Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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सूक्ष्मजगत— प्रकृति और पुरुष के रूप में
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आमतौर से संसार उतना ही बड़ा दीखता हैं, जितना कि वह इंद्रियों या उपकरणों के सहारे अनुभव में आता है। उतने को ही सब कुछ समझा जाता है। उतने से ही संपर्क रखा जाता है। ध्यान रखने और व्यवस्थित करने के लिए भी उतने को ही पर्याप्त माना जाता है, पर वह उतना सीमित है नहीं, जितना कि मोटी समझ बताती है।
शरीर प्रत्यक्ष है, इसलिए उसी की आवश्यकता, व्यवस्था एवं सज्जा के लिए उपाय बरते जाते हैं। मन, बुद्धि, चित्त आदि के चेतना-पक्ष अदृश्य हैं, इसलिए उनके संबंध में कुछ सोचने में, व्यवस्था बनाने में उपेक्षा बरती जाती रहती है। इसे अदृश्य की अवमानना भी कह सकते हैं।
पानी-मिट्टी से रोज ही वास्ता पड़ता है, पर यह कभी ध्यान भी नहीं आता कि उनमें विद्यमान रसायन एवं जीवाणु हमारे लिए कितने उपयोगी-अनुपयोगी भूमिका निभाते हैं।
आकाश में तारे, सूर्य, चंद्र या बादल भर दीख पड़ते हैं, पर उस परिवार में जीवनतत्त्व का अनंत शक्तिस्रोतों का प्रवाह चलता है। यह विशेषज्ञों के अतिरिक्त सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आता। अंतरिक्ष में बहती रहने वाली हवा का ऑक्सीजन भाग ही जीवधारियों का जीवन-प्राण है। वह न रहे या घट जाए तो दम घुटने से सभी का प्राणांत हो जाए। जीवन अन्न-जल पर निर्भर माना जाता है, पर वस्तुतः उसका उद्गम-स्रोत आकाश है, जो मात्र नीली पोल भर प्रतीत होता है।
रेडियो तरंगें, एक्सरे, अल्फा, अल्ट्रासोनिक, लेजर आदि किरणों-तरंगों का आकाश में साम्राज्य है। वे ईश्वर के ब्रह्मांडव्यापी महासागर में क्रीड़ा-कल्लोल करती रहती हैं। पृथ्वी इसलिए जीवधारियों से और वनस्पतियों से सुसज्जित बन सकी कि उस पर सौर-ऊर्जा संतुलित परिमाण में आती है, यदि ऐसा न होता तो समीपवर्त्ती होने पर वह भी बुध की तरह आग का गोला बन जाती अथवा दूरी अधिक होने पर प्लूटो की तरह अतिशीतल-निस्तब्ध बनकर रह गई होती। पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उसे वस्तुतः अंतरिक्ष का अनुदान ही माना जा सकता है।
सूर्य ही नहीं, ब्रह्मांडव्यापी घटकों से भी पृथ्वी को कुछ-न-कुछ उपहार निरंतर मिलता रहता है। पृथ्वी और सूर्य को यदि माता-पिता माना जाए तो अन्य ग्रह-नक्षत्रों को चाचा-ताऊ, भाई-भतीजा, नाना आदि मानकर चलना होगा, जिनका दुलार, सहयोग एवं अनुदान भी कम मूल्यवान नहीं होता। इतने पर भी कितने यह समझ पाते हैं कि अपने पुरुषार्थ के अतिरिक्त अपने वैभव-सौभाग्य में कोई और भी साझीदार है।
अदृश्य जगत की विशालकाय सत्ता है। उसकी तुलना में पृथ्वी तो एक छोटी मछली के समान है। समुद्र का पानी जब तक सही स्थिति में है, तभी तक मछली का भी अस्तित्व है, अन्यथा विपरीत स्थिति आने पर उसके लिए तो महाप्रलय ही आ खड़ी होगी। अंतरिक्ष और पृथ्वी के बीच उपयुक्त तालमेल बना रहे, इसकी भूमिका उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव निभाते हैं। जो भला-बुरा पृथ्वी पर आकाश से निरंतर बरसता रहता है, इसमें से उपयोगी अंश उत्तरी ध्रुव की छलनी छानकर रख लेती है और शेष कचरे को दक्षिणी ध्रुव में होकर फिर उसी अनंत गह्वर में धकेल देती है। प्रकृति-संपदा का इसी प्रकार आदान-प्रदान होता रहता है। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि जीवन पृथ्वी की अपनी उपज नहीं है। वह किसी अन्य विकसित ग्रहपिंड से यहाँ संयोगवश आ उतरा है। मनुष्य भटका हुआ देवता इसी आधार पर कहा जाता है। यह प्रकृति-परिकर में जड़-जीवन की चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त 'चेतन' का एक और पक्ष है, जिसे जड़-जगत से असंख्य गुना महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। कोई शरीर कितना ही समर्थ व सुंदर क्यों न हो, पर उसकी समस्त गतिविधियाँ अदृश्य स्तर की मानसिक चेतना के माध्यम से ही संचालित होती है। उसके मूर्छित हो जाने पर शरीर गहरी प्रसुप्ति में चला जाता है और बड़े परेशान होने पर भी कुछ पता नहीं चलता। यदि प्राण निकल जाए तो प्रौढ़ शरीर के लिए हिलना-डुलना तो दूर, कुछ समय भी लाश का अस्तित्व बनाए रहना संभव न हो सकेगा। कीड़े-कौवे ही उसका सफाया कर देते हैं। इस दुर्गति से बचाने के लिए ही उसे मिट्टी में दबाने या आग में जलाने का उपक्रम किया जाता है। शरीर का सब कुछ दृश्य प्रतीत होता रहने पर भी वस्तुतः वह प्राणशक्ति की कठपुतली भर है। जो शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अपनी सत्ता किसी-न-किसी रूप में बनाए रहती है और परलोक आदि में भ्रमण करती हुई नया जन्म धारण करती है। उसे अनादि-अनंत और अजर-अमर भी कहा गया है। महत्ता उसी की है, गरिमा भी उसी की। प्रकृति से संबंधित सूक्ष्मजगत का रहस्योद्घाटन भौतिक विज्ञान के अंतर्गत निरंतर होता चल रहा है। उसी जानकारी के आधार पर रेडियो, टेलीविजन आदि काम करते हैं। एक्सरे, लेजर आदि का प्रयोग होता है और उपग्रहों को पृथ्वी की कक्षा में घुमाने से लेकर अंतर्ग्रही खोज पर भेजा जाता है। जो अभी तक जाना गया है, अगले दिनों उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करने की तैयारी है; तब मनुष्य के हाथ में पवन-बादल आदि की लगाम होगी और सूर्य ईंधन की आवश्यकता की पूर्ति करने लगेगा। हो सकता है अंतरिक्ष में नगर बसने लगें और ग्रह-उपग्रहों के बीच आदान-प्रदान चल पड़े। इससे अधिक व्यापक और अधिक समर्थ चेतनापरक सूक्ष्मजगत है। पदार्थसत्ता से भरे सूक्ष्मजगत की कुंजियाँ पदार्थ विज्ञानियों के हाथ लगती रही, पर चेतनसत्ता वाले सूक्ष्मजगत के संबंध में अधिक जानकारियाँ सचेतन तेजपुंज ही अनुभव करते हैं। उससे लाभ लेते व उसे प्रभावित करके अभीष्ट अनुदान हस्तगत करते हैं। यह आत्मा और परमात्मा का विषय है। आत्मा अणु है, परमात्मा विभु। आत्मा बिंदु है और परमात्मा सिंधु। दोनों के बीच वैसा ही तादात्म्य है जैसा कि परमाणु और सौरमंडल के बीच। इन दोनों के बीच आदान-प्रदान और सहयोग-सहकार जिन महान नियमों और सिद्धांतों के आधार पर बना हुआ है, इसी का अनुसरण परमाणु और उसके सहयोगी घटक भी करते हैं। ब्रहमांडीय चेतना को ही परब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। इसका एक छोटा किंतु दिव्य सत्ता के अंतर्गत विधान सभी शक्तियों का प्रतीक-प्रतिनिधि है। दोनों के बीच यों प्रत्यक्ष संबंध सदा ही दृष्टिगोचर नहीं होता। दोनों की स्थिति पृथक-पृथक है। फिर भी दोनों एकदूसरे के साथ परोक्ष रूप से एक ही संबंध-सूत्र में जुड़े हुए हैं, जिसे विकसित कर लेने पर आदान-प्रदान का उपक्रम अधिक बड़े रूप में चल पड़ता है। ऋषिकल्प आत्माएँ इसी प्रक्रिया में प्रवीण-पारंगत हो चुकी होती हैं। मानव में देवत्व के उदय का अर्थ है— जीवन में ब्रह्मसत्ता की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में अवधारणा— अवतरण होना। जीवात्माओं का चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण का उपक्रम इसी चेतना के सूक्ष्मजगत में संपन्न होता है, जिसे परलोक कहते हैं। कर्मफल के चरितार्थ होने की व्यवस्था इसी क्षेत्र में बनती है। मरण के उपरांत नया जन्म लेने तक प्राणी इसी क्षेत्र में विहार करता है— स्वर्ग-नरक भोगता है। देवशक्तियों की प्रचंड हिलोरें इसी महासागर में उठती रहती हैं और वे प्राणियों के नियंत्रण-परिपोषण-परिवर्द्धन की भूमिकाएँ संपन्न करती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि नामों से इन्हीं दिव्य तरंगों को जाना जाता हैं। तपस्वी अपनी दिव्य आकर्षणशक्ति को असाधारण रूप से विकसित करके इस स्थिति में पहुँचते हैं कि चेतना के महासमुद्र में से अपने उपयोग के लिए आवश्यक मणिमुक्तक ढूंढ निकालें। ऋद्धि-सिद्धि इन्हीं उपलब्धियों को कहा जाता है। स्वर्गमुक्ति का आनंद इस चेतना-महासमुद्र में तैरते हुए ही लिया जाता है। नरक की व्यवस्था इसी के एक कोने में है। अध्यात्म का समूचा आधार इस अदृश्य लोक पर टिका है, जो निखिल विश्वब्रह्मांड में परमात्मा बनकर और आत्मा बनकर मानवी अंतराल में विद्यमान है।
अदृश्य जगत की विशालकाय सत्ता है। उसकी तुलना में पृथ्वी तो एक छोटी मछली के समान है। समुद्र का पानी जब तक सही स्थिति में है, तभी तक मछली का भी अस्तित्व है, अन्यथा विपरीत स्थिति आने पर उसके लिए तो महाप्रलय ही आ खड़ी होगी। अंतरिक्ष और पृथ्वी के बीच उपयुक्त तालमेल बना रहे, इसकी भूमिका उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव निभाते हैं। जो भला-बुरा पृथ्वी पर आकाश से निरंतर बरसता रहता है, इसमें से उपयोगी अंश उत्तरी ध्रुव की छलनी छानकर रख लेती है और शेष कचरे को दक्षिणी ध्रुव में होकर फिर उसी अनंत गह्वर में धकेल देती है। प्रकृति-संपदा का इसी प्रकार आदान-प्रदान होता रहता है। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि जीवन पृथ्वी की अपनी उपज नहीं है। वह किसी अन्य विकसित ग्रहपिंड से यहाँ संयोगवश आ उतरा है। मनुष्य भटका हुआ देवता इसी आधार पर कहा जाता है। यह प्रकृति-परिकर में जड़-जीवन की चर्चा हुई। इसके अतिरिक्त 'चेतन' का एक और पक्ष है, जिसे जड़-जगत से असंख्य गुना महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। कोई शरीर कितना ही समर्थ व सुंदर क्यों न हो, पर उसकी समस्त गतिविधियाँ अदृश्य स्तर की मानसिक चेतना के माध्यम से ही संचालित होती है। उसके मूर्छित हो जाने पर शरीर गहरी प्रसुप्ति में चला जाता है और बड़े परेशान होने पर भी कुछ पता नहीं चलता। यदि प्राण निकल जाए तो प्रौढ़ शरीर के लिए हिलना-डुलना तो दूर, कुछ समय भी लाश का अस्तित्व बनाए रहना संभव न हो सकेगा। कीड़े-कौवे ही उसका सफाया कर देते हैं। इस दुर्गति से बचाने के लिए ही उसे मिट्टी में दबाने या आग में जलाने का उपक्रम किया जाता है। शरीर का सब कुछ दृश्य प्रतीत होता रहने पर भी वस्तुतः वह प्राणशक्ति की कठपुतली भर है। जो शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अपनी सत्ता किसी-न-किसी रूप में बनाए रहती है और परलोक आदि में भ्रमण करती हुई नया जन्म धारण करती है। उसे अनादि-अनंत और अजर-अमर भी कहा गया है। महत्ता उसी की है, गरिमा भी उसी की। प्रकृति से संबंधित सूक्ष्मजगत का रहस्योद्घाटन भौतिक विज्ञान के अंतर्गत निरंतर होता चल रहा है। उसी जानकारी के आधार पर रेडियो, टेलीविजन आदि काम करते हैं। एक्सरे, लेजर आदि का प्रयोग होता है और उपग्रहों को पृथ्वी की कक्षा में घुमाने से लेकर अंतर्ग्रही खोज पर भेजा जाता है। जो अभी तक जाना गया है, अगले दिनों उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करने की तैयारी है; तब मनुष्य के हाथ में पवन-बादल आदि की लगाम होगी और सूर्य ईंधन की आवश्यकता की पूर्ति करने लगेगा। हो सकता है अंतरिक्ष में नगर बसने लगें और ग्रह-उपग्रहों के बीच आदान-प्रदान चल पड़े। इससे अधिक व्यापक और अधिक समर्थ चेतनापरक सूक्ष्मजगत है। पदार्थसत्ता से भरे सूक्ष्मजगत की कुंजियाँ पदार्थ विज्ञानियों के हाथ लगती रही, पर चेतनसत्ता वाले सूक्ष्मजगत के संबंध में अधिक जानकारियाँ सचेतन तेजपुंज ही अनुभव करते हैं। उससे लाभ लेते व उसे प्रभावित करके अभीष्ट अनुदान हस्तगत करते हैं। यह आत्मा और परमात्मा का विषय है। आत्मा अणु है, परमात्मा विभु। आत्मा बिंदु है और परमात्मा सिंधु। दोनों के बीच वैसा ही तादात्म्य है जैसा कि परमाणु और सौरमंडल के बीच। इन दोनों के बीच आदान-प्रदान और सहयोग-सहकार जिन महान नियमों और सिद्धांतों के आधार पर बना हुआ है, इसी का अनुसरण परमाणु और उसके सहयोगी घटक भी करते हैं। ब्रहमांडीय चेतना को ही परब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। इसका एक छोटा किंतु दिव्य सत्ता के अंतर्गत विधान सभी शक्तियों का प्रतीक-प्रतिनिधि है। दोनों के बीच यों प्रत्यक्ष संबंध सदा ही दृष्टिगोचर नहीं होता। दोनों की स्थिति पृथक-पृथक है। फिर भी दोनों एकदूसरे के साथ परोक्ष रूप से एक ही संबंध-सूत्र में जुड़े हुए हैं, जिसे विकसित कर लेने पर आदान-प्रदान का उपक्रम अधिक बड़े रूप में चल पड़ता है। ऋषिकल्प आत्माएँ इसी प्रक्रिया में प्रवीण-पारंगत हो चुकी होती हैं। मानव में देवत्व के उदय का अर्थ है— जीवन में ब्रह्मसत्ता की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में अवधारणा— अवतरण होना। जीवात्माओं का चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण का उपक्रम इसी चेतना के सूक्ष्मजगत में संपन्न होता है, जिसे परलोक कहते हैं। कर्मफल के चरितार्थ होने की व्यवस्था इसी क्षेत्र में बनती है। मरण के उपरांत नया जन्म लेने तक प्राणी इसी क्षेत्र में विहार करता है— स्वर्ग-नरक भोगता है। देवशक्तियों की प्रचंड हिलोरें इसी महासागर में उठती रहती हैं और वे प्राणियों के नियंत्रण-परिपोषण-परिवर्द्धन की भूमिकाएँ संपन्न करती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि नामों से इन्हीं दिव्य तरंगों को जाना जाता हैं। तपस्वी अपनी दिव्य आकर्षणशक्ति को असाधारण रूप से विकसित करके इस स्थिति में पहुँचते हैं कि चेतना के महासमुद्र में से अपने उपयोग के लिए आवश्यक मणिमुक्तक ढूंढ निकालें। ऋद्धि-सिद्धि इन्हीं उपलब्धियों को कहा जाता है। स्वर्गमुक्ति का आनंद इस चेतना-महासमुद्र में तैरते हुए ही लिया जाता है। नरक की व्यवस्था इसी के एक कोने में है। अध्यात्म का समूचा आधार इस अदृश्य लोक पर टिका है, जो निखिल विश्वब्रह्मांड में परमात्मा बनकर और आत्मा बनकर मानवी अंतराल में विद्यमान है।