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Magazine - Year 1989 - Version 2

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परस्पर जुड़े हुए हैं अंतःकरण एवं पर्यावरण

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'मनुष्य और प्रकृति' दोनों ही शब्दों में निहित गूढ़ भाव प्रारंभ से ही मनीषियों के लिए चिंतन का विषय रहे हैं। पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों में उस पर व्यापक शोधनात्मक चिंतन हुआ है। पूर्व विशेषतया भारत में जहाँ ये अध्येता, ऋचाओं व श्रुतियों के दृष्टा ऋषि तथा दर्शनकार मनीषी रहे हैं, वहाँ इस क्षेत्र में पश्चिम में प्लेटो, एपीक्यूरस हेगल, ब्रॅडले, बर्गसाॅ, लाइ बिलित्ज, बोंसाके स्पेंसर जैसे चिंतकों का विश्वविख्यात समूह रहा है।

वर्त्तमान समय में इस शोध की एक अन्य धारा निःसृत हुई है, जिसे वैज्ञानिक चिंतन की धारा कहा जा सकता है। गंभीरता से अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि इसके अध्ययन का विषय भी मनुष्य और प्रकृति ही है। विज्ञानविदों ने अपनी शोध को मानवी काया तथा इसकी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रकृति के विभिन्न घटकों पर केंद्रित किया है।

इस त्रिविध शोधात्मक स्वरूपों का तुलनात्मक विवेचन करने पर उद्घाटित तथ्य प्रकट करता है कि प्राच्य ऋषियों के अध्ययन में मनुष्य की परा-प्रकृति (जीवसत्ता) एवं अपरा-प्रकृति के सूक्ष्म एवं स्थूल संबंधों पर व्यापक चिंतन करके, प्रकृति के विकासक्रम को पूर्ण करके इससे उर्ध्व स्तरों पर आरोहण का निर्देश दिया गया है। पश्चिम का दार्शनिक चिंतन उर्ध्व स्तरों की चर्चा न कर मात्र मानव तथा प्रकृति के संबंधों को सूक्ष्म व स्थूल स्तर पर लेता है, जबकि आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन में इन संबंधों का दायरा केवल स्थूल स्तर तक ही सिमट जाता है।

अध्ययन के इस क्रम में प्राप्त लक्ष्यों पर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि प्राच्य ऋषियों का उद्देश्य बाह्य प्रकृति से अंतःप्रकृति में प्रवेशकर तथा उसे पारकर आनंद पाना था। पश्चिमी दार्शनिकों में से अधिकांश का लक्ष्य बाह्य प्रकृति के साथ अंतःप्रकृति का संबंध स्थापितकर अंतरण में रमणकर सुख की प्राप्ति था। जबकि आज वैज्ञानिक चिंतन में यह लक्ष्य बाह्य प्रकृति से अधिकाधिक उपलब्धकर मात्र उसका उपयोग करना रह गया है।

भोग की इसी प्रवृत्ति ने शोषण का क्रम प्रारंभ किया। इस क्रम के अनुसार प्रकृति के प्रत्येक घटक को जिस किसी तरह निचोड़ लेना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। विज्ञानविद् जो अन्य प्राणियों का अध्ययन करते समय सहजीवन प्रणाली की सराहना करते हैं, स्वयं परजीवी बनने की प्रेरणा देने लगे हैं। इसमें दोषी कोई व्यक्ति अथवा समाज का अंग विशेष नहीं है, अपितु चिंतन की अपूर्णता तथा मानव व प्रकृति के मध्य पारस्परिक संबंधों को न समझ पाने की विवशता है।

निर्वनीकरण, औद्योगीकरण, भू-गर्भ के साधनों का उत्खनन, भू-क्षरण, जनजीवन में अस्त-व्यस्तता, आधुनिकता की दौड़ ने जहाँ अचिंत्य चिंतन को बढ़ावा दिया है, वहाँ मनुष्य को प्रकृति से पृथक्कर एक व्यापक असंतुलन भी पैदा कर दिया है। इससे प्रदूषणजन्य शारीरिक रोगों में तो बढ़ोतरी हुई ही है, अप्रत्यक्ष रूप से मनोविकारग्रस्त रोगियों की संख्या में करोड़ों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है। 'द स्ट्रक्चर ऑफ साइंटिफिक रेवाॅल्युशन' एवं 'सायकिएट्री एंड इट्स क्रिटीक्स' जैसे शोधग्रंथों के विद्वान लेखक एम॰ रुथने बढ़ती हुई मनोरोगों की दर के लिए पर्यावरण की गड़बड़ियों को जिम्मेदार माना है। इन अध्येताओं के साथ कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय के मनःशास्त्री डाॅ इग्लेवी की भी यह मान्यता है कि पर्यावरण के साथ मनुष्य का प्रगाढ़ भावनात्मक संबंध है। दोनों ही एकदूसरे से सूक्ष्म रूप से जुड़े हुए हैं।

पर्यावरण में विघटन का तात्पर्य है— अंतःकरण में विघटन। इस विघटन को मनोविद् फ्रस्ट्रेशन का नाम देते हैं। 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन' के प्रवक्ता मनोविद् डाॅ. बी.आर. शर्मा उपरोक्त तथ्य का स्पष्टतया समर्थन करते हुए अपनी कृति 'फ्रस्ट्रेशन-रिएक्शन्स ऑफ गवर्नमेंट एक्जीक्यूटीव्स' में कहते हैं कि, "फ्रस्ट्रेशन अर्थात आशाभग्नता का स्पष्ट कारण पर्यावरण संबंधी विकृति है।" इसको और अधिक सुस्पष्ट करते हुए येले विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जे. डौलार्ड, एल. डब्ल्यू. डोस, एन.ई. मिलर एवं ओग्मोरर ने अपने संयुक्त अध्ययन 'फ्रस्ट्रेशन एंड एक्शन' में कहा है कि, "यह भग्नता व्यक्ति को आक्रामक बनाती है। यह आक्रमकता ही हिंसा में वृद्धि करती है।"

मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि पर्यावरण के विघटन के कारण हुआ अंतःकरण का विघटन अपनी अभिव्यक्ति द्विविध रूपों में कर सकता है। प्रथम तो यह कि अंतःकरण के विघटन का ज्वालामुखी, व्यक्ति के अंतःकरण को नष्ट करने के साथ बाहर उभरकर दूसरों को चपेट में ले ले। हिंसा आदि की अधिकांश घटनाएँ प्रायः उपरोक्त कारण की उपज होती हैं। द्वितीय यह कि इस विघटन में व्यक्ति अंदर-ही-अंदर घुटता हुआ अपने को नष्ट करता रहे। व्यवहार विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा व्यक्ति हिंसा भले न करे, किंतु वह पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर टूटने के साथ स्वयं अपने से भी टूट जाता है। इन दोनों में कौन प्रकार— किस व्यक्ति में कैसे व कब घटित होगा? वह व्यक्ति की अंतःकरण की संरचना तथा निकटस्थ पर्यावरण के विघटन की स्थिति पर निर्भर करता है।

विघटन की इस स्थिति को डाॅ. इशप्रोग्राफ तथा अन्य मनःशास्त्रियों ने एक नाम और दिया है 'डिसईंटेग्रेशन ऑफ पर्सनालिटी' अर्थात व्यक्तित्व का विघटन। डाॅ. हाइसेनवर्ग ने 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वर्ल्ड कल्चर' से प्रकाशित अपनी कृति 'साइकोलॉजिकल इन सिक्यूरिटी इन माडर्न मैन' में इस स्थिति की गंभीरता स्पष्ट करते हुए कहा है कि, "यह विघटन ही मनुष्य के मानवी समाज में व्याप्त अनिश्चितता एवं अनास्था के माहौल का कारण है।"

इन मनोवैज्ञानिकों ने बताया है कि संक्रामक रोग की तरह जनमानस में फैल रहा विघटन फ्रायड द्वारा बताई गई कामुक वासनाओं के दमन के कारण नहीं, अपितु पर्यावरण तथा अंतःकरण के संबंधों को विस्मृत करने तथा पर्यावरण में विघटन उत्पन्न करने के ही कारण है। इस विघटन के कारण में मनोविद् मनुष्य की संकीर्ण स्वार्थपरता की भावना को मुख्य मानते हैं। इस तरह की समाजगत, समूह स्तर पर पाई जाने वाली भावना को डब्ल्यू. एलन. वाट्स साइको थैरेपी ईस्ट एंड वेस्ट में मोशियोसेस्ट्रिक अर्थात मनुष्य समाज का अपने ही दायरे में संकुचन नाम देते हैं।

इस स्थिति पर गंभीरता से विचार करते हुए मनीषी चिंतक पाॅल टिलिच कहते हैं कि, "वर्त्तमान समय में मनुष्य जीवन के मूल्यों को भुला बैठा है। उसने उथलेपन के चक्कर में गहराई के आयाम को गँवा दिया है। आज मनुष्य, चिंतन के इस एकांगीपन के कारण ही संव्याप्त रिक्तता को उथले साइंटिज्म के द्वारा भरने का प्रयास कर रहा है; किंतु यह प्रयास पूर्णता के स्थान पर रिक्तता को ही बढ़ाते जा रहे हैं। इस रिक्तता में तनाव, विघटन, अनिश्चितता— जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में 'एन्क्जायटी कांप्लेक्स' भी कह सकते हैं, डेरा जमाए है। किसी स्थिति में ये निकलने का नाम नहीं लेते।"

इटेलियन मनोअध्येता फ्रांको वासाग्लिया अपनी कृति 'द इंस्टीयूजीएने नेगेटा' में स्पष्ट करते हैं कि वर्त्तमान में मनोरोगों की नैदानिक पद्धति तब तक असफल व व्यर्थ सिद्ध होगी, जब तक 'प्रज्ञा अपराध' नाम से जानी जाने वाली इस व्याधि के मूल कारण का निवारण नहीं किया जाता। आयुर्वेद का ऋषि कहता है— निवारण व उपचार एक ही है, पर्यावरण व अंतःकरण के संबंधों की पुनर्स्थापना।

इसके बिना प्रगति के सभी द्वार अवरुद्ध ही पड़े रहेंगे। डीप इकॉलाजी का प्रतिपादन करने वाले कहते हैं कि समय आ गया है कि अब व्यक्ति के चिंतन को मोड़कर समाज के हित-साधन की दिशा में चलने के लिए बाधित किया जाए। समाज का हित पर्यावरण की रक्षा में है एवं पर्यावरण स्वस्थ है तो व्यक्ति भी स्वस्थ रहेगा। मानव जाति को भटकने से, महाविनाश से बचाना है तो यही एकमात्र उपचार अब बचा है।

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