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Magazine - Year 1988 - Version 2

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योगत्रयी का मर्म एवं विधि व्यवस्था

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यह विश्व प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी। इसका कुछ अंश दृश्यमान है कुछ अदृश्य पेड़ पौधे जीव जन्तु पदार्थ हमें प्रत्यक्ष दीखते या माध्यमों की सहायता से अनुभव में आते है। पर कुछ ऐसे है। जिन्हें देखा नहीं जा सकता उनके प्रभाव को देखकर ही मूल सत्ता का अनुमान लगाया जाता है। परमाणु के सूक्ष्म घटक रेडियो कंपन प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होते उनकी हलचलों प्रतिक्रियाओं को देखते हुए वस्तुस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। आत्म और परमात्मा तक का स्वरूप वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर वास्तविक सिद्ध नहीं हो सका है। फिर भी प्रायः सभी बुद्धि जीवी यह विश्वास करते हैं कि बिना किसी बनाने वाले के इतना बड़ा और सुनियोजित ब्रह्माण्ड नहीं बन सकता है उसकी गतिविधियां ऐसा क्रमबद्ध तारतम्य नहीं रह सकता जब घर के थोड़े से बर्तन हमेशा आपस में टकराते और आवाज करते रहते हैं तो इतने ग्रह नक्षत्र अपनी धुरी और कक्षाओं में नियमित गति और रीति में किस प्रकार चलते घूमते रह सकते है। अनुमान तर्क तथ्य और प्रमाण के आधार पर भी विश्वास तक पहुँचा जा सकता है। वह प्रत्यक्ष की भूमिका निभा सकता है।

ज्ञानयोग का तात्पर्य अनेक जानकारियों का संग्रह करके विद्वता या बुद्धि बढ़ा लेना नहीं वरन् यह है कि स्व के स्वरूप उद्देश्य एवं दायित्व की अनुभूति अन्तरंग को होने लगे मनुष्य शरीर नहीं अविनाशी आत्मा है शरीर तो उसका आवरण आच्छादन है जबकि भ्रमवश अपने आपको काया ही समझा जाता है। और उसी की इच्छाएं पूरी करने के लिए वासना तृष्णा और अहंता में निरत रहा जाता हैं लोभ मोह और अहंकार के निमित्त चिन्तन और कर्म में निरत रहा जाता है होना यह चाहिए कि आत्मबोध आत्म निरीक्षण आत्म सुधार आत्म निर्माण और आत्म विकास की योजनाएं बने आत्म उत्कर्ष को आत्म परिष्कार को आत्म कल्याण को शरीरगत लिप्सा लालसा की तुलना में अधिक महत्व दिया जाये। चिन्तन चरित्र और व्यवहार में अन्तर्मुखी होकर जिया जाये।

कर्म-योग का अर्थ है मानवी गरिमा के अनुरूप ही कर्तव्य को समझा जाये ओर मर्यादाओं का अनुशासन पाला जाये। वर्जनाओं का उल्लंघन तो नहीं हो रहा इसका ध्यान रखा जाये अन्य प्राणी नीति नियमों में बंधे हुए नहीं है। वे किसी का भी खेत चर सकते हैं किसी भी मादा से पत्नीवत यौनाचार कर सकते हैं भले ही वह माता भगिनी या पुत्री ही क्यों न हो उन्हें उचित अनुचित का ज्ञान भी नहीं होता न जिम्मेदारी की अनुभूति। इन्द्रिय प्रेरणा ही उनका मार्ग दर्शन करती है। भय के अतिरिक्त वे स्वेच्छा पूर्वक किसी प्रकार का ऐसा अनुशासन नहीं बरतते जो मनुष्यता की परिधि में प्रवेश करते ही अनिवार्य रूप में आवश्यक हो जाता है।

मनुष्य यों स्वतंत्र है। उसे न तो रस्सों में बाँधा जाता है और न लगाम नकेल अंकुश आदि बंधनों से जकड़ा जाता है फिर भी वह वैयक्तिक गरिमा परिवारगत सहकार समाज के अनुबंधों में जकड़ा हुआ है देश धर्म समाज और संस्कृति के प्रति अति प्रभावी और नीति सदाचार के प्रति वफादार रहना पड़ता है। अनुबंधों को स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार करना पड़ता हैं यही कर्मयोग है। जिम्मेदारियों को कड़ाई से प्रतिपालन करते हुए संतुष्ट और प्रसन्न रहा जाता है। भले ही प्रयत्नों का इच्छित परिणाम उपलब्ध हो या न हों।

भक्तियोग में स्वभाव स्नेह सद्भाव से सना हुआ रखना पड़ता है। भक्ति ईश्वर की या देवता की करते लोग देखे जाते हैं पर यह नहीं समझ पाते कि ईश्वर या देवता की भक्ति का वास्तविक स्वरूप क्या है? प्रत्यक्ष ब्रह्म यह विराट विश्व ही है उसी की सेवा साधना से भक्ति चरितार्थ हो सकती है। देवता प्रतिमा को नहीं देवत्व को कहते है। प्रतिमा तो उसका प्रतीक चिह्न मात्र है। उसे धूप दीप नैवेद्य अक्षत पुष्प चढ़ा देने भर से देवत्व का परिपोषण अभिवर्धन में ही बन पड़ता है।

भक्ति का अर्थ है सेवा भजन भज धातु से बनता है उसका अर्थ पुण्य परमार्थ ही हो सकता है। इस निमित्त मन को ढालने के लिए जप कीर्तन सहायक हो सकते है। किन्तु इतने भर से ही देवता की अनुकम्पा नहीं मिल सकती और न अन्त करण में आनन्द उल्लास का उद्भव हो सकता है। भक्ति की नवधा क्रिया पद्धति में प्रतिमा का पूजा अर्चा के लिए मनुहार उपहार भर पर्याप्त नहीं देवत्व आत्मा है और देव प्रतिमा उसका प्रतीक चिह्न प्रतीक बालबोध के निमित्त विनिर्मित किये जाते है उन्हें देखकर मूल तत्व का स्मरण उसी प्रकार किया जाता है जैसे कि चित्र को देखकर किसी हितैषी संबंधी का स्मरण हो आता है। चित्र देख कर उल्लसित होने में मूल व्यक्ति के प्रति अपनी स्मृतियों में समाविष्ट सद्भावना को सजीव करना हैं देवता कोई व्यक्ति नहीं हैं आदर्शों को ही देव कहते है जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता का परिपालन करता है वही देव उपासक है। जिसके मन में यह भ्रम समाया हुआ है।

भक्ति का सीधा अर्थ है स्नेह सद्भाव वह सर्वप्रथम अपने कर्तव्यों और दायित्वों में किया जाता है। इसके अतिरिक्त लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति संवर्धन को ध्यान में रखा जाता है। इन प्रसंगों में किया गया पुण्य परमार्थ ही वास्तविक भक्ति हैं इन प्रयोजनों के लिए शौर्य पराक्रम साहस का भी प्रदर्शन करना पड़ता है। और आवश्यकता पड़ने पर अनीतियों कुरीतियों से संघर्ष भी करना पड़ सकता है। भक्ति का दायर चापलूसी अपनाने से उसकी पूर्ति नहीं हो सकती छुटपुट आत्म परिष्कार और लोक मंगल के लिए उदारता और सेवा साधना करने के लिए आवश्यकता पड़ती है।

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