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Magazine - Year 1989 - Version 2

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संकल्पशक्ति कुंजी है— प्रगति-पुरुषार्थ की

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14 अगस्त, 1964 का दिन था। अमेरिका के साहित्य-जगत की एक उभरती प्रतिभा नारमन कजिन्स को अनायास ही एक ऐसी व्याधि ने अपने पाश में जकड़ लिया, जिसका कोई उपचार न उन दिनों चिकित्सक के पास था, न आज है। वह थी हड्डियों के बीच के कार्टिलेज की डिजेनरेटीव व्याधि, जिसने उन्हें 24 घंटों में बिस्तर पर लेटने को विवश कर दिया। एक सप्ताह में सभी जोड़— संधियाँ ऐसे जकड़ गए कि वे पीड़ा में कराहने लगे, निद्रा कोसों दूर भाग गई एवं जोड़ लगभग बँध से गए।

चिकित्सकों के समझाने के बावजूद कि इसका कोई उपचार नहीं है, वे पीड़ानाशक व मांसपेशियों के तनाव को कम करने वाली औषधियाँ लेते रहे, यदि कष्ट अधिक न हो तो मालिश करने दें, वे यह मानने को राजी नहीं हुए कि उनकी व्याधि असाध्य है। अब वे बिस्तर से उतर नहीं सकेंगे व जीवन भर—  जो अधिक लंबा नहीं है, ऐसी ही स्थिति रहेगी। उन्होंने अपने चिकित्सकों से दृढ़ मनोबल के साथ कहा कि, “मैं जल्दी हार मानने वाला नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि यह बीमारी एड्रीनल ग्रंथि के रसस्राव क्षीण हो जाने से हुई है। यदि तनाव व शारीरिक दबाव ऐसा कर सकता है, तो क्यों पुनः विधेयात्मक भाव-तरंगों द्वारा एड्रीनल को प्रभावितकर इन्हीं हारमोन्स को उत्सर्जित करना संभव नहीं हो सकता?” उनके तर्क में दम तो था, पर ऐसा कभी कोई कर पाया हो, ऐसा कोई केस चिकित्सकों के पास नहीं था। उन्होंने कहा—  "यदि आपकी इच्छाशक्ति इतनी ही प्रबल है तो कोशिश कर देखें।"

कजिन्स की मान्यता थी कि पॉजेटिव इमोशन्स, प्रसन्नता की—  प्रफुल्लता की भावना, हल्का-फुल्का मस्ती भरा जीवन जीने की आकांक्षा द्वारा पाॅजिटिव विद्युत धाराओं को शरीर में दौड़ा सकना संभव है। यदि भावनात्मक स्थिति को पलटा जा सकता है, तो एड्रीनल ग्रंथि की कार्यपद्धति को उलटना क्यों संभव नहीं है, जो कि तनाव, अवसाद के लिए उत्तरदायी मानसिक हारमोन्स का रसस्राव करती है। उन्होंने सोचा कि हँसी—  उन्मुक्त हँसी, खुले दिल से हँसी ही दूसरी श्रेष्ठ चिकित्सा है। 'कैंडिड कैमरा' नामक एक हास्य धारावाहिक उन्होंने उसी दिन अपने टीवी पर देखना आरंभ किया एवं हँसी में साथ देने के लिए अपने समस्त मित्रों को भी आमंत्रित किया। इस प्रयोग के बाद 10 मिनट की हँसी ने उन्हें दो घंटे की पीड़ामुक्त नींद में सुला दिया। अब वे अस्पताल से घर पहुँच गए, जहाँ वे स्वतंत्रता से कॉमिक मूवीज, टेलीविजन प्रोग्राम देख सकते थे तथा हास्यप्रधान चुटकुलों की पुस्तकें पढ़-पढ़कर खुद ही हँसते रह सकते थे। इस प्रयोग के 9 दिन बाद उनके एक अँगूठे, घुटने से दरद गायब हो गया व बिना दवा के वे 5 से 6 घंटे सोने लगे। तीन सप्ताह बाद चिकित्सकों ने उन्हें प्यूर्टोरिको के समुद्री बीच पर व्यायाम करते पाया। उनके एक्सरे किए गए, पता चला कि ऊतक नए सिरे से बनने लगे हैं। 4 माह बाद वे साइकिल चलाते हुए स्वस्थ स्थिति में कार्यालय आए। उनने बाद में अपने संस्करणों में लिखा कि, “मेरी जिजीविषा”—  जीने की अदम्य आकांक्षा ने मुझे हँसने व विधेयात्मक चिंतन के लिए प्रेरित किया व इसी ने असंभव को संभव कर दिखाया। इच्छाशक्ति से मैंने शरीर की रसायन-प्रक्रिया को बदल डाला। वस्तुतः जीवन जीने का नाम है व जीने के लिए जरूरी है—  संकल्पशक्ति, जो किसी भी अवरोध से जूझ सकती है।”

यह एक उदाहरण है, एक ऐसे व्यक्ति का, जिसने अपनी स्वयं की इच्छाशक्ति का सुनियोजनकर अपनी असाध्य व्याधि से मोर्चा लिया एवं एक कुशल सैनिक की भाँति जीतकर दिखाया। वस्तुतः इच्छाशक्ति के साथ प्राणि-समुदाय की प्रगति का इतिहास जुड़ा है। एककोशीय अमीबा के रूप में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। एक से बहुत होने की परब्रह्म की आकांक्षा को वह जीव अपने व्यवहार में उतारता गया। वह न केवल अपने को खंडित करते-करते एक से बहुत हुआ, वरन उसने अपनी आकृति-प्रकृति में भी बढ़ोतरी आरंभ कर दी। अनेक जलचरों की सृष्टि इसी क्रम में हुई। इतने पर भी प्रगतिक्रम रुका नहीं। वे जलचर ही क्रमशः थलचर और नभचर की स्थिति में विकसित, परिवर्तित होते गए। वह क्रम मनुष्य की सर्वांगपूर्ण सत्ता तक जा पहुँचने तक चलता चला आया। इतने पर भी उस उपक्रम का अंत नहीं हुआ। मनुष्य, वनस्पति और प्राणि जगत का भाग्यविधाता कहा जाता है। अब उसने प्रकृति का अधिष्ठाता बनने की बात भी ठानी है। वैज्ञानिक शोधों की प्रक्रिया इसी कारण तीव्र-से-तीव्र होती चली जा रही है। यह संकल्पशक्ति का चमत्कार है।

जिनकी मनोदशा चेतना-क्षेत्र की ओर मुड़ी, उनने धर्म का, दर्शन का, अध्यात्म का, परलोक का, देवी-देवताओं तक का सृजन कर डाला, अतींद्रिय क्षमताओं से संपन्न होकर सिद्धपुरुष बने और ऋषि-सिद्धियों के रूप में अपनी विभूतियों का परिचय देने लगे। जनसामान्य के मार्गदर्शन के लिए अपनी सूझ-बूझ को समग्र जताने लगे। आदिम मनुष्य और आज के विकसित व्यक्ति की तुलना की जाए तो जमीन-आसमान जैसा अंतर प्रतीत होगा। इस प्रगति के मूल में सदा से एक ही तत्त्व काम करता रहा है और वह है— उत्कंठा से, जिज्ञासा से भरा-पूरा संकल्पबल। उसके अभाव में प्राणि जगत की प्रगति का कोई आधार ही न बन सका होता। सभी नर-वानरों की तरह किसी प्रकार शरीर-रक्षा के साधन जुटाने भर तक सीमित होकर रह गए होते। अभी भी वन्य प्रदेशों में पाए जाने वाले कबीलों की स्थिति ऐसी ही है। उनके सामने कोई ऐसा उद्देश्य या कार्यक्रम नहीं होता, जिसे अपनाकर अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति तक पहुँचा जा सके। यही कारण है कि वे आदिम युग के वनमनुष्य की तुलना में बहुत थोड़ी ही प्रगति कर सके हैं। उत्तरी ध्रुव पर बसे एस्किमो लोगों के रहन-सहन को देखकर इस तथ्य को भली प्रकार समझा जा सकता है कि इच्छाशक्ति का अभाव कितनी कठिन परिस्थितियों में भी यथावत् बने रहने के लिए बाधित किए रहता है।

मनुष्य ने भाषा और लिपि के अभिनव आधार खड़े करके परस्पर विचार-विनिमय का द्वार खोला। यह उपलब्धियाँ अनायास ही हस्तगत नहीं हो गईं, वरन इसके लिए पीढ़ियों तक समझदार लोग भरपूर प्रयत्न करते रहे। यदि उस संबंध में उत्सुकता न उमड़ी होती, तो मनुष्य भी अन्य वानर जातियों की तरह किसी प्रकार थोड़े संकेतों और शब्दों के सहारे पारस्परिक संबंधों को मात्र चला सका होता। आग का आविष्कार, पहियों का विज्ञान, वस्त्र निर्माण, आच्छादन, पशुपालन अपने युग की जिज्ञासाओं से उभरे पुरुषार्थ भरे कृत्य थे, जिनने आज की प्रगति का पथ-प्रशस्त किया।

निषेध अनुपयुक्त कल्पनाओं, जल्पनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं का ही किया गया है, क्योंकि उन्हीं के कारण मनुष्य का बहुमूल्य समय, श्रम, कौशल बरबाद होता रहता है। वे ही कुमार्ग पर भटकातीं और अनेक संकटों को खींचकर बुलाती हैं। श्रेष्ठ इच्छाएँ-आकांक्षाएँ तो न केवल आवश्यक हैं, वरन श्रेयस्कर भी हैं। वेदांत दर्शन के प्रथम सूत्र में जिज्ञासा को सद्ज्ञानसंचय का प्रथम और प्रमुख उपाय माना गया है। जिस प्रकार ज्ञानसंचय में जिज्ञासा की प्रमुख भूमिका होती है, उसी प्रकार इच्छा-आकांक्षाओं की अभीष्ट प्रसंगों की दिशा में बढ़ चलने का प्रमुख आधार माना गया है। संकल्प का भारतीय संस्कृति के कर्मकांडों में प्रथम और प्रमुख स्थान है। किसी भी धर्मकृत्य में सर्वप्रथम संकल्प पढ़ा जाता है। यदि यही संकल्प जीवंतरूप में जीवन में उतर आए तो असंभव को संभव कर दिखाने वाला पुरुषार्थ परिणति रूप में दृष्टिगोचर होता है। आत्मक्षेत्र में लागू किए जाने पर यह न केवल गहरी घुसी दुष्प्रवृत्ति को निकाल बाहर करता है, वरन असाध्य मानी जाने वाली किसी व्याधि से भी मुक्त करने योग्य आत्मबल भी जुटा सकता है। परमाणु नाभिक की तरह अपने अंदर असीम सामर्थ्य संजोए हुए है— संकल्पशक्ति, आवश्यकता मात्र जगाने भर की है।

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