Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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आभामंडल की प्रभाव-क्षमता अब संदेह से परे!
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स्थूलशरीर को सतत स्पंदन देने वाली, उसकी सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखने वाली ऊर्जाशक्ति एक ही है, किंतु उसके नाम अनेक रूपों में जाने जाते हैं। चीन व जापान में इसे 'साय' या 'की एनर्जी' , रेड इंडियंस में 'आरैंडा', रूस में “बाॅयोप्लाज्मा” तथा आधुनिक पाश्चात्य जगत में इसे 'ऑरगाॅन एनर्जी' नाम से पुकारा जाता है। भारतीय दर्शन इसी शक्ति को प्राण-ऊर्जा कहता है।
चिकित्सा जगत के पितामह माने जाने वाले पैरासेल्सस की यही मान्यता थी कि मानवी काया बड़ी विलक्षण है। इसके भीतर निहित ऊर्जापुंज काया के बाहर भी एक प्रकाशपुंज के रूप में प्रतिभासित होता रहता है। इसे हम चाहें तो प्राण-शरीर कह लें अथवा प्राणमयकोष अथवा थियोसोफी की भाषा में इथरीक डबल, है यह प्राण-ऊर्जा का एक रूप ही। 'बैक थ्रू टू क्रिएटीविटी' नामक ग्रंथ में विद्वान लेखक आर्नल्ड जेंसन ने बताया है कि हमारे शरीर के इर्द-गिर्द ही नहीं, अपितु आर-पार फोटोन्स के माध्यम से निकलने वाले तीव्र प्रकाश का एक विद्युत चुंबकीय परिकर होता है, जो काया के अंग-प्रत्यंग को ही नहीं, समूचे परिकर को प्रभावित करता है। जो इसका क्षरण रोककर उसे संग्रहीत करता है, वह प्राणशक्तिसंपन्न बनता है, ऋद्धि-सिद्धियाँ उस पर बरसती हैं।
यह चर्चा मानवी चुंबकत्व से उपजे प्रभामंडल के संदर्भ में चल रही है। इस संबंध में प्रसिद्ध मनःचिकित्सक-लेखक जेफ्री मिशलोव ने अपने ग्रंथ 'रुट्स ऑफ कांशसनेस' में पाश्चात्य जगत में हुए प्रयोगों, जिनका मूल आधार भारतीय धर्मग्रंथ हैं, का उल्लेख किया है। उन्होंने ऑरा खंड में बताया है कि डॉ॰ किल्नर ने मनुष्य के हृदय से नीला, हाथ के अग्रभाग से नीला-हरा एवं जाँघ जननेंद्रियों के क्षेत्र से हरा रंग निस्सृत होते देखा व फोटोग्राफी द्वारा उसे रिकार्ड भी किया। विभिन्न व्यक्तियों पर प्रयोगकर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन रंगों में भिन्नता मनुष्य की भावना-विचारणा, अंतःकरण की उत्कृष्टता-निकृष्टता के आधार पर निर्धारित होती है। वस्तुतः प्रभामंडल सूक्ष्म मनोवेगों से बना एक आयनमंडल है, जिससे चारों ओर एक उच्चस्तरीय ऊर्जा-क्षेत्र बनता है। रूस के ऑरासायकिएट्री इंस्टीट्यूट की प्रमुख थेल्मामाॅस ने भी इस दिशा में काफी प्रयोग किए हैं।
ईसाई धर्म के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में इस शक्ति को 'ऑरेओला' नाम दिया गया है। अतींद्रिय क्षमतासंपन्न मनीषी स्वीडन बोर्ग ने अपनी 'स्प्रिचुअल डायरी' में लिखा है कि प्रत्येक जीवधारी का शरीर आध्यात्मिक प्रकाश से घिरा रहता है। इसका रंग मानवी स्वभाव, स्वास्थ्य, भावनाएँ, जीवनचर्या के संयम, नियम-अनुशासन, आत्मविश्वास के आधार पर बदलता रहता है।
डा॰ किल्नर से पूर्व रिचेन बेच ने मनुष्य की अंगुलियों के संवेदात्मक चित्र खींचकर इसे 'ओडिस फोर्स' नाम दिया था। रिचेन बेच के अनुसार— 'ओजस् एवं तेजस्' का दूसरा नाम ही तेजोवलय है। यह शरीर के चारों ओर छह इंच की दूरी तक फैला रहता है। चेहरे पर उसकी मात्रा, सघनता की परिधि अधिक होती है एवं इसे एक प्रकार की भाप ऊष्मा समझा जा सकता है। यह भाप निकट क्षेत्र में तो खुली आँखों से देखी जा सकती है: पर कुछ ऊँचा उठने के बाद वह विरल एवं अदृश्य हो जाती है, फिर भी उसका अस्तित्व बना रहता है। रात्रि में शीतलता का संपर्क होने पर जिस प्रकार सूर्य ऊष्मा घास-पात पर ओस बिंदु बनकर जमा हो जाती है, ठीक उसी प्रकार स्थूलशरीर एवं उसमें समाई हुई प्राण-चेतना की सक्रियता अंतरंग में बढ़ने के अलावा त्वचा के बाहर भी उसका फैलाव होने लगता है। यही ओजस् या तेजोवलय है।
'द ओरीजीन एंड प्रोपर्टीज ऑफ ह्यूमन ऑरा' के लेखक डाॅॅॅॅॅ॰ किल्नर ने स्पष्ट किया है कि पाशविक प्रवृत्तियाँ, निद्रा, भूख, प्यास, क्रोध, वासना, विषय लोलुपता आदि प्रभामंडल को काले रंगों से भर देते हैं। वे मस्तिष्क की विकृति का मूल कारण मस्तिष्क के अणुओं का रोगी होना मानते हैं।
तांत्रिक एवं थियोसोफिकल इसे हिंदू दर्शन द्वारा निर्धारित काया के षट्चक्रों से जोड़ते हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के साथ जाग्रत होते चले जाते हैं। अतींद्रिय क्षमतासंपन्न व्यक्तियों ने इसे विभिन्न आकार एवं रंगों में देखा है। कुछ वैज्ञानिक इसे मानव की जैव विद्युत का उत्पादन ही मानते हैं। जो व्यक्ति की भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार चारों ओर फैला रहता है।
'मैन विजीबल इनविजीबल' के लेखक डाॅ॰ लेडबीटर का मत है कि तेजोवलय वस्तुतः अंतरंग में समाहित प्राणशक्ति का बाहर झाँकता हुआ मंडराता हुआ स्वरूप है। वह उच्चस्तरीय भी होता है और निकृष्टतम भी। रूप-सौंदर्य वाले व्यभिचारियों में, वेश्याओं में, ठगों में, क्रूर आक्रांताओं में एवं निकृष्ट चिंतन वाले लोगों में यह अत्यंत निम्न स्तर का होता है। इसे असुरता का परिचायक कह सकते हैं। इसका सघन होना धारणकर्त्ता के पतन का द्वार खोलता है। जिस पर ऐसा प्रभामंडल प्रभाव छोड़ता है, उसे अशक्त-असहाय बनाकर निर्जीव-पराधीन की स्थिति में ला पटकता है। इस आसुरी तेजोवलय का रंग कालिख लिए होता है, ऐसा दिव्यदर्शियों का मत है।
मनीषियों का मत है कि कामोत्तेजना के कारण यदि व्यक्ति रोगी हो तो मस्तिष्क के अणुओं की आभा काले व गहरे लाल रंग की होगी एवं द्वेष से पीड़ित अणुओं की आभा हरे रंग की होगी। इसी प्रकार विभिन्न दुर्गुणों से पीड़ित होने पर अणु आभा अलग-अलग रंग की होती है एवं इस आधार पर व्यक्ति के अंतरंग को पहचाना जा सकता है।
संत-सज्जन एवं देव-प्रवृत्ति के लोगों का तेजोवलय पीली आभा लिए हुए होता है। वे समीपवर्त्ती लोगों को स्नेह, अनुग्रह, अनुदान अनायास ही देते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति के समीप बैठने वाले एक विधेयात्मक आकर्षण, आंतरिक आनंद की, उल्लास की अनुभूति करते हैं। उनसे सतत संपर्क बनाए रखने से उनका आशीर्वाद पाने की आकांक्षा बनी रहती है। महामानवों, देवदूतों, देवमानवों के रूप में जो भी सिद्धपुरुष जन्मे हैं, उनके चहुँ ओर सदैव श्रेष्ठ लोगों का बाहुल्य इसी कारण पाया जाता रहा है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मनीषी डाॅ॰ कोलीन विल्सन और स्टार्ट हालराइड ने अपनी किताब 'मिस्ट्रीज ऑफ द माइंड, में लिखा है कि देवताओं, अवतारों के चेहरे के चारों ओर जो प्रभामंडल चित्रित किया जाता है, वह वस्तुतः प्राण-ऊर्जा का ही प्रतीक है। यह उनकी आध्यात्मिक विशिष्टता का परिचय देता है। यों इसे खुली आँखों नहीं देखा जा सकता, किंतु जिनका अतींद्रिय ज्ञान जाग्रत है, उन्हें बहिरंग को देखकर ही व्यक्ति की मानसिक, आंतरिक स्थिति का परिचय मिल जाता है।
इसी प्रभामंडल का वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दृष्टि से रूस के वैज्ञानिकों सीमेन, वेलेंटाइना एवं किर्लियन ने जब हाइ वोल्टेज विद्युत प्रवाहित की तो पाया कि जीव, प्राणियों, वनस्पतियों के चारों ओर प्रकाश-किरण का प्रवाह बिखरा पड़ा है, तब उसे उन्होंने बायोप्लास्मिक बॉडी नाम दिया। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रत्येक जीव इस बायोप्लास्मिक बाॅडी से घिरा रहता है। किर्लियन फोटोग्राफी में पौधों के पत्तों से निकलने वाली प्रकाश-किरणों को दिखाया गया। उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि एक ही जाति के पत्तों में भिन्न-भिन्न रंग प्राप्त हुए, जो पत्तों में जीवनी शक्ति एवं रोगों की स्थिति की जानकारी देते हैं। विभिन्न बैक्टीरिया के प्रभाव से पूर्व इन रंगों में परिवर्तन होते भी देखा गया।
यह बायोप्लाज्मा मनुष्यों में संभावित रोगों के बारे में भी जानकारी देते हैं। बैग्नेल (लंदन) एवं रिगस (अमेरिका) वैज्ञानिकों के मतानुसार ऑरा का पूर्व मापन करके बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति किस मनोविकार का शिकार है एवं भविष्य में इसे कौन-सा रोग हो सकता है? मस्तिष्क में रक्तस्राव, दमा, हृदयाघात, कैंसर संभावित रोगों में पूर्व से ही निदान की इस विधि में साठ से अस्सी प्रतिशत सफलता उन्हें मिली है। उन्होंने निषेधात्मक एवं विधेयात्मक चिंतन के औरा का भी गहरा विश्लेषण किया है।
पाश्चात्य परामनोवैज्ञानिकों ने 'बायोप्लाज्मिक बाडी' के प्रभाव को पूर्वार्त्त मनोविज्ञानियों की तरह ही स्वीकारा है। डाॅ॰ मांटेग्यू अलमेन ने 'सायकिक मेगेजिन' में लिखा है कि ये प्रकाशपुंज मनुष्य के मन एवं अंतःकरण से संबंधित हैं, जिनसे सारा वातावरण प्रभावित होता है। श्वेत एवं तेजस्वी वलय शरीर एवं मनोगत समर्थता का परिचायक है, इनमें सन्निहित रंगों का आभा मानसिक विशेषता को प्रदर्शित करती है, जबकि दिव्यताविहीन धुँधले कुहरे जैसा वलय मानसिक दृष्टि से गए-बीते एवं निकृष्ट चिंतन की ओर इंगित करता है। इस लेख में उन्होंने आगे लिखा है कि यह 'बायोप्लाज्मिक बॉडी' अपने आस-पास के वातावरण के घूमते कणों को अपनी शक्ति से चार्ज कर देती है। इस प्रक्रिया को उन्होंने 'आयोनाइजेशन' कहा है। जिस स्तर के प्राण-प्रवाह होते हैं, परिष्कृत अंतःकरण होता है, चिंतन का स्तर होता है, उसी अनुरूप औरा का निर्माण होता है एवं सारा वातावरण इन आयंस से चार्ज हो जाता है।
डाॅ॰ जार्ज मिक ने मानवी प्रभामंडल को तीन भागों में बाँटा है। पहला शरीर तक सीमित विद्युत विभव, दूसरा शरीर के बाहर तक निकला तेजोवलय एवं तीसरा शरीर को कवच की तरह चारों ओर से लपेटे 6 से 8 इंच व साधनात्मक प्रगति पर कई फीट तक का विस्तार वाला क्षेत्र।
तीसरे प्रभावशाली आभा परिकर को उन्होंने 'जोन ऑफ एनर्जी' कहा है। पहले में बिंदु होते हैं, दूसरी में रेखाएँ और तीसरे में सघन आयनों का समुच्चय। पहले को स्थूलशरीर या बायोप्लाज्मा, दूसरे को प्लाज्मा एवं तीसरे को आयन विकिरण कहा गया है, जिसमें वास्तव में हीलिंग (चिकित्सा) की क्षमता होती है। प्राण-प्रत्यावर्तन में इसी की प्रधान भूमिका होती है। हाथ सिर पर या रुग्ण अंग पर रखकर चिकित्सा करने वाले आयन विकिरण-प्रक्रिया द्वारा ही यह सायकिक हीलिंग करते हैं।
मात्र स्थूलशरीर तक सीमित विद्युत विभव जो बिंदुरूप में क्रियाशील है, विशेष आभारूप में निकलता है, इसमें उपचार की शीघ्रगामी क्षमता है। प॰ जर्मनी के अतींद्रिय क्षमतासंपन्न वैज्ञानिक जार्ज मिचेल ने 'थियो-सोफिका प्रेक्टिका' में लिखा है कि इन बिन्दुओं से प्रकाश-किरणें निस्सृत होती रहती हैं। इसका संबंध उन्होंने चीन में चल रहे एक्यूपंक्चर चिकित्सापद्धति से जोड़ा है। एक्यूपंक्चर एवं जार्ज मिचेल द्वारा बताए गए बिन्दुओं में विलक्षण समानता पाई गई है। एक्यूपंचर विशेषज्ञों का कहना है कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जीवनी शक्ति एक विशेष अदृश्य रेखाओं से आती है, जिनका संबंध संपूर्ण शरीर से है। उन बिंदुओं पर सुई का स्पर्श या थोड़ा-सा दबाव (एक्यूप्रेशर) दरद या रोग को तुरंत समाप्त कर देता है। विशेषज्ञों के अनुसार इन बिंदुओं को उत्तेजित करने पर उन विशेष बिंदुओं से विशेष आभा निकलती है, जिसके द्वारा स्थूलशरीर में दृष्टिगोचर होने वाले रोगों का उपचार किया जा सकता है। दरद को समाप्तकर व्यक्ति को कष्टमुक्त किया जा सकता है।
एक्यूपंक्चर के बिंदु, बायोप्लाज्मिक बॉडी, आयनीकरण इत्यादि सभी एक ही तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यदि अपने सूक्ष्म व कारणशरीर की संरचना को सुदृढ़ बनाया जा सके, प्रसुप्त केंद्रों को उत्तेजित किया जा सके तो जाग्रत प्राण-ऊर्जा के प्रभाव से न केवल स्वयं रोगमुक्त रहा जा सकता है, अन्यान्यों को भी लाभान्वित किया जा सकता है। प्रभामंडल एक प्रकार का छायापुरुष है। इसकी सिद्धि जो कर लेता है, वह न केवल सामने वाले के गुण, कर्म, स्वभाव को जाँचने-परखने में सिद्धहस्त हो जाता है, वरन उसे यह मार्गदर्शन दे सकने में भी समर्थ हो जाता है कि कैसे उसे अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को सशक्त बनाना चाहिए? इसके लिए क्या उपचार, किस प्रकार किए जाने चाहिए?
आभामंडल की जानकारी अब मात्र रोग-निदान उपचार तक ही नहीं सीमित रही है, इसका उपयोग आध्यात्मिक उपचार, शक्ति-संवर्द्धन, मनोबल व संकल्पशक्ति के उछालने में भी किया जा सकता है। यह क्रमशः स्पष्ट होता जा रहा है। भावी आत्मबलसंपन्न व्यक्तियों की पीढ़ी इसी आधार पर विनिर्मित होगी।