले थोड़ी देर भी बैठे नहीं रह सकते। आत्म संपर्क उनसे सधता ही नहीं। इसका विश्लेषण करते हुए मनोविज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, कि ऐसे व्यक्ति वे होते हैं जिनका मत अपने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अच्छा नहीं होता। वे उसे बुरा, पिछड़ा और घिनौना समझते हैं फलतः अपने साथ बैठने में उन्हें घृणा उपजती और नाराज होते हैं। जिस तरह गन्दे और अविश्वासी लोगों के पास बैठने को जी नहीं करता। आत्म चिन्तन से ऐसे ही लोगों का जी उचटता है और एकान्त में उन्हें ही डर लगता है।

इसके विपरीत यह देखा गया है कि एकान्त की स्थिति में कई व्यक्ति आत्म चिन्तन में तन्मय रहने लगे और अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को हटाने तथा विशेषताओं को बढ़ाने के लिए सुनिश्चित मार्ग ढूँढ़ निकालने में भी सफल हो गए। इस प्रकार यह स्तब्धता जहाँ अनभ्यस्त होने के कारण प्रारम्भ में तो अखरी, किन्तु थोड़े ही समय में वह न केवल सहन ही हो गई वरन् उपयोगी तथा रुचिकर भी लगने लगी।

साधनात्मक प्रक्रियाओं, उपासनात्मक प्रविधियों की असफलता का एकमात्र यही कारण है कि उनमें मात्र कर्मकाण्ड तक सीमित कर दिया है। इस तरह उनका प्रभाव कान, आँख, मस्तिष्क तक ही पहुँच पाता है। इन यन्त्रों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि किसी प्रभाव से देर तक प्रभावित नहीं रहते। इसलिए इनकी असफलता का रोना-रोना व्यर्थ है। अन्तः परिष्कार के लिए आवश्यक है कि अन्तःचेतना की गहरी परतों का स्पर्श और परिवर्तन कर सकने योग्य उपाय ढूँढ़ा जाय। इसके लिए एकान्त सेवन का बहुत महत्व है।

पश्चिमी देशों में “ब्रेन वाशिंग” नामक पद्धति का उपयोग किया जाता रहा है। इसका तात्पर्य है-मस्तिष्क की धुलाई-अर्थात् पूर्व मान्यताओं का बदलाव। इसमें एकान्त अंधेरी कोठरी में रखना उत्तम सिद्ध हुआ है। यद्यपि ब्रेनवाशिंग की प्रक्रिया महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि दूसरे के विचार किसी के ऊपर लादे जाते हैं। किन्तु इसका उपयोग अपने पूर्व संचित कुसंस्कारों को धोने तथा आत्म के दिव्यत्व से आलोकित होने के लिए किया जाय तो इसे औचित्यपूर्ण कहा जाएगा। योगियों का गुफा गमन ऐसा ही है। अरुणाचलम् के रमण और पाँडिचेरी के अरविन्द की साधनाओं को पूर्व काल का आधुनिकीकरण कहा जा सकता है। इस तरह की साधना गाजीपुर के फलाहारी बाबा, वाराणसी के तेलंग स्वामी, योगी गम्भीरनाथ, महाप्रभु जगत्- बन्धु ने भी सम्पन्न की है।

कनाडा के मनोवैज्ञानिकों ने इस अन्ध निस्तब्धता के समय कैसा अनुभव होता है, इसके परीक्षण किए हैं। इसके लिए ठीक ब्रेन वाशिंग में काम आने वाले जैसे कक्ष बनाए गए। उसमें बन्द किए जाने वाले लोगों ने बताया कि वहाँ भी उन्हें जोर-जोर की आवाजें सुनाई दी। सीटी, सरसराहट जैसे शब्द उनके कानों में आते रहे। बाद में अन्वेषण करने पर ज्ञात हुआ कि शरीर में होने वाला रक्त संचार, श्वास प्रश्वास जैसी हलचलों की ही प्रतिक्रिया थी। यही ध्वनि तरंगें उस कमरे में प्रतिध्वनित होती हैं। बन्दी उन्हें कहीं बाहर से आने वाली आवाजें समझता है।

इन कमरों में पहुँचने वालों ने अपने अनुभव में कहा कि पहले वह गहरी नींद में सो गए लगभग चालीस घण्टे सो लेने के बाद उनकी आँख खुली। जगने पर पूर्व की तुलना में अधिक चेतना और ताजगी का अनुभव हुआ। कइयों ने नशेबाजी जैसी आदतों को अपनी अन्तःप्रेरणा से त्याग दिया। कई अपने प्रिय विषयों पर मनन चिन्तन कर महत्वपूर्ण नतीजे पर पहुँचने में सफल हो गए।

एकान्त सहन का प्राथमिक अभ्यास कठिन अवश्य है किन्तु साधनात्मक प्रयोजनों के लिए इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। गीतकार ने अठारहवें अध्याय में “विविक्तसेवीलघ्वाशी- यत्वाक्कायमानस” के सूच में एकान्त सेवन को प्रथम स्थान प्रदान किया है। इसके अभ्यास से मनोबल बढ़ता है साथ ही व्यक्ति अन्तराल की गहराइयों में उतरने योग्य हो जाता है।

पूर्ण एकान्त का लाभ अधिक समय तक न मिले तो यथा सम्भव यह प्रयत्न करना चाहिए कि इसका अधिक से अधिक लाभ उठाया जाय। इस तरह मान को भीड़-भाड़ के विचारों से हटाकर आध्यात्मिक भाव पर नियोजित करने की ध्यान-धारणा को किसी न किसी रूप में क्रियान्वित करते रहना चाहिए।

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