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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रतिभा का निखार— व्यवस्था-बुद्धि का विकास

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भगवान ने मनुष्य को कैसा विलक्षण शरीर और मन दिया है, इसको देखते हुए लगता है कि ऐसी अनुपम विभूतियों से भरा-पूरा जीवन मनुष्य को अकारण-अनायास ही नहीं दिया गया है, उसके पीछे कोई महान उद्देश्य सुनिश्चित रूप से छिपा होना चाहिए, अन्यथा मनुष्य को इतनी बड़ी संपदा का अनायास ही उपलब्ध होना अन्य प्राणियों के साथ अन्याय और एक प्राणी के साथ किया गया पक्षपात माना जाता। परब्रह्म के समदर्शी और न्यायकारी होने पर संदेह उठता और कलंक लगता।

शरीर की विलक्षणता तब दीख पड़ती है, जब उसे मूर्तिकारों, चित्रकारों, संगीतज्ञों, अभिनेताओं, पहलवानों, कठिन प्रतिस्पर्धाओं में जीतने वालों के कौशल के रूप में देखकर चकित रह जाना पड़ता है। प्रतिभा-मेधा के धनी, साहित्यकार, विशेषज्ञों, प्रतिपादकों, दार्शनिकों, शोधकर्त्ता वैज्ञानिक, सर्जन, विद्वान, तार्किक, दूरदर्शी स्तर के मनीषियों को अपनी अतिरिक्त सफलता का प्रदर्शन करते देखते हैं, यह चमत्कार और कुछ नहीं विद्यमान क्षमता का निखार भर है। हीरे को खराद पर तराशने से उसकी जगमगाहट देखते ही बनती है और कीमत कहीं-से-कहीं पहुँच जाती है। जंग लगे, भोंथरे शस्त्रों को जब धार रखकर तेज कर दिया जाता है तो वे एक ही झटके से एक बलिष्ठ को दो भाग में बाँट देते देखे गए हैं। सोया हुआ मनुष्य भी अर्द्धमृत जैसी स्थिति में पड़ा रहता है, पर जब वह जगता है तो अपने पराक्रम और कौशल से उपार्जनों के ढेर लगा देता है। स्रष्टा ने बीजरूप में सबको समान वैभव दिया है। यह अपनी इच्छा के ऊपर निर्भर है कि जो मिला है, उसे अपेक्षित, अनगढ़ स्थिति में पड़ा रहने दिया जाए या किसान के बीज बोने की तरह खाद-पानी दें और धन-धान्य के कोठे भरकर अपने पौरुष का प्रदर्शन करें।

अगणित विशेषताओं से युक्त मानवी काय-कलेवर की उपलब्धि ईश्वर की देन है। इसे सँजोना-सँभालना उपलब्धकर्त्ता का अपना काम है। कोई चाहे तो निर्वस्त्र रहकर पागलों की तरह उपहासास्पद स्थिति में भी बना रह सकता है। किसी में शऊर हो, तो उसी काया को परिधान-आच्छादनों से शृंगारित-सुसज्जित करके मनमोहक बनाया जा सकता है। यह अपनी मरजी और रुझान का विषय है। भगवान ने मानव की बुद्धिमत्ता और पात्रता को इसी कसौटी पर परखा है कि वह दिए गए अनुदान को उपयोग करने में अपनी कुशलता और प्रगतिशीलता का परिचय दे सकता है या नहीं। भावी प्रगति या अवगति की संभावना इसे कसौटी पर कसे जाने के उपरांत बन पड़ती है।

आलस्य मन का प्रथम शत्रु है। शरीर को वह सजीव होते हुए भी निर्जीव स्तर का बनाकर रख देता है। जब स्फूर्ति, उत्साह और परिश्रम को अपनाया ही न जाएगा तो काया स्वयं ही दौड़ती और कुछ उपयोगी काम करती रह सके, ऐसा कहाँ बन पड़ेगा? आलसी व्यक्ति न अपनी कमी खोज पाते है और न उसमें सुधार करने का कुछ प्रयास करते है। फलतः दिन ज्यों-त्यों करके गुजरते रहते हैं। शरीरयात्रा किसी प्रकार चलती रहती है, किंतु निरंतर श्रमशील न रहने की कुटेव उनके लिए कोई ऐसी उपलब्धि नहीं बुला सकती, जिसके आधार पर समुन्नत कहलाने का श्रेय मिल सके। जब आलस्य शरीर से आगे बढ़कर मन तक पर सवार हो जाता है, तब उसे प्रमाद कहते हैं। प्रमादी को न अवनति अखरती है और न उन्नति के लिए उमंग उठती है। यथास्थिति बनी रहने में ही उसका चिंतन-स्तर सिकुड़ जाता है। न उसे सीखने की इच्छा होती है और न ऐसी योजना बनाने की, जिसके आधार पर आज की तुलना में कल अधिक समर्थ और समुन्नत बन सकें। ऐसे लोगों को जब कभी दीनता-हीनता का आभास होता है तो किसी अन्य को व्यवधान मानकर उसी पर दोषारोपण करने लगते हैं। भाग्य, विधि-विधान, ईश्वर की इच्छा, समय का फेर, ग्रह-नक्षत्रों द्वारा उत्पन्न किए गए अवरोधों की बात सोचकर संतोष कर लेते हैं। बहुत हुआ तो शासन, समाज, वातावरण, कलियुग या किन्हीं व्यक्तियों को दोषी मानकर उनके प्रति बैरभाव जमा लिया जाता है। आलसी और प्रमादी प्रायः इसी अवसाद एवं अचिंत्य-चिंतन से घिरे रहते हैं और ज्यों-त्यों करके जिंदगी के दिन पूरे कर लेते हैं।

कल्पित व्यक्तियों पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण का कुचक्र चल पड़ता है। विचारणा इसी जंजाल में उलझ जाती है। योजनाएँ इसी परिधान में बनती रहती है। ऐसी दशा में यह सोचने या सूझने की गुंजाइश ही नहीं रहती कि प्रगति के लिए क्या किया जा सकता है और उसे किस प्रकार संपन्न करना चाहिए? घृणा और आक्रोश से कितनों की ही बहुमूल्य शक्तियाँ विघटन और विनाश खड़ा करने में लग जाती हैं। यह काम प्रायः इतना लंबा और भारी होता है कि उससे निबटने में ही जिंदगी का बड़ा भाग खप जाता है।

स्रष्टा के शारीरिक- मानसिक विशिष्टताओं वाले दिव्य अनुदानों का सही प्रकार से सही उपयोग बन सके, इसके लिए चिंतन-चेतना को सदा हलका-फुलका बनाए रखने की आवश्यकता है। उसे सदा तीक्ष्ण बनाने और क्रियाशील रखने की आवश्यकता है, संयम अपनाने, सूझ-बूझ उभारने और दूरवर्त्ती परिणामों को ध्यान में रखते हुए जागरूकता बनाए रखने की आवश्यकता है। इसी मनःस्थिति को प्रतिभा कहते हैं। प्रस्तुतः आधारों के अनेक पक्षों पर विचार करने के साथ ही अपनी तथा दूसरों की गतिविधियों का निर्धारण सुव्यवस्था के आधार पर बनाए रखना प्रतिभावानों के लिए ही संभव होता है। प्रमादी तो आरंभ का कुछ कार्य करते और शेष को फिर कभी के लिए, किसी और की ओर खिसका देने के लिए अधूरा छोड़ देते है। फलतः वह आरंभ किया गया थोड़ा-सा काम भी उपहार और तिरस्कार के निमित्त किया जाता है। जिम्मेदार व्यक्ति जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं, उसे पूरी तरह सँजोते हैं और आरंभ वाला उत्साह अंत तक बनाए रखकर समग्रता का, कुशलता का प्रमाण देकर अपनी जिम्मेदारी का परिचय देते हैं।

प्रतिभा निखारने के लिए जिस सूक्ष्मदृष्टि को अपनाना पड़ता है, उसका आरंभिक अभ्यास निरंतर बनी रहने वाली दो समस्याओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए। शरीर से लंबे समय तक महत्त्वपूर्ण काम लेने है; इसलिए इस मशीन को इस प्रकार चलाया जाए कि उसमें न कहीं अड़चन खड़ी हो और न गतिशीलता में न्यूनता ही पड़े। इसके लिए इतनी सतर्कता भर से काम चल जाता है कि उसके आहार, विश्राम एवं क्रियाकलाप को सही संतुलित भर रखा जाए। स्वस्थता की गारंटी इन तीन प्रयोजनों को सही रखने भर से सुनिश्चित हो जाती है।

प्रतिभा का प्रथम चरण स्वास्थ्य-संरक्षण की सफलता को देखकर लगाया जा सकता है। इससे अगली सीढ़ी है— चिंतन को गड़बड़ाने न देना। अवसादग्रस्त या उत्तेजित न होना। शांतचित्त रहने पर ही सही निष्कर्ष निकलना और निर्धारण करना संभव होता है। जब तक कार्य की सुसंतुलित रूपरेखा न बने, तब तक उसको इस रूप में संपन्न नहीं किया जा सकता कि करने वाले की गरिमा एवं दक्षता बढ़ी-चढ़ी समझी जा सके। अच्छी तरह किए गए काम ही सफल होते तथा अपनी विशिष्टता का परिचय देकर प्रशंसा का विषय बनते है।

शरीर और मन की व्यवस्था बना लेना बाह्य जीवन या बहिरंग की सफलताओं का पूर्वार्द्ध पूरा कर लेना है। यह दोनों हर घड़ी साथ रहते है। इन्हें टटोलने और सुधारने का कार्य अवसर मिलते ही निर्धारित किए जाते रह सकते है। बुद्धि की तीव्रता अनुशासन की साधना और गतिविधियों का निर्धारण इन दो माध्यमों के सहारे विकसित की जाती रहे तो समझना चाहिए कि उसका पैनापन कुछ ही समय में इतनी बढ़ी-चढ़ी स्थिति अपना लेगा, जिसके सहारे उलझनों को सुलझाना और श्रेयस्कर दिशाधारा अपना सकना संभव हो सके। प्रतिभा का निखार एवं व्यवस्था-बुद्धि का विकास इन्हीं कुछ आधारों पर अवलंबित है।

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