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Magazine - Year 1989 - Version 2

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अभक्ष्य भोजन के दुष्परिणाम

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आहार से अपराधों का क्या संबंध है? इसका अन्वेषण करने के लिए 'फ्लोरिडा करैक्शन्स कौंसिलेट' द्वारा विद्यार्थियों और जेल के कैदियों पर खाद्य पदार्थों का हेर-फेर करके यह जाँचा गया कि इस कारण मनुष्य के चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ता है? पाया गया है कि शाक और अन्न पर निर्भर रहने वाले प्रायः शांत और विनम्र रहते हैं। उनकी अपराधी प्रवृत्तियाँ पनपती नहीं, यदि वे पहले से रही हो तो शांत हो जाती हैं।

इसके विरुद्ध पाया गया कि मसालेदार और तले-भुने पदार्थ खाने से मनुष्य की प्रवृत्ति आवेशग्रस्त रहती है और वह छोटे-छोटे कारणों से उत्तेजित होकर झगड़े कर बैठता है, साथ ही अन्य अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाने लगता है। यह परिवर्तन उनमें भी होते देखे गए हैं, जो सात्विक भोजन करने के कारण विनम्र और सज्जन थे।

बाल्टीमोर विश्वविद्यालय के क्रिमिनोलोजी विशेषज्ञ डाॅक्टर फिका बोन ने अनेक विनम्र व्यक्तियों को उत्तेजक पदार्थ खिलाकर स्वभाव बदलते और सात्विक आहार से अपराधियों को सज्जनता अपनाते देखा।

न्यूयार्क के सिनाई मेडीकल सेंटर में भी यह प्रयोग दस वर्ष तक चले। इसके साइकियेट्री विभाग के अध्यक्ष साचिया ठी ने भी यही निष्कर्ष निकाला है कि आहार का न केवल शरीर पर, वरन मन पर भी भला-बुरा प्रभाव पड़ता है।

वर्जीनिया के चेसाॅपीक मेडीकल सेंटर ने छोटे बालकों की बिगड़ैल प्रवृत्तियों के लिए उनकी माताओं को दोषी ठहराया, जो गर्भकाल में उत्तेजक आहार खाती रहीं और बच्चों के बढ़ने पर शाकाहार के स्थान पर उत्तेजक मसालों आदि के अलावा माँस जैसे गरिष्ठ पदार्थ खिलाने शुरू कर दिए। फलतः उसका न केवल बच्चों के पाचनतंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ा, वरन उनका स्वभाव भी झगड़ालू तथा दुराव करने वाला बन गया।

ब्रिटिश जेलखानों के सर्जन इन चीफ डाॅक्टर नारमनरीड ने शाकाहारी भोजन पर निर्भर रहने वाले कैदियों के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। वे जेल में प्रवेश करते समय जितने उद्दंड थे, आहार परिवर्तन के बाद वे वैसे न रहे और ऐसा व्यवहार करने लगे, मानों उनने कभी अपराध किया ही न हो।

न्यूयार्क से निर्वाचित सिनेटर एल्फ गोल्ड स्टीन ने विभिन्न विभागों में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ संपर्क साधकर यह पता लगाया कि आहार का मनुष्य के स्वास्थ्य और स्वभाव से क्या संबंध है? लंबे समय के अन्वेषण के उपरांत वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हल्का, सादा और भूख से कम खाया आहार मनुष्य को न केवल बीमारियों से बचाता है, वरन उसके स्वभाव में भी नम्रता तथा ईमानदारी की वृद्धि करता है।

मेरीलेंड विश्वविद्यालय के आहार विशेषज्ञ डाॅ. राॅवर्ट फैंचर ने अपनी खोजों का लंबा निष्कर्ष निकाला है, कि यदि अपराधी स्वभाव से छुटकारा पाना हो तो भोजन में सुधार करना आवश्यक है।

'आर्का इव्य आफ हैल्थ' के अध्यक्ष डाॅक्टर मेरीलेंड का कथन है कि माँस जैसे देर में हजम होने वाले पदार्थ शरीर की मजबूती भले ही बढ़ा दें, किंतु स्वभाव में से सज्जनता का अंश अवश्य ही घटा देते हैं। अपराधी स्वभाव के मनुष्य यदि अपने को बदलना चाहें तो उन्हें नमक और चीनी की मात्रा घटा देनी चाहिए।

बौद्धिक क्षमता का संबंध ज्ञान और अनुभव से हो सकता है, पर भावनाएँ अंतःक्षेत्र से उफनती हैं। सज्जनता का विद्वत्ता और संपन्नता से सीधा संबंध नहीं है। कई व्यक्ति उच्च शिक्षित होते हुए भी हेय आचरण करते देख गए हैं। कइयों के पास साधनों की कमी न होते हुए भी वे उन वस्तुओं को दुष्टतापूर्वक उपलब्ध करना चाहते हैं, जिन्हें वे पैसे के बलबूते सहज खरीद सकते थे; पर दुष्ट आचरण द्वारा आय प्राप्त करने में वे अपने अहंकार की पूर्ति अनुभव करते हैं और चतुरता का दावा करते हैं। कोई बड़ा उद्देश्य सामने न होने पर भी लोग आत्मतृप्ति के लिए नियम और मर्यादाओं के उल्लंघन में अपना गौरव अनुभव करते हैं।

ऐसी उमंगें उन्हें क्यों उठती हैं? इसका एक बड़ा कारण जहाँ वातावरण का प्रभाव होता है— संगति का दोष होता है, वहाँ आहार का भी असाधारण प्रभाव पड़ता है। अनीति उपार्जित धान्य खाने और अन्याय द्वारा प्राप्त की गई वस्तुओं का उपभोग करने में भी मन का स्तर ऐसा बन जाता है, जिससे कुकर्म की ही उमंगे उठती हैं। इस स्थिति में परिवर्तन करना हो तो आहार का परिमार्जन आवश्यक है। चरित्रगठन की दृष्टि से पौष्टिक भोजन उतना आवश्यक नहीं, जितना कि उसका सतोगुणी होना। इसका प्रभाव इस प्रकार भी देखा जा सकता है कि किसी अच्छे स्वभाव के आदमी को अभक्ष्य भोजन कराना आरंभ कीजिए, वह थोड़े ही दिनों में अच्छे से बुरा बन जाएगा।

अभक्ष्य भोजन में वह अन्न और शाक-भाजी भी शामिल हैं, जिन पर रासायनिक पदार्थों का कीड़े मारने के लिए प्रयोग किया गया हो अथवा बहुत दिन कोल्ड स्टोरेजों में सुरक्षित रखने के लिए सड़न रोकने वाले रसायनों का प्रयोग किया गया हो। सीवर लाइनों का कच्चा पानी सिंचाई के काम लाने पर फसल में वे दोष आ जाते हैं। उपयोगी खाद तब बनती है, जब उसका कच्चापन पूरी तरह गल जाए और वह उस गंध से रहित हो जाए, तो पशुओं तथा मनुष्यों के मल-मूत्र में आरंभिक दिनों में पाई जाती है। सड़न के लिए उतने दिनों की प्रतीक्षा करने की झंझट से बचने के लिए कच्ची खाद, उर्वरता बढ़ाने के नाम पर रासायनिक खादों का प्रयोग करके फसल जल्दी या अधिक मात्रा में उपजाने के लिए प्रयोग की जाती है। ऐसे अन्न-शाक अपना स्वाभाविक स्वाद खो बैठते हैं, साथ ही शरीर के साथ मन को स्वस्थ रखने की विशेषता भी।

माँस निकालने में जीवित प्राणी का वध करना पड़ता है, उस समय उसे कितनी पीड़ा होती होगी, इसका अनुमान हम अपने शरीर में चाकू जैसी हलकी धारदार वस्तु चुभो-चुभोकर देख सकते हैं। यह पीड़ा सूक्ष्म रूप में माँस के साथ जुड़ी रहती है और उसे खाने वाले की मानसिक स्थिति में निष्ठुरता एवं क्रूरता का समावेश करती हैं।

इससे भी बड़ी यह है कि पाले हुए पशुओं का आहार-विहार प्राकृतिक न रहने के कारण उनके रक्त-माँस में कितने ही प्रकार के रोगों का प्रवेश हो जाता है। इनमें से कुछ विषाणु ऐसे होते हैं, जो पकाने पर भी नष्ट नहीं होते और खाने वाले के शरीर में पहुँचकर कई प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ पैदा करते हैं। मन के ऊपर तो उनका बुरा प्रभाव पड़ता है।

बढ़ती हुई तथाकथित सभ्यता के अनुसार खाद्य पदार्थों में कई तरह के रंग-सुगंधि तथा मसाले मिलाए जाते हैं। वे खाते समय स्वादिष्ट भले ही लगते हों, पर उनकी स्वाभाविकता नष्ट होती चली जाती है। इसका दुष्प्रभाव न केवल शरीर पर, वरन मन पर भी पड़ता है।

'जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन' की चिरपुरातन उक्ति बहुत ही सारगर्भित है। कुधान्य से मतलब सड़ा, गला, बासी, बुसा अन्न ही नहीं, वरन वह भी है जो अचार, जैली, बिस्कुट, ब्रेड, चाकलेट आदि की तरह बहुत दिन रखने योग्य बनाकर रखे जाते हैं। ऐसे पदार्थों को फैशन या बड़प्पन के नाम पर पेट में भरते रहने से— आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा जाने में जहाँ पेट खराब होता है— अपचजन्य बीमारियों का दौर बढ़ता है, वहाँ खाने वाले का चिंतन और चरित्र भी हेयस्तर का बनता है;  इसलिए जहाँ तक हो, अभक्ष्य भोजन से बचा ही जाना चाहिए।

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